दत्तोपंत का हमारे घर आना-जाना कब शुरू हुआ इसका याद करना मुश्किल है। उन दिनों वे कभी रमणभाई शाह के घर, कभी मनहरभाई मेहता के घर तो कभी हमारे घर रहा करते थे। यह दोनों घर अब नहीं रहे इसलिए वे हमारे घर में निवास करते थे। उन दिनों वे हमारे यहां अनेक बार रहे होंगे। उसकी गिनती संभव नहीं और आवश्यक भी नहीं क्योंकि वे हमारे घर के ही एक सदस्य रहे। हमारा सारा घर ही उन्होंने अपनेपन से भर दिया था और वह भी एकदम स्वाभाविकता से।

पिछले दिनों एक बार उनका आगमन होने वाला था तब घर में रंगाई-पुताई हो रही थी। चलने-फिरने के लिए जैसे-तैसे रसोईघर था। अन्य सभी कमरों में या तो रंगाई का काम जारी था या सामान रखा हुआ था। इस एक कमरे वाले घर में भी दत्तोपंत को रहने में कोई बाधा महसूस नहीं हुई। उनका आग्रह रहता कि शाम का खाना सबका एक साथ हो। परोसने के लिए मेरा रुका रहना भी उन्हें गंवारा न होता। पंक्ति में आखिरी व्यक्ति का भोजन समाप्त होने तक वे अपनी जगह बैठे रहते थे। सब संभालकर भी कभी-कभार मेरा खोना आगे-पीछे होता था। ऐसे वक्त मेरा खाना समाप्त होने तक वे रसोईघर में टहलते हुए बातचीत करते रहते।

धारप परिवार का घर उनका अपना घर बन चुका था। इसीलिए किसी भी अतिथि को वे चाय-पानी पूछते। इसमें उनका आतिथ्य धर्म तो था ही परन्तु इस घर को वे अपना घर मानते थे इसकी भी पहचान थी।

हमारी समस्त बातचीत में घरेलूपन स्थायीभाव था। ऐसी गपशप में किसी को कुछ पूछनें अथवा उसकी बातों को सुनने में उन्होंने कभी भी हल्कापन महसूस नहीं किया। 'बालादापि सुभाषितम् ग्राह्यम्' वाली उनकी विद्यार्थी मनोवृती हमेशा प्रकट होती थी। कहा जाता है कि किसी संस्था की असली पहचान उस संस्था का संविधान पढकर उतनी नहीं होती, जितनी कि उस संस्था के प्रतिनिधि कार्यकताओं को देखकर होती है। भारतीय मजदूर संघ और रा०स्व० संघ का सही परिचय मुझे दत्तोपंत के साथ रहकर मिला।

कर्मकठोरता

रामजन्मभूमि आंदोलन के दिन थे। दत्तोपंत घर में आए हुए थे, इसलिए उनके स्नान के लिए पानी गरम किया। दत्तोपंत के स्नानघर से बाहर निकलने पर मैंने देखा तो गरम पानी वैसे ही पड़ा है। उसके बारे में दतोपंत से पूछा तो उन्होंने कहा कि अयोध्या में शायद सत्याग्रह होगा, कारागार में जाना पड़ेगा, वहां गरम पानी कौन देगा? उसकी आदत डाल रहा हूँ। अयोध्या में कारावास की नौबत नहीं आई तो भी वहां के मुकाम में दतोपंत ने कभी गरम पानी का उपयोग नहीं किया। और यह भी उन्होंने उम्र के लगभग 75 वर्ष पूरे हो चुके थे तब किया। कार्यकर्ता को कितना कर्मकठोर होना पड़ता है, क्या इसी बात का यह उत्तम उदाहरण नही है?

वैसे देखा जाए तो उनकी कर्मकठोरता के अनेक उदाहरण है। कुछेक का पता मेरे पति श्रीकांत धारप की बातों से चला। संभवत: 1972-73 की घटना रही होगी। मुंबई में भारतीय मजदूर संघ का मोर्चा था। 12 किलोमीटर चलकर जाना था। दत्तोपंत ने अन्य कार्यकर्ताओं के साथ उसे आनन्द से सपन्न किया।

दतोपंत ने जब 60 साल पूरे किए तो कार्यकर्ताओं ने उनके हीरक समारोह का विचार किया और उस निमित निधि संकलन का मनोदय व्यक्त किया। संस्था के लिए निधि संकलन करने में दत्तोपंत को आपत्ति नहीं थी। आपति थी षष्ठाब्द पूर्ति समारोह के लिए। अर्थात दतोपंत की हींरक जयंती तो मनाई नहीं गई और तो और, अगले ही वर्ष भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में किसी भी अधिकारी या नेता का हींरक जयंती समारोह न मनाने का प्रस्ताव पारित किया गया।

मातृवत्सल कार्यकर्ता

एक ज्येष्ठ कार्यकर्ता के रूप में दत्तोपंत का ह्रदय एक माता का ह्रदय है ऐसा कहने को मन करता है। दो वर्ष पहले का प्रसंग है दिल्ली में भारतीय मजदूर संघ का मेला था। दोपहर थी। झुलसने वाली अप्रैल की वह धूप थी। सभी कार्यकर्ता धूप में झुलसते जा रहे थे। मंच पर स्वाभाविक रूप से छप्पर था। धूप में बैठे कार्यकर्ताओं की ओर देखकर दत्तोपंत ने मंच के ऊपर का भी छप्पर हटवा दिया। क्या मातृहृदय के बिना ऐसी कृति संभव है?

आपातकाल में संघर्ष समिति के कार्यवाह रवींद्र वर्मा भी दत्तोपंत के साथ हमारे घर आते थे। उनकी तबीयत ठीक नहीं थी। दत्तोपंत इतने बड़े अधिकारी होते हुए भी, एक परिचारिका की भांति वर्मा जी की देखभाल करते थे। उन दिनों मेरे पति भी कारावास में थे। बाद में रवीन्द्र वर्मा जी को गिरफ्तार करके कारावास मिलने पर दत्तोपंत ने धारप को सदेश भेजा, “रवींद्र वर्मा जी की तबीयत की देखभाल कीजिए।“

मुंबई के एक कार्यकर्ता अशोक भिडे दत्तोपंत के लिए कुछ लेखन करते थे। दत्तोपंत ने इस काम के लिए उनको दिल्ली बुला लिया। उनके अनुसार भिडे वहां गए। दिल्ली पहुंच कर उनका समय रात का था। रात में कार्यालय का पता मिलेगा या नहीं, कुछ तकलीफ तो नहीं होगी इसी चिंतावश दत्तोपंत ने अपने सहकारी रामदास पांडे को स्टेशन पर भिडे के स्वागत के लिए भेज दिया।

दत्तोपंत आजन्म ब्रह्मचारी थे। परंतु कुटुंबवत्सल कार्यकर्ताओं की खुशहाली की निगरानी कैसे की जाए इसका उत्तम उदाहरण हमारी दिल्ली की यात्रा में प्रस्तुत हुआ। दत्तोपंत के बुलावे पर हम सपरिवार दत्तोपंत के घर पहुंचे। घर क्या था, ब्रह्मचारी की मठी थी। उसमें भी दतोपंत सतत भेंट-मुलाकात, बैठकों मे व्यस्त। इस सबके होते हुए भी हमारे आतिथ्य में कोई कसर न रखने की और हमारा पूरा ध्यान रखने की जिम्मेदारी उन्होंने रामदास पांडे जी पर सौंपी थी। हमारे पांच दिवसीय मुकाम के दौरान पांडे जी को कहकर, उन्होंने अपने एक दिन के कार्यक्रम में जानबूझकर आवश्यक परिवर्तन करवाए और कुछ समय हमारे लिए सुरक्षित रखा। इतना ही नहीं, उस दिन हम सबको कनाट प्लेस के एक वातानुकूल होटल में भोजन के लिए ले गए। ऐसे एक-दो नहीं, कई प्रसंग दत्तोपंत के मातृह्रदय की गवाही देते हैं।

व्यवहार में बारीकियाँ

कार्यकर्ता को कितनी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना होता है इसे कोई दत्तोपंत से ही सीखे। वे बताते कि किसी के घर जाने पर दरवाजे और खिड़कियां हमेशा खुली रखें। व्यवहार में पारदर्शकता के लिए कितना अवधान।

एक बार रमणभाई शाह की बीमार पत्नी को देखने के लिए रूग्णालय में जाना था। उस दिन आग्रहपूर्वक मुझे अपने साथ ले गए। किसी रूग्ण महिला की मुलाकात के समय अपने जैसी ही अन्य महिला आई है, वह भी एक कार्यकर्ता की पत्नी है यह देखकर उस पर कितना विलक्षण असर होगा यह वे समझते थे।

मेरी सासूजी को वाचन का बड़ा शौक था। वे 'दासबोध' बहुत गहराई से पढ़ा करती थी। इस बीच उन्हें बेचैनी ने घेर लिया। दत्तोपंत के ध्यान में उनकी वह स्थिति आ गई परंतु उसके बारे में कोई उल्लेख किए बिना दत्तोपंत ने उनसे कहा “मांजी, आप दासबोध पढती है न, तो मुझे उसके प्रत्येक 'समास' में से कुछ चुनी हुई सार वाली ओवियां (पद रचना का दोहा जैसा एक प्रकार) लिखकर देगी? मेरे चिंतन में उनका उपयोग होगा। यह काम समाप्त होते ही दत्तोपंत के पास और काम तैयार ही था। दत्तोपंत ने उन्हें दासबोध में कार्यकर्ता के बारे में जो भी श्लोक हों उन्हें लिखकर देने को कहा। अर्थात यह काम मात्र बताकर वे रुके नहीं, उन्होंने वह सब खुद लिख लिया। उसका उपयोग किया। यह सब देखकर सासूजी को कितना समाधान मिला होगा। इसकी कल्पना की जा सकती है।

सामाजिक संगठनों में कई बार निराशा पल्ले पड़ती है। कभी-कभी किसी कार्यकर्ता के साथ विवाद होता है। जिससे सिरदर्द होता है, कार्य से अलग होने की इच्छा प्रबल होती है। ऐसे समय उस कार्यकर्ता को मन खुला करने का स्थान याने दत्तोपंत और दत्तोपंत का उससे कहना, ‘अरे भाई क्या मुझे ऐसे प्रसंगो से पाला नहीं पड़ा होगा?’ एक-एक कथन करूं तो रात भी पर्याप्त नहीं होगी। फिर भी तुम्हें बताता हूँ कार्यकर्ता को ऐसी अनेक बाते छोड़ देनी पड़ती है। सच कहूं तो 'कन्या की माता' की भूमिका निभानी पड़ती है।

मातृह्रदयी दत्तोपंत के तौर पर हमेशा ही असंबद्ध संग (अनअटेच्ड इनवाल्वमेंट) का समर्थन करते थे। कार्यकर्ता को पूर्णत: समर्पण से काम करना चाहिए। उस दृष्टि से उसका आसंग महत्वपूर्ण है परंतु प्रसंग आने पर उसी में न उलझते हुए, दूर रहने की भी प्रवृत्ति होनी चाहिए। इसी आचरण को असंबद्ध संग कह सकते हैं। यह सिद्धांत परोपदेश के लिए नहीं होता, स्वयं के आचरण के लिए होता है। दत्तोपंत इस सिद्धांत के मूर्तिमंत उदाहरण है। मेरी कन्या अनघा की शादी थी। दत्तोपंत दो दिन पहले हाजिर हुए और सभी संस्कार समारोहों में सम्मिलित हुए। परंतु पता नहीं कैसे विवाह के दिन शाम को ही उनकी एक बैठक नागपुर में रखी गई। दत्तोपंत विवाह विधि संपन्न होते ही स्वागत समारोह के लिए न रूककर विमान से ठेठ नागपुर के लिए रवाना हुए। वास्तव में स्वागत समारोह में अनेक नामी-गिरामी कामगार नेता आने वाले थे। उस समय दत्तोपंत की उपस्थिति सुविधाजनक होती परंतु असंबद्ध संघ का सिद्धांत था न।

दत्तोपंत, कितना महान व्यक्तित्व! कितने ही श्रेष्ठ जनों से इनकी घनिष्ठ मित्रता! लेकिन घर में पांव रखते ही एकदम घरेलू कुटुंबी!

दिनभर श्रम करके थके-हारे घर आने पर रात को सोने से पूर्व एकाध पुस्तक मांगा करते। तात्कालिक मनोरंजन करने वाली। इसलिए विनोदी पुस्तकें, अगाथा क्रिस्टी के उपन्यास जैसी किसी भी पुस्तक से उनका काम चलता था।

एक बार किसी भाषण में वे 'रंगसंगति' विषय पर बोलना चाहते होंगे। हमारी अनघा कॉमर्शियल आर्टिस्ट थी। सुबह के नाश्ते के समय उन्होंने इस विषय के बारे में उससे चर्चा की! ठंडारंग, गरमरंग, उसकी संकल्पना, कोई एक-दो नहीं, अनेक विषय। अनघा जो कहती वे उसे अपने हाथ से लिख लेते और उसका यथेष्ट उपयोग भी उन्होंने अपने भाषण में किया। दत्तोपंत सही मायने में आदर्श विद्यार्थी थे।

दत्तोपंत को राष्ट्रीय एकात्मता का पुरस्कार मिला तो मेरे मन में आया कि उन्हें पुरस्कार की राशि नकद मिलेगी तो भला होगा। अन्यथा चेक जमा करने के लिए दत्तोपंत का बैंक में खाता कहां है? पिछले दिनों किसी लेख का मानधन चेक द्वारा प्राप्त हुआ तब ध्यान में आया कि दत्तोपंत का बैंक में कोई खाता नहीं। लाखों का पोषण करने वाला यह व्यक्ति खुद निर्धन ही था।

विद्या श्रीकांत धारप