आत्मीयता के पुजारी - विजय खुराना

माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ी ने सदैव त्यागी, तपस्वी एवं कर्मयोगी का जीवन जिया। सच्चे देशभक्त होंने के साथ ही वे आत्मीयता के सबसे बड़े पुजारी थे। आत्मीयता उनकी रग-रग में विद्यमान थी। आत्मीयता का ही प्रतिफल था कि जो भी उनके संपर्क में आया, उसने मुड़कर नहीं देखा, जीवन पर्यन्त उनका भक्त हो गया। सर्वगुण सम्पन्न श्री ठेंगड़ी जी ने जहां जीवन भर गरीब, मजदूर एवं शोषित समाज का भला किया वहीं परोपकार करने वाले के प्रति कृतज्ञ होना भी उनका सबसे प्रमुख गुण था। जहां अपनों के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को हर समय तैयार रहे वहीं एक छोटे से कार्यकर्ता के द्वारा किए एक छोटे से उपकार को वे कभी भूले नहीं और जब तक उसका धन्यवाद नहीं कर देते, उनके मन में बेचैनी रहती थी। श्री ठेंगड़ी जी सदैव दूसरों के लिए जिए, अपने लिए समाज से कभी कुछ नहीं मांगा। राजनीति में रहकर भी राजनीति से दूर श्री ठेंगड़ी को भारतीय जनता पार्टी के गिरते ग्राफ, हिन्दुत्व की उपेक्षा होने व सीपीआई-सीपीएम की राजनीतिक मजबूती की जीवन के अंतिम समय तक चिंता सताती रही।

मैं पहली बार 1966 में श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी के संपर्क में तब आया जब वे राज्यसभा के सांसद थे और मैं नवीं का छात्र था। श्री रामदास पांडे जो श्री ठेंगड़ी जी के जीवन भर सहयोगी रहे, ने संघ के स्वयंसेवक के रूप में मेरा परिचय उनसे कराया था। चूंकि श्री ठेंगड़ी जी साउथ एवेन्यू में रहते थे और सौभाग्य से मेरे पिता का कारोबार भी साउथ एवेन्यू में ही था। पिता भी संघ के स्वयंसेवक थे, उनकी रामदास पांडे से अच्छी घनिष्ठता थी। संघ की शाखा में मैंने भी जाना शुरू किया था। अत: श्री ठेंगड़ी जी से संपर्क होना स्वाभाविक था। नित्यप्रत संघ की शाखा में जाने के कारण श्री ठेंगड़ी जी से मेरी भी घनिष्ठता बढी। 1968 से 1975 तक नियमित शाम को मैं साउथ एवेन्यु से मोती बाग की सैर करने उनके साथ जाया करता था। तब ठेंगड़ी जी चाय के बहुत शौकीन थे, नित्यप्रत 30 से 35 चाय रोजाना पीते थे। चाय का डेग 12 घंटे चढ़ा रहता था।

1975 में 'इमरजेंसी रोको मूवमेंट लोक सघर्ष समिति’ का गठन हुआ। वे उसके अध्यक्ष बने मैं भी उसका एक सदस्य बना। उनका मार्ग दर्शन मिलता रहा। संघ के शिविरों में भी उनसे मुलाकात होती रही।  1978 तक वे 156 साउथ एवेन्यु में रहे और 78 के बाद 129 नंबर में आ गए थे। 1978 के बाद मेरा उनसे रोजाना मिलना नहीं होता था, क्योंकि वे देश भ्रमण को जाते थे, लेकिन जब उनका दिल्ली आना होता, किसी तरह पता चल जाता और मैं उनसे मिलने पहुंच जाता।

श्री ठेंगड़ी जी से मेरी अंतिम मुलाकात इसी वर्ष अगस्त के अंतिम सप्ताह में हुई थी। मुझे पता चला ठेंगड़ी जी आ गए हैं और इस समय दिल्ली में ही हैं, मैं उनके पास पहुंच गया। उन्होंने सारी आत्मीयता उड़ेल कर रख दी। रसोईदार शिवराज से कहा कि विजय जी आए हैं किचन में जो कुछ भी हो सब कुछ लाओ और इन्हें चाय पिलाओ। मैं उनके पास लगभग डेढ घंटे बैठा। उस समय उन्होंने मुझसे भाजपा के गिरते ग्राफ की चिंता की। लेकिन यह भी कि सब कुछ दो-तीन साल में ठीक हो जाएगा। हिन्दुत्व के लोप होने की भी चिंता थी, इस विषय पर काफी उदासीन और गंभीर दिखे, कहने लगे कि बहुत अधिक चिंता करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि जमीनी स्तर पर सब कुछ ठीक है, भाजपा का कार्यकर्ता समर्पित है। जो कुछ भी बिगड़ा है सब ऊपरी स्तर पर है, ऊंचे पदों पर बैठें भाजपा नेताओं के पास सोच नहीं है लेकिन सब ठीक हो जाएगा। ठेंगड़ी जी ने कहा कि मुझे इस वक्त सबसे बड़ी चिंता सीपीआई और सीपीएम के बढनें की है। रूस और चीन में कम्यूनिजम खत्म हो रहा है लेकिन भारत में इनकी जड़ें मजबूत हो रही हैं, जो देश के लिए खतरा है।

मानवता का पुजारी अब हमारे बीच नहीं है लेकिन कभी न भूलने वाले उनके संस्मरण जीवित हैं-

घटना 1983 की है। एक दिन मैं घूमते-घूमते ठेंगड़ी जी के फ्लैट पर पहुंच गया। दरवाजा खुला था। मैंने दो-तीन बार बैल बजाई, जब कोई नहीं आया तो ठेंगड़ी जी - ठेंगड़ी जी आवाज दी। तब भी कोई जवाब नहीं मिला तो कुछ देर के लिए बाहर पड़ी बैंच पर बैठ गया। फिर भी जब कोई नहीं आया तो अंदर चला गया और देखा कि ठेंगड़ी जी चारपाई पर पड़े कराह रहे हैं। गर्मी के दिन थे फिर भी ठेंगड़ी जी कांप रहे थे। मैंने तीन बार आवाजें दी और पूछा क्या हुआ, उनकी आवाज नहीं निकल रही थी, धीमी आवाज में कहा ठंड लग रही है। मैंने छूकर देखा वे बुरी तरह से बुखार में तप रहे थे। मैंने उन्हें कम्बल ओढाया, उस समय कोई नहीं था। मैं दौड़कर डॉक्टर को बुलाकर लाया और सारा चैकअप कराया। तीन-चार घंटे उनके साथ रहा। बाद में कुछ लोग और भी आ गए फिर मैं चला आया।

1983 की वह घटना जब भी मेरे स्मरण में आती है मेरा मन कंपित हो उठता है। एक तरफ खुश होता है कि मेरा सौभाग्य था कि उनकी सेवा का अवसर मिला। दूसरी तरफ मन में आशंका कि अगर मैं समय से नहीं पहुंचता तो क्या होता। उसके बाद ही वे नागपुर चले गए जहां से उन्होंने 11 मई, 1983 को एक पत्र लिखा “प्रिय विजय, तुम्हारी हार्दिक आत्मीयता के लिए मैं और मेरे परिवार के सब लोग तुम्हारे प्रति हमेशा के लिए कृतज्ञ रहेगें। श्री ठेंगड़ी जी द्वारा 21 साल पहले लिखा यह पत्र उनकी आत्मीयता का अनुपम उदाहरण है। ऐसे श्री ठेंगड़ी जी को नमन।



विजय खुराना