ठेंगड़ी जी भविष्यद्रष्टा थे। उन्होंने 1955 में जिस भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की थी, वह संगठन अगले तीन दशक में ही 1979 के आते-आते भारत का सबसे बड़ा मजदूर संगठन बन गया। उस समय भारतीय मजदूर संघ से 31 लाख कर्मचारी जुड़े थे। यह संख्या उस समय सीटू और एआईटीयूसी में शामिल कुल कर्मचारियों की संख्या से भी अधिक थी। आज इस संगठन से 83 लाख मजदूर जुड़े हुए हैं जो कि भारत में काम कर रहे सभी मजदूर संगठनों के कुल सदस्यों की संख्या से भी अधिक है। ठेंगड़ी जी ने वामपंथी न होते हुए भी देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन खड़ा कर दिया। वास्तव में वे हमेशा वामपंथियों का विरोध करते रहे। उन्होंने उनके किले को ध्वस्त किया और उस पर कब्जा किया। ठेंगड़ी जी ने वामपंथियों को उनके ही गढ में मात दी। उन्होंने उनके खिलाफ एक तरह से युद्ध छेड़ दिया। वैचारिक युद्ध। इस युद्ध में ठेंगड़ी जी को विजय मिली। ठेंगड़ी जी ने मजदूर संगठनों को भी वैचारिक आयाम दिया। उन्होंने न तो कभी बंद की मांग की जो आम तौर पर मजदूर संगठनों के प्रमुख हथियार होते हैं, न उन्होंने शहरों की व्यवस्था बिगाड़नें में कोई रुचि दिखाई। ठेंगड़ी जी का संगठन कभी हिंसा से नहीं जुड़ा और न ही उन्होंने अपने संगठन को किसी राजनीतिक पार्टी का पिछलग्गू बनने दिया।

मजदूर संगठन के नेता होने के बावजूद दूसरों की भांति वे शहरी चकाचौंध में कभी नहीं डूबे। उन्होंने तो कृषि क्षेत्र में भी भारत का सबसे बड़ा संगठन भारतीय किसान संघ खड़ा कर दिया। उन्होंने कभी शहरी बनाम गांव का भी नारा नहीं छेड़ा और न कृषि बनाम उद्योग का कोई विवाद खड़ा किया। उनके लिए तो राष्ट्रवाद ही सबसे बड़ा अस्त्र था और इसी के जरिए वे विभाजित हितों के खिलाफ लड़ते रहे। उन्होंने कभी भी अमीर-गरीब, जाति-भेद या वर्ग-भेद में विश्वास नहीं रखा। वे हमेशा राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय हित के लिए आगे खड़े दिखाई दिए। वे वहां भी राष्ट्रवाद को ही ले गए, जहां वर्ग-भेद का एकाधिकार और वैचारिक उग्रवाद का बोलबाला रहा। नब्बे के दशक की शुराआत में जब वैश्वीकरण ने भारत के सामने गंभीर चुनौती पेश की और असहाय लोग तब आंख बंद कर इसका विरोध या समर्थन कर रहे थे, तब लोगों को उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन की याद दिलाई और स्वदेशी आंदोलन का स्वरूप पेश किया। उन्होंने स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की, जिसने आगे चलकर पूर्णत: भारतीय वैकल्पिक, आर्थिक मॉडल प्रस्तुत किया न कि सिर्फ वैश्वीकरण के विरुद्ध और भारतीयता के अनुकूल है। स्वदेशी जागरण मंच बेलगाम वैश्वीकरण के खिलाफ युद्ध में बहुत प्रमुखता से उभरा और आज भारत को वैश्विक शक्ति बनाने की दृष्टि देने में पूरी तरह सफल हुआ है। आज भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच शक्तिशाली संगठन हैं और अपनी वैचारिक मजबूती के लिए जाने जाते हैं। लेकिन इन सब के संस्थापक ठेंगड़ी जी अपने प्रचार के प्रति कभी लालायित नहीं हुए।

ठेंगड़ी जी कौन हैं! शायद बहुतों को मालूम भी नहीं है। उनके द्वारा गठित संगठन आज आगे बढ़ चुके हैं और संभवत: दुनिया के बहुत सारे लोग उनको जानते है। ठेंगड़ी जी का निधन 84 साल की उम्र में हुआ, लेकिन मृत्युपर्यंत वे भरपूर ऊर्जावान बने रहे। अंतिम दिनों मे भी उनके अंदर वही ऊर्जा थी, जो एक 48 साल के व्यक्ति में देखी जा सकती है। उन्होंने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना से लेकर उसे भारत का सबसे बड़ा संगठन बनाने तक में हाडतोड़ मेहनत की, लेकिन कभी भी उन्हें थका हुआ नहीं देखा गया। उनकी बौद्धिक क्षमता का कौन लोहा नहीं मानता था। इतिहास और अर्थशास्त्र पर तो उनकी गहरी पकड़ थी। समाज शास्त्र और राजनीति में भी वे किसी विद्वान से कम नहीं थे। लेकिन वे प्रचार के बिल्कुल भूखे नहीं थे। उन्होंने शायद ही सार्वजनिक रूप से कभी अपने को आगे दिखाने की कोशिश की हो। शायद ही कभी मीडिया में फोटो खिंचवाने या साक्षात्कार देने की हामी भरी हो। कैमरे के सामने तो वे आते ही नहीं थे। वे कार्यकर्ताओं से सीधे संवाद जोड़ने के पक्षधर थे न कि कैमरे के सामने खड़े होने के। हालांकि वे राजनीति में भी थे। वे दो बार राज्यसभा के सदस्य बने, लेकिन उन्होंने अपने बारे में अपनी धारणा नहीं बदली। वे एक कर्मयोगी थे। उन्होंने इतना काम कर दिया, जितना कोई दस जन्म लेकर करता। लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी बौद्धिक क्षमता पर घमण्ड नहीं किया। उनका ज्यादा समय सोचने-विचारने, पढने और लिखने में निकलता। मूल बौद्धिक विचारों से भरपूर न जाने उन्होंने कितनी किताबें लिखी। उनके द्वारा लिखी लगभग 50 पुस्तकों में उनकी मूल सोच हमेशा परिलक्षित हुई। उन्होंने 27 पुस्तकें हिन्दी में, 12 अंग्रेजी में और 10 मराठी भाषा में लिखी। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में गूढ़ विषयों पर भी उन्होंने न जाने कितने शोध पत्र पेश किए। मराठी और अंग्रेजी के अलावा उन्होंने पांच भाषाएं और सीखी। उन्होंने छोटे-बड़े लगभग सो संगठन बनाने के लिए उत्प्रेरित करने या उस पर विचार देने पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इतनी व्यवस्तता के बाद भी वे साधारण कार्यकर्ताओं के साथ गहन रूप से जुड़े रहे। शायद उन्होंने दिन के 24 के बजाय 25 घंटे और 12 महीने के बजाय 13 महीने का इजाद कर लिया था।

उनकी मानसिक शारीरिक और बौद्धिक क्षमता अविस्मरणीय थी। एक मानव की ईश्वर प्रदत्त ऊर्जा के अलावा आखिर कौन-सी ऐसी शक्ति थी जो उन्हें इतना उत्प्रेरित करती थी। आखिर वह कौन था, जो उन्हें असंभव कार्यों को भी पूरा करने के लिए झोंक देता था। निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा। संघ, जिसे कई लोगों ने समझने में भूल की, कई लोगों ने जिसके खिलाफ विषवमन किया, वह संगठन एक ऐसा मुक्त विश्वविद्यालय है, जहां से देश को अनगिनत राष्ट्रभक्त और बौद्धिकदक्ष व्यक्ति मिले। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। ठेंगड़ी जी 21 साल की उम्र में ही संघ के प्रचारक बन गए और अंतिम सांस तक प्रचारक बने रहे। कोई भी पद या पदवी उन्हें आकर्षित नहीं कर पाई। वे चाहते तो सार्वजनिक जीवन में उन्हें कोई भी बड़े से बड़ा पद मिल सकता था। लेकिन उनके जैसे व्यक्ति के लिए किसी पद की क्या गरिमा।

ठेंगड़ी जी भविष्यदृष्टा और संत थे। उन्होंने दशकों पहले यह कल्पना कर ली थी कि एक न एक दिन मानवीय प्रकृति के खिलाफ खड़े वामपंथ का अंत हो जाएगा और ऐसा ही हुआ। यहां तक कि वैश्वीकरण के बढते प्रभाव से भी ठेंगड़ी जी विचलित नहीं हुए। उन्होंने डेढ़-दो दशक पहले ही यह दर्शन दिया था कि राष्ट्रों के बीच हित टकराव ही वैश्वीकरण के खिलाफ माहौल तैयार कर देगा। न सिर्फ भारत में, बल्कि इस समय पूरी दुनिया में वैश्वीकरण के खिलाफ अभियान चल रहा है और राष्ट्रीय हित के कारण सर्वत्र स्वदेशी आंदोलन तेजी पकड़ रहा है। सभी राष्ट्र अपने हितों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

ठेंगड़ी जी बाबा साहब अंबेडकर और उनके विचार को भली-भांति समझते थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा भी- गुरुमूर्ति, बाबा साहब अंबेडकर के बारे में अरुण शौरी ने जो निष्कर्ष निकाला है, उससे मैं सहमत नहीं हूँ। मैंने तर्क दिया- ठेंगड़ी जी! अरुण शौरी की किताब साक्ष्यों और दस्तावेजों पर आधारित है। ठेंगड़ी जी ने उतर दिया कि क्या तुम्हें लगता है कि विकट परिस्थितियों से जूझ रही महान आत्माओं के बारे में निष्कर्ष साध्यों और दस्तावेजों के आधार पर निकाला जा सकता है। उन्होंने कहा कि उस समय बाबा (ठेंगड़ी जी बाबा साहब अंबेडकर को इसी नाम से पुकारते थे) के सामने जो परिस्थितयां थी और जो चुनौतियां थीं, उसे दस्तावेजों या साक्ष्यों में नहीं पढा जा सकता। अधिकांश दस्तावेज गलत तथ्यों पर बढ़ा-चढ़ा कर या कुछ छिपाकर प्रस्तुत किए जाते हैं, उनमें पूरी तरह सच्चाई नहीं होती। इसलिए रिकॉर्ड्स के आधार पर बाबा साहब अंबेडकर के चुनौतीपूर्ण जीवन के बारे में कोई सही आंकलन नहीं कर सकता। वास्तव में ठेंगड़ी जी ही बाबा साहब अंबेडकर के बारे में अधिकारपूर्ण तरीके से कोई आंकलन कर सकते हैं, क्योंकि बाबा साहब के जीवन के अंतिम चार वर्ष ठेंगड़ी जी ही उनके सबसे समीप रहे। ठेंगड़ी जी ने उसके आगे जो कुछ भी कहा, वह मुझे अचंभित करने के लिए काफी था। उन्होंने कहा- मैं बाबा साहब की समस्याओं और उनकी चिंता का साक्षात गवाह था। उन्होंने याद किया- बाबा साहब चाहते थे कि हिन्दू साधुसंत और धार्मिक प्रमुख यह सार्वजनिक घोषणा करें कि अस्पृश्यता का हिन्दू धर्म में या उसके ग्रंथों में कोई आधार नहीं है। संघ ने इस दिशा में कोशिश की लेकिन उसकी कोशिश कोई फल नहीं ला सकी। लेकिन बाबा साहब ने 1954 में उस समय जब वह बहुत बीमार रहने लगे थे तब ठेंगड़ी जी से कहा था कि मेरे हाथ से समय निकलता जा रहा है। मुझे अस्पृश्यता हटाने के संघ के प्रयास पर पूरा भरोसा है। लेकिन यह प्रयास बहुत धीमा है। मैं बहुत इंतजार नहीं कर सकता, क्योंकि अपने जीवन रहते शायद इस समस्या का समाधान नहीं देख पाऊंगा। ठेंगड़ी जी ने मुझे बाबा साहब अंबेडकर के बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने के प्रकरण को भी बताया। ठेंगड़ी जी ने याद करते हुए कहा, बाबा साहब के ही शब्द थे कि अगर मैंने इस समुदाय को कोई रास्ता नहीं दिखाया तो ईसाई चर्च और वामपंथ इनको खा जाएंगे। बाबा साहब संघ के माध्यम से जो 1954 में कराना चाहते थे, वह संघ 1965 में कर पाया। उडुपी में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आयोजित सम्मेलन, जिसमें मैं भी शामिल था, में हिन्दू धार्मिक प्रमुखों ने अस्पृश्यता को समाप्त करने की घोषणा की थी। ठेंगड़ी जी की बातों को सुनकर मेरे जैसे कई लोगों ने उन्हे उत्प्रेरित किया कि बाबा साहब अंबेडकर के साथ गुजारे दिनों को याद करते हुए वे एक पुस्तक लिखें। ठेंगड़ी जी ने स्वर्ग प्रस्थान के कुछ दिन पहले ही यह पुस्तक पूरी की। बाबा साहब पर लिखी उनकी पुस्तक का विमोचन भी हुआ।

ठेंगड़ी जी ने इस संसार से कुछ भी नहीं लिया। यहां तक कि न तो उनके पास कोई मकान था, न कार, न सेल्युर फोन और न कुछ और। वे दिल्ली में भी भारतीय मजदूर संघ की व्यवस्था के भीतर एक छोटे कमरे में रहे। उनकी आवश्यकता बेहद सीमित थी, उन्हें कुछ धोती, कुछ कुर्ते और उसको रखने के लिए सूटकेस की दरकार थी। वे यात्रा भी या अधिकतया तो बस में करते थे या द्वितीय श्रेणी के रेल डिबे में। उन्होंने शादी के बारे में कभी विचार ही नहीं किया, क्योंकि उनका सारा समय दूसरों की भलाई में गया। वह एक ऋषि और तपस्वी थे। अखबारों में भी वे कम ही आना पसंद करते थे। समाचार पत्रों, जो अपने लाखों टन कागज वस्त्रहीन फिल्म सितारों की तस्वीरें छापने में जाया करते है, ने भी ठेंगड़ी के जीवन और उनके महान कार्यों के बारे में लिखने की जरूरत ही नहीं समझी, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उनको बहुत नजदीक से जानने, उनके करीबी रहने और दूसरों से सुनने-समझने के बाद मैं इतना ही कह सकता हूँ कि दुनिया को जानना चाहिए कि एक महान तपस्वी 14 अक्तूबर, 2004 को एक बहुत बड़ा शून्य छोड़ कर इस धरती से प्रस्थान कर गया।

एस० गुरुमूर्ति