दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन-दर्शन – प्रस्तावना

प्रस्तावना – माननीय श्री रंगा हरी

विस्तृत गहरा अध्ययन और बहुआयामी अनुसंधान की दृष्टि से किसी भी महान विद्वान व्यक्ति का समग्र वाङ्गमय बहुत लाभकारी है । संबन्धित व्यक्ति का जीवनकाल, उस समय के विचार प्रवाह, गतिविधियाँ, समस्यायें, चुनौतियाँ, प्रत्युत्तर, समकालीन जाने माने लोग आदि उस से ज्ञात होते जाते हैं । तात्कालिक इतिहास की रचना हेतु उस से मूल्यवान जानकारी लभ्य होती है । भाषाशास्त्र की दृष्टि से उस कालखंड के प्रयोग, शैली, व्यगं एवं उनके विकास का क्रम उस से अवगत हो जाता है । सबसे अधिक, उस वाङ्गमय के धनी व्यक्तित्व की नैसर्गिक उत्क्रान्ति और उसके विचार प्रवाह का क्रमानुगत अनावरण अभिव्यक्त होता है । इस प्रकार किसी का, कहीं का समग्र साहित्य अनुसंधानियों के लिए वस्तुनिष्ठ तथा आत्मनिष्ठ संधान की खदान बन जाता है । उसका महत्त्व मात्र साहित्य क्षेत्र तक सीमित नहीं रहता ।

और एक महत्त्व है, हमारी वन्दनीय मातृभूमि भारतवर्ष के परिप्रेक्ष्य में । सम्प्रति भारत के इतिहास में उन्नीसवीं सदी से उदीयमान हिन्दू पुनरूत्थान का प्रकाशमय अध्याय सुविदित है । उसको पुष्ट करने का उल्लेखनीय योगदान बीसवीं सदी के प्रारंभ में स्वामी विवेकानन्द साहित्य समग्र का रहा । वर्तमान में वह परिवर्धित होकर दस खंडों का हुआ है । उसीके समकक्ष में सुश्री मेरी लुई बर्क (पश्चात् साध्वी गार्गी) के संकलित ‘ स्वामी विवेकानन्द पश्चिम में ‘ के छ : खण्ड हैं । सोने में सुगंध के नाते स्वामी अभेदानन्द-समग्र के ग्यारह खण्ड हैं । इस के अतिरिक्त भगिनी निवेदिता-समग्र के पाँच खण्ड हैं । इसी श्रेणी में पुतुश्शेरी से प्रकाशित 3० खण्डों की श्री अरविंद ग्रंथावली है । उस प्रकार का हो गया साधु-संत साहित्य । किन्तु हिन्दू पुनरूत्थान के अग्रगामी साधु-संत मात्रनहीं थे । उनमें शिखरस्थ हैं लोकमान्य तिलक और विनायक दामोदर सावरकर । इन दो दिग्गजों का समग्र साहित्य भी भारत के दो तीन भाषाओं में उपलब्ध है । हिन्दू पुनरूत्थान के इतने विशाल महोदधि में इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में संगमित प्रबल सरिता हैं श्री गुरुजी समग्र, के बारह खण्ड । सूची तो और लंबी है, यहाँ केवल सांकेतिक उल्लेख किया गया है ।

संक्षेप में आज भारत में राष्ट्रीय पुनरूत्थान संबन्धित साहित्य सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है । भारत की सभी भाषाओं में उस को उपलब्ध कराने की आवश्यकता है । उसके फलस्वरूप समूचे देश के आबालवृद्ध जनमन में राष्ट्र की अस्मिता संबन्धित सही दृष्टिकोण खिलेगा । इस दिशा में सोच बढ़ाते समय विशेषत: दो प्रतिभावानों का समग्र वाङ्गमय देखने और पढ़ने हेतु मन लालायित होता है । वे हैं पंडित दीनदयाल उपाध्याय और दत्तोपंत ठेंगड़ी । दोनों चिरंतन राष्ट्रचेतना को ओजस्वी बनाने वाले द्युस्थानीय अश्विनी कुमार हैं । जानकारी मिलने से आनन्द हुआ कि अविलंब पंडितजी का साहित्य-सर्वस्व उपलब्ध होने वाला है । ‘ अकरणात् मन्दकरणं श्रेयस्करं । ‘

तुलना में दत्तोपंत के साहित्य का संकलन आसान है यद्यपि क्लेशकारी । उसका सिंहभाग प्रसगं उठने पर छप चुका है, काम उन सब को एकत्र लाने का है, अत : आसान । इसलिए क्लेशकारी है कि कृतियों की संख्या अधिक है और उनका प्रकार बहुआयामी है । उसका ठीक वर्गीकरण और सही विन्यास दत्तचित्त होकर करना पड़ेगा । उपलब्ध सूची के अनुसार दत्तोपंत की रचनायें हिन्दी में 35, अँग्रेजी में 10, मराठी में 3 हैं । इसके अलावा बारह लंबी ग्रंथ-प्रस्तावनाओं का संकलित ग्रंथ है । राज्यसभा में भाषण, छोटी कवितायें, पत्रव्यवहार, वक्तव्य, बिखरी टिप्पणियां आदि संकलित सामग्री और भी होगी । इसके भी अतिरिक्त शकुन्तला की अंगूठी के समान नदी में डूब पड़ी रत्नखचित मुद्राओं को डुबकी लगाकर उभारना होगा । खंडश : समग्र सामग्री का विन्यास और मुद्रण हो जाने पर उसका यथोचित इन्डेक्स (शब्दों की संदर्भ सूची) तैयार करना होगा ।
वर्तमान प्रणाली में इन्डेक्स के बिना ग्रथ का संदर्भ मूल्य घट जाता है । अनुसंधानियों की सुविधा हेतु वह अनुपेक्षित है । स्वामी विवेकानन्द समग्र तथा श्री अरविन्द समग्र का इन्डेक्सिंग अत्युत्तम एवं अनुकरणीय है । अर्वाचीन पुनरूत्थान साहित्य के निर्माताओं से यह कुशलता अपेक्षित है ।

पंडित दीनदयाल जी द्वारा प्रतिपादित दर्शन जो आज एकात्म मानव दर्शन के नाम से जाना जाता है, यद्यपि उनका कार्यक्षेत्र भारतीय जनसंघ के सम्बन्ध में प्रांसंगिक था फिर भी उस सगंठन की कार्यपरिधि तक सीमित नहीं था । उसका व्याप उससे बहुत व्यापक है । अत : एकात्म मानव दर्शन पंडित जी द्वारा भारतीय जनसंघ के लिए आविष्कृत हुआ ऐसा अनुमान पूर्णत : गलत होगा । दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का विचार विश्व भी इसी दर्जे का है । उसका व्याप भारतीय मजदूर संघ की संगठनात्मक, वैचारिक परिधि से अधिक आकार प्रकार में विस्तृत है । अतएव ठेंगड़ी जी के विचार विश्व को भारतीय मजदूर संघ के परिप्रेक्ष्य में सीमित करके देखना और आंकना तथ्यात्मक नहीं होगा, न्याय संगत भी नहीं होगा । दोनों प्रज्ञापुरुषों का धैषणिक व्यक्तित्व दोनों के कार्यक्षेत्रों से बहुत विस्तृत है । यहाँ द्रष्टा और नेता- दोनों के बीच जो अन्तर है उसको हमें पैनी बुद्धि से समझना होगा । देखने में भगवद् गीता का जन्मस्थान रणांगण है और उसका जन्महेतु रणवीर अर्जुन का विमूढ़भाव, विषाद तथा कार्पण्य दोष है किन्तु उस गीता का दर्शन रणांगण या रणकाल तक सीमित नहीं, वह है त्रिकालाबाधित । उसी को दर्शन कहते हैं । अन्यथा उसका नाम होगा समस्या का हल अथवा शंका समाधान ।

उपर्युक्त विचारकणों की पृष्ठभूमि में विश्वास है कि दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे बहुमुखी प्रतिभावान के बहुआयामी सृजनों के संकलन का गंभीर काम एक मस्तिष्क- दो हाथों का नहीं हो सकता । उसके लिए दत्तचित कार्यबद्ध एकाग्र टोली का सामूहिक श्रम आवश्यक है । यह काम है इतिहास की दृष्टि से चिरकालीन । आगामी पीढ़ियों के लिए होने के कारण उसको जल्दबाजी के बिना सर्वंकष सावधानी से करना होगा ।

इन विचारों के मेरे हाथ में श्री अमरनाथ डोगरा जी ने ‘ दत्तोपंत ठेंगड़ी – जीवन दर्शन ‘ की पाण्डुलिपि रख दी और आग्रह किया कि मैं उसकी प्रस्तावना लिखूँ । कथापुरुष स्व. दत्तोपंत, विषय उनका जीवन दर्शन लेखक भारतीय मजदूर संघ का ज्येष्ठ समर्पित कार्यकर्ता-प्रेरणा के लिए और क्या चाहिए, मैंने सोत्साह माना । आगे चलकर मैंने पुस्तक पूरी पढ़ी । अमरनाथ भाई ने मुझे बताया था कि यह संभावित काम का प्रथम खण्ड है और इस के बाद संभवत : 7 – 8 खण्ड आनेवाले हैं । सुनकर मन प्रफुल्ल हुआ । फिर भी मेरे सामने यह प्रथम खण्ड ही है और उसी का निरीक्षण मेरे लिए संभव है ।

सर्व प्रथम मुझे महसूस हुआ कि यह मेरी अभीप्सा के अनुसार दत्तोपंत जी का समग्र वाङ्गमय नहीं, वरन् उनके जीवन की पृष्ठभूमि में रेखांकित मुख्यत : भारतीय मजदूर संघ की विकास गाथा है । अतएव सिद्ध हस्त लेखक संपादक ने इस खण्ड का विस्तारित नाम ‘ दत्तोपंत ठेगड़ी जीवन दर्शन खण्ड- 1 – नवयुग सूत्रपात – शून्य से सृष्टि ( भाग 1) आदरांजलि – कृतज्ञ स्मरण ( भाग 2)’ -ऐसा रखा ।

भाग एक को चार सोपानों में विभाजित किया है । प्रथम सोपान दत्तोपंत जी के जीवन संबन्धी है । उसमें हमें उनके माताजी-पिताजी संबन्धित जानकारी प्राप्त होती है । समृतिकणों के रूप में बाल्यकाल का विवरण होता है । प्रचारक जीवन का विहंगम दृश्य तो मिलता है किन्तु वह अधूरा है । 1942 के ‘ भारत छोड़ो आन्दोलन ‘ के काल में दत्तोपंत केरल में और 1946 -47 के स्वतंत्रता के उष : काल में बंगाल में प्रचारक थे । दोनों अत्यंत महत्वपूर्ण वेलायें । उस वेला के उनके मैदानी अनुभव क्या थे, भूमिका क्या थी, विषेशत : बंगाल में मोहम्मद अलि जिन्ना की  ‘ प्रत्यक्ष कार्रवाई ‘ की घोषणा के परिणाम स्वरूप जब हिन्दुओं का निर्मम व नृशंस नरसंहार हुआ तब उनकी घोर तपस्या किस प्रकार की थी?  . .. .. खोज की आवश्यकता है । फिर भी इस सोपान के अन्त में ‘ निरासक्त कर्म योगी ‘ शीर्षक से जो जीवन पट प्रस्तुत किया गया वह अतीव बोध प्रद है । उसमें आम आदमी की आँखों के सामने दत्तोपंत का अमोघ व्यक्तित्व उजागर होता है ।

द्वितीय और तृतीय सोपान भारतीय मजदूर संघ के उद्‌गम और विकास की रोमांचकारी कथा है । चौथा सोपान भारतीय मजदूर संघ की विजय यात्रा का पर्व है । इस सोपान के अन्त में तीन बहुमूल्य दस्तावेज हैं । एक है ‘ सत्य सिद्धान्त की विजय ‘ शीर्षक का ठेंगड़ी जी का उद्‌बोधन । उसका अन्तिम वाक्य है ” ऐसे विश्व विजयी सिद्धांतों के अधिष्ठान पर खड़े हुए कार्य के साथ हम रहेंगे तो विजय की पताका हिमालय की तुंगशृंत पर फहराने को सिद्ध होगी । ” किसी भी ध्येयवादी में आत्म विश्वास जगाने का वाक्य! दूसरा दस्तावेज है पद्‌मभूषण स्वीकार करने की अनिच्छा व्यक्त करते हुए ठेंगड़ी जी द्वारा महामहिम राष्ट्रपति को सादर सविनय लिखा पत्र । इस मूल्यवान पत्र में उनकी अव्यभिचारी संघ निष्ठा तथा दंभहीन अमानिता दृष्टिगोचर होती है । तीसरा दस्तावेज है ठेंगड़ी जी की मृत्युकल्पना, जिसको स्वयं मृत्युंजय ही लिख सकता है । वास्तव में यह तीनों दस्तावेज इस खण्ड के भाग 1 की फलश्रुति हैं ।

भाग दो स्मरणांजलि का है । इसके दो सोपान है । एक है स्मृति कणों का और दूसरा है स्मृति लेखों का । इस भाग के बारे में केवल एक विचार मन में आया कि ठेगंडी जी के देहावसान के बाद अनेक पत्र पत्रिकाओं ने अग्रलेख लिखे थे । उन लेखों के व्याप और नाप दिवंगत के व्यक्तित्व का परिचायक है जो इतिहास की दृष्टि में महत्वपूर्ण है । उनको भी संकलित करके यहाँ सलग्न किया होता तो बहुत अच्छा होता ।

मान्यवर अमरनाथ डोगरा सिद्ध हस्त लेखक हैं । उन्होंने इस खण्ड में भारतीय मजदूर संघ को दत्तोपंत की पार्श्वभूमि में, और दत्तोपंत को मजदूर संघ की पार्श्वभूमि में प्रस्तुत किया है । आने वाले खण्डों में वे कैसे आगे बढ़ने वाले हैं, दूसरा कोई नहीं कह सकता । इतना तो कह सकता हूँ कि सफलता पूर्वक आगे बढ़ेंगे । कुल मिलाकर देशवासियों को दत्तोपंत के विचार दर्शन का लाभ होगा, इसमें सन्देह नहीं । संभव है कि उससे प्रेरित होकर, कोई प्रबुद्ध मण्डली सामने आयेगी और दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का संपूर्ण वाङ्गमय यथावत् प्रकाशित करेगी। विद्वान लोगों का कहना है कि भाष्य पढ़ कर मनीषी मूल कृति की ओर बढ़ता है। अत: यह सुनिश्चित है कि निकट भविष्य में हिन्दू पुनरूत्थान के समग्र वाङ्गमय की शृंखला में दत्तोपंत – समग्र भी अधुनातन कड़ी बन जायेगा और राष्ट्रीय जीवनधारा के जिज्ञासु लाभान्वित होंगे। इति।

रंगा हरि
माधवनिवास
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साभार :- भारतीय मजदूर संघ