प. पू. बालासाहब के साथ कई दशको तक घनिष्ठ संबंध रहा । ऐसे मेरे जैसे व्यक्ति के लिये आज के इस अवसर पर कुछ भी बोलना कितना कठिन है इसकी कल्पना आप कर सकते है । शायद यदि किसी को कल्पना न होगी तो अपनी भावनाओं के बारे में हमारे मान्यवर जगजीत सिंह जी ने जो बताया कि प्रगट करना बहुत कठिन हो जाता है । उसी का अनुभव मैं ले रहा हूँ । जैसा कहा गया कि खामोश गुप्तगूं है “आज बेजुबाँ है जबाँ मेरी” हम में से बहुत सारे लोगों की अवस्था इस समय एसी ही होगी, ऐसा में समझता हूँ । किन्तु एक कर्तव्य के नाते इस समय पर कुछ बोलना है इसी नाते बोलने का साहस कर रहा हूँ ।
यह मासिक स्मृति दिन मनाया जा रहा है । मा. सरकार्यवाह श्री. शेषाद्री जी के आदेश के अनुसार ‘सामाजिक समरसता’ दिन इस नाते इसको हम मना रहे है । बालासाहेब का पूरा जीवन हमारे सामने है । His life was an open book कई नेताओं का जीवन इतना open नही रहता । बालासाहब का जीवन open book जैसा जीवन रहा । जीवन के अंतिम चरण में विकलांग अवस्था के कारण उनको कितनी असुविधा बर्दाश्त करनी पडी, कष्ट बर्दाश्त करने पडे, हममे से बहुत लोगों ने उनका दर्शन करते हुए यह आखों से देखा है । कई वर्ष तक वो विकलांग थे किन्तु इसके कारण एक भ्रांति जिन्होने उनको नजदीक से देखा नही उनको मन में रही कि विकलांग है, अब कुछ काम काम नही कर सकते । निरूपयोगी हो गये ऐसी भ्रांति अपरिचित लोगों के मन में हो सकती थी । वह गलत थी । भीष्म पितामह सरशैय्या पर थे, हलचल नही कर सकते थे किन्तु उस अवस्था में भी युधीष्ठर ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा ”धर्म और अधर्म इसका निर्णय कर लेना चाहता हूँ ” तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कहा इसका निर्णय करने के लिए अधिकारी पुरूष भीष्म पितामह ही है । मै तुमको उनके पास ले जाता हूँ । ठीक यही अवस्था जब सरशैय्या पर बालासाहब थे, हलचल नही कर सकते थे तो भी सभी को मार्गदर्शन करना, सलाह देना, सभी की बाते सुनना ये सारा कार्य उनका चल रहा था । शरीर विकल था, बुद्धी विकल नही थी यही विशेषता थी । Intellectual capacity, memory intact थी और इसके कारण कोई भी समस्या लेकर भी जाता था, उसका उचित मार्गदर्शन करते थे । कोई भी मिलने को आया तो उसको ठीक ढंग से पहचानते थे । उसके बारे में, उसके परिवार के बारे में, उसकी शाखा के बारे में पूछते थे । सारे समाचार पत्र, जो भी उपलब्ध थे, हर दिन पढ़वा लेते थे । टी. वी. पर आधुनिक समाचार क्या है यह भी बारीकी से देखते थे । राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्र में क्या हो रहा है, इसका इनका निरीक्षण बराबर चलता था । sharp Intellect, sharp memory आखिर तक थी । बिलकुल अंतिम चरण तक थी । और इसी कारण राजनैतिक क्षेत्र में क्या उथल-पुथल हो रही है, सामाजिक क्षेत्र में क्या गलत बाते हो रही है सभी बातों का उनका निरीक्षण रहता था । और इस दृष्टि से मार्गदर्शक के नाते भीष्म पितामह के समान उनकी भूमिका हमेशा रहती थी ।
संघ के कार्यकर्ता, इतना ही नही तो स्वयंसेवकों द्वारा चलाई जा रही विभिन्न संस्थाएं उनके कार्यकर्त्ता को भी मार्गदर्शन करने का काम उस विकलांग अवस्था में भी उन्होने किया यह एक उल्लेखनीय बात है । उनकी सारी उत्कृष्ट भावनाएँ संघ के स्वयंसेवक के नाते, सर संघचालक के नाते , उस विकलांग अवस्था में भी यथापूर्व कायम थी । वे हमेशा स्वयंसेवक की ओर अपने पुत्र के जैसे देखते थे । पितृतुल्य भावना उनके मन में थी । कुछ लोगों ने ऐसा कहा की भई इनकी मृत्यु हुई तो उनको बड़ा शोक हुआ । स्वयंसेवकों पर कोई भी आपति आती है तो उनका दिल दर्द करता था और इसलिये सबको आश्चर्य हुआ की जिस समय कार्यालय के एक कमरे से दूसरे कमरे में जाना wheel chair पर भी कठिन लगता था, ऐसे समय जब उन्होने पढ़ा की मद्रास में अपने संघ के कार्यालय में Bomb Blast हुआ है, हमारे कुछ स्वयंसेवक हत और आहत हुए है, उनसे रहा नही गया और आखिर में डॉ. के Advice के विरूद्ध जाते हुए हर तरह की “रिस्क” लेते हुए वो उस अवस्था में भी मद्रास गये । जिनकी मृत्यु हो गयी थी ऐसे लोगों के परिवार जनों को स्वयं व्यक्तिगत रूप से मिले । जो आहत हुए थे, घायल हुए थे, उनको सांत्वना दी और वे फिर वापस आये ऐसी अवस्था में भी एक कमरे से दूसरे कमरे में जाना उनके लिये कठिन था । इतना साहस उन्होने दिखाया इतनी ताकत उन्होने जुटाई तो सभी स्वयंसेवको के बारे मे कितना प्रेम कितनी पितृतुल्य आत्मीयता, एकात्मता उनके मन में थी । यह विकलांग अवस्था में भी उनका दर्शन हम लोगों ने किया ।
जीवित अवस्था में उन्होने जो कार्य किया वह हमारे सामने है । लेकिन विशेष रूप से मैंने इसका उल्लेख इसलिए किया कि बहुत लोगों के मन में भ्रांति देखी थी कि एक बार विकलांग होने के बाद, कार्य के लिए उनका मार्गदर्शन, योगदान नहीं रहा , ऐसी बात नही थी । विकलांग अवस्था में भी उनका योगदान था, आखिर तक यह योगदान रहा यह कहने की प्रमख बात थी ।
वैसे उनके जीवन के बारे में पिछले एक माह में बहुत कुछ कहा गया है, बहुत कुछ लिखा गया है । इसके कारण कोई नई बात बताने की है ऐसा मै नहीं समझता । देवरस परिवार यह आंध्र प्रदेश का है, महाराष्ट्र का नही । आंध्र-प्रदेश में चंद्रपुर के मार्ग से, वाया चंद्रपुर कई तेलगु परिवार नागपुर में आये । हेगडेवार परिवार उसी में था । बापूजी अणे उसमें थे । बाल शास्त्री हरदास का परिवार था । कन्नमवार का परिवार था । कई तेलगू परिवार वाया चंद्रपुर, नागपुर में आये, उसी मे से देवरस जी का परिवार था । उनका पहला नाम देवराजू ऐसा था । नागपुर में स्थायी होने के बाद देवराजू का मराठी करण देवरस हो गया । आचार्य विनोबा भावे जो शाब्दिक श्लेष करने में चतुर थे वह हम लोगों से कहते थे कि देवरस का अर्थ तुम नही समझते । सभी देवताओ का रस निकालकर जो तैयार हुआ वह तुम्हारा देवरस है । विनोबा भावे ऐसा शाब्दिक श्लेष करते थे । उनके पिताजी बहुत धार्मिक थे, कर्मठ थे । नागपुर में मोती बाबा जामदार करके एक श्रेष्ठ संत थे । जिनको दत अवतार कहा जाता था । उनके भक्त थे । उनकी माताजी, वह भी बहुत धार्मिक थी और प्रमुख बात यह थी कि बहुत कर्मठ और एक तरह से व्रती उनको कहना, यह ठीक होगा । ऐसा उनका व्यवहार था । परिवार में गृहिणी के नाते उनको ही सब काम करने पड़ते थे किन्तु किसी शारीरिक न्यून या बीमारी के कारण Medical Advice था कि उन्होने केवल छाछ पर जीवित रहना और कुछ लेना ही नही, केवल छाछ! दिन में, सुबह, रात को केवल छाछ । तो जीवन का आधे से अधिक हिस्सा बालासाहब की माता जी ने केवल छाछ पीकर बिताया और उसी अवस्था में घर का भी तो सब काम करती थी और हम बच्चे थे तो हम लोगों को आश्चर्य होता था कि इधर पूरण पोली, वडा ऐसे सारे भोजन के पदार्थ वह बनाती थी । सब लोगों को परोसती थी और स्वयं केवल छाछ पीकर रहती थी । इसमें उनका जो संयम है, व्रती जीवन है उसका परिचय उस समय भी हम लोगो को होता था । ऐसा उनकी माताजी का स्वभाव था । बालासाहब के मन में माता जी के बारे में बहुत ही प्रेम आदर था । आखिरी बीमारी में उन्होने अपने माताजी का बक्सा, माताजी का फोटो, उनका जो गांव है, आमगांव कारंजा, वहाँ से मंगवाया था और इसका कारण बालासाहब के जीवन में माताजी का योगदान भी महत्वपूर्ण रहा । सूझबूझ आने के बाद या सूझ बूझ आते ही बालासाहब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रविष्ठ हुए और उन्होनें संघ के वायुमंडल के अनुकूल माताजी से कहा की मेरे साथ भोजन के लिए सभी जाति के लोग आयेंगे । दलित भी आयेंगे । उस समय मै यह नहीं सुनूंगा की ये दलित हैं तो मेरे रसोई घर में रोटी नही खा सकता । मेरे साथ बैठकर खायेगे । रसोई घर में बैठकर रोटी खाएंगे । माता जी ने कहा मेरी ओर से काई आपत्ति नही है । उन दिनों में आप कल्पना कीजिए जब वे बाल स्वयंसेवक थे । उन दिनों में orthodoxy इतनी प्रबल थी की जहाँ माता पिता दोनो बहुत कर्मठ, वहाँ यह बाल स्वयंसेवक आग्रह करता है कि मेरे दलित बंधु भी मेरे साथ आयेंगे और रसोई घर में खाना खायेंगे । बाहर नही । तो माताजी ने यह बात स्वीकार कर ली । यह एक अनोखी बात उन दिनों मानी गयी थी । सामाजिक समता परिषद् सामाजिक मंच आदि बातें तो सब नयी है । मै तो समझता हूँ उनके बाल्य अवस्था से ही यह सामाजिक समरसता का प्रांरभ उनके रसोई घर से उन्होने किया था और माताजी के सहयोग के कारण यह हो सका । इस तरह की माताजी भगवान की दया से उनके लिए उपलब्ध थी वह हमारे लिये भी एक सौभाग्य की बात थी । जब से सूझ-बूझ आयी तब से शाखा में शामिल हुए कुश पथक यह बाल स्वयंसेवकों का पथक उन दिनों में बहुत ही प्रसिद्ध था । प. पू. डॉक्टर जी का विशेष ध्यान कुश पथक के स्वयंसेवकों पर रहता था । बहुत आशाएँ उन्होंने लगायी थी और कुश पथक में से सभी वैसे ही स्वयंसेवक, कार्यकर्ता निर्माण हुए, जिन्होने डॉक्टर साहब की आशा फलीभूत करने का प्रयास किया । वहाँ से धीरे-धीरे संघ के कार्य में उनकी प्रगति हुई । संघ के बारे में आप जानते है कि संघ में हर एक को रगड़ में से जाना पड़ता है ऐसा नहीं होता की अच्छा भाषण देता है तो उसको अधिकारी बना दो, ऐसा नहीं होता । जो संघ की रगड़ है, स्वयंसेवक, गटनायक, शिक्षक, मुख्य शिक्षक, प्रचारक, जिला-प्रचारक, विभाग-प्रचारक, या कार्यवाह, जि. कार्यवाह, विभाग-कार्यवाह, एक रगड़ मे से हर एक को जाना पड़ता हैं । तो सभी तरह के काम करते करते उन्होने संघ कार्य में प्रगति की । जिस विभाग में उनका जन्म हुआ, उनका मकान जिस विभाग में था वह विभाग पुराने नागपुर में था । नागपुर के हम दो हिस्से उन दिनों में मानते थे । जो ब्रीज है, ब्रीज के उधर का नागपुर, याने Modern इधर का याने पुराना । तो पुराने नागपुर में उनका मकान था और इसके कारण तथा कथित पिछड़ी जातीयों, तथा कथित दलित जातीयाँ, ऐसे लोग उनके अगल बगल में रहते थे । तो सारा वायुमंडल ऐसा था । शाखा पर भी दलित और पिछड़े लोगों की संख्या अच्छी रहती थी । उन सब को लेना, संम्भालना, संस्कार देना यह काम करना पड़ता था और वह भाषण से नहीं करते थे ।
संघ कार्य के बारे में आप जानते है कि संघस्थान पर आना पड़ता है । संघस्थान कहाँ मिलेगा? पहला ही संघस्थान बालासाहब को ऐसा मिला की एक टूटा हुआ मकान, खंडहर, उसके सामने मैदान ऐसा ही पड़ा था । कोई उपयोग नही लेता था जो केवल खंडहर था, तो सुबह शाम को लोग प्रातविधी के लिये उसका उपयोग करते थे । इसके कारण वहा गंदगी रहती थी । वहाँ शाखा लगाने का सोचा तो वह गंदगी दूर करने का काम पहले करना पड़ा और दूसरे लोगों को कहने के पहले स्वयं बालासाहब सामने हो गये । उन्होने वह गंदगी अपने हाथ से उठायी, बाकी फिर स्वयंसेवकों ने यह काम पूरा किया । तो यहाँ ऐसे छोटे छोटे कामों से लेकर सबके साथ खेलना कबड्डी बहुत अच्छा खेलते थे- सबके साथ खेलना एक Sprit सभी लोगो में रह सके इस तरह से शाखा चलाना, होते होते नागपूर कार्यवाह तक उनकी प्रगती हुई और नागपूर कार्यवाह के नाते जितने भी कार्य आवश्यक थे वो बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से उन्होने किये । विभिन्न शाखाओं से संबंध, हर एक कार्यकर्ता को बराबर देखना, कौन कार्यकर्ता है, कैसा है? उसका स्वभाव कैसा है? दोनो के बारे मे Equations कैसे है ये सारा देखना, कार्यकर्ताओं को संस्कारित करना और विशेष बात कि सारे जो कार्यक्रम होते है, जैसे संघ शिक्षा वर्ग है उसकी व्यवस्था । शीत शिविर है उसकी व्यवस्था । उन दिनों शीत शिविर की व्यवस्था याने सारे शारीरिक कार्य स्वयंसेवक को ही करने है इस तरह की व्यवस्था थी । बिल्कुल तंबू ठोकने से लेकर सभी काम स्वयंसेवक करते थे । उसमें पहल करने का काम स्वयं बालासाहब करते थे । जिसके कारण बाकी लोगों को प्रेरणा और प्रोत्साहन मिलता था । इस तरह के सभी कार्य नागपुर कार्यवाहक के नाते उन्होने किये । इतना ही नहीं तो कार्यवाह तो नागपुर के थे लेकिन नागपुर यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का केन्द्र है, उसका एक विशेष जिम्मेदारी है ऐसा प. पू. डॉक्टर जी कहते थे । उसके अनुसार नागपुर में रहते हुए बाकी देश मे प्रचार कार्य करने के लिए कार्यकर्ताओं को, प्रचारकों को निकालना ये महत्वपूर्ण कार्य अच्छी संख्या में बालासाहब ने किया और नागपुर के बाहर भी जब संघ शिक्षा वर्ग शुरू हुए तब वहाँ प्रारंभिक दिनों में मुख्य शिक्षक भेजना, वह भी नागपुर से ही भेजे जाते थे । तो संघ शिक्षा वर्ग में मुख्य शिक्षक, शिक्षकों को भेजना और प्रचारक के रूप में काम करने के लिये लोगों को Motivate करना इस तरह, नागपुर में रहते हुए संपूर्ण देश में कैसे यह कार्य का वटवृक्ष किस तरह से फैलेगा उसके लिए परिश्रम करना उनका काम रहा ।
प. पू. डॉक्टर जी के समय ही प. पू. श्रीगुरूजी का संघ में प्रवेश हुआ और ऐसा दिखता है कि डॉक्टर जी के मन में श्रीगुरूजी और बालासाहब इनके बारे में कुछ विशेष Equation होगा । जैसे सन् 1939 में कलकता में संघ कार्य शुरू करने के लिए श्रीगुरूजी को भेजा गया और थोडे ही दिन के बाद उनके सहायक के नाते बालासाहब को भेजा गया । तो दोनो के विषय में कुछ विशेष भावना डॉक्टर जी के मन में थी ऐसा स्पष्ट दिखता है और यह भावना का अनुभव दोनों करते थे । इसके कारण दोनों की जो परस्पर विषयक भावनाएँ थी ये बहुत ध्यान में रखने लायक थी ।
श्रीगुरूजी सर संघचालक हो गये बालासाहब कभी नागपुर कार्यवाह थे, कभी सह-सरकार्यवाह थे । बाद में सर-कार्यवाह बने लेकिन पहले नागपुर कार्यवाह और सह-सरकार्यवाह ही थे । उस समय भी बालासाहेब का जब उल्लेख होता था – तब श्रीगुरूजी कहते थे जिन्होंने डॉ. हेडगेवार जी को देखा नही ,उन्हे बालासाहब को देख लेना चाहिए, तो फिर उनके ख्याल में आयेगा की डॉक्टर जी कैसे थे । एक समय श्री गुरू जी तांगे में जा रहे थे । उनके सामने ही रास्ता दिखाने के लिये बालासाहेब चल रहे थे । तो स्वाभाविक रूप से गुरू जी के मुख से शब्द निकले कि असली सर-संघचालक तो पैदल रास्ते से जा रहे है और नकली सर-संघचालक हम तांगे में बैठकर जा रहे है । मजाक में लेकिन जो स्वाभाविक रूप से शब्द निकला । एक समय उन्होने कहा ‘ संघ के संविधान में एक समय दो सर-संघचालकों की नियुक्ति करने की गुंजाईश नहीं है । यदि होती तो फिर शायद आज की अवस्था नहीं होती । दो सर-संघचालक एकदम नहीं नियुक्त हो सकते इसलिए मै सर-संघचालक हूँ और ये सरकार्यवाह है ।‘ माने कितनी भावना उनके बारे में श्रीगुरूजी के मन में थी यह हम देख सकते है । उनकी भी भावना श्रीगुरूजी के बारे में जो थी वह भी देखने योग्य है । मासिक श्राद्ध के समय सर-संघचालक पद ग्रहण करते समय उनका जो भाषण हुआ उन्होने वर्णन करते हुए कहा उनके वाक्य थे – ‘Under his benign leadership, I was functioning as a manager’. श्रीगुरूजी उनको कितना उच्च पद देते थे और वे कहते थे , ” Under Guruji’s benign leadership I was functioning as a manager.” के नाते, organizer के नाते उनकी जो क्षमता थी वह विशेष थी ही किन्तु परस्पर संबंध कैसे थे यह एक देखने की बात है । हम जानते है की विविध कार्य स्वयंसेवको द्वारा चलाये गये । प्राय: श्री गुरू जी के कालखंड में ही शुरू हुए । बाद में भी कुछ शुरू हुए और भी कुछ शुरू होंगे । वह क्रम चलेगा क्योंकि यह तो Progressive unfoldment है । 1925 विजय दशमी के पूर्व ही प. पू. डॉक्टर जी ने संपूर्ण राष्ट्र पुनर्निर्माण की योजना बनायी थी, किन्तु जिसको प्रकाशित नहीं किया जो उनकी पद्धति थी । आजकल तो पद्धति नयी है कि एकदम 5 लोग भी पार्टी Form कर लेते है Manifesto Publish कर देते है कि दुनिया की सुर शक्ल कैसे सुधारने वाले है । ब्रह्माण्ड की सुर शक्ल कैसे दुरूस्त करने वाले है । डॉक्टर जी की कार्य शैली दूसरी थी । रघुवंश के राजाओं के बारे में कहा गया है की फलानुमेय: प्रारंभ: । माने किसी भी बडे काम का प्रारंभ करते थे तो पहले शोरगुल नही मचाते थे । उसकी Advertisement propaganda नही करते थे । शांत चित्त से कार्य का पारंभ करने देते थे । जब कार्य का फल आता है तो ”फलानुमेय: प्रांरभ:” । लोग अनुमान लगा सकते थे कि जो फल आया है तो इसका बीजारोपण कभी न कभी हुआ होगा । इस तरह से काम करने की डॉक्टर जी की शैली थी । इसके कारण तरह तरह की सारी योजनाएँ उनके मन में रहती थी । तो भी उन्होने इस तरह Manifesto नही दिया । किन्तु आज जितना हम देखते हैं मूल योजना की ही यह Progressive unfoldment है । उत्तरोत्तर होने वाला यह प्रस्फुटीकरण है । तो तरह तरह की संस्थाएं जो निर्माण हुई थी अब इसमें गुरूजी और बालासाहब का ऐसा कुछ Joint था । उदाहरण के लिये दादासाहब आपटे बहुत साल U.P. उस समय United Press करके थी, बाद में उसको U.N.I. बनाया गया । उसमें उन्होने काम किया । पत्रकारिता क्षेत्र में जाना है यह सोचा था, सभी क्षेत्र में जाना है यह पहले से ही सोचा था । संघ कुछ नही करेगा, संघ स्वयंसेवक सब कुछ करेंगे । संघ केवल संपर्क, स्वयंसेवक, संगठन यही तक अपनी सीमा रखेगा । किंतु संघ से प्रेरणा और संस्कार प्राप्त किये हुए स्वयंसेवक व्यक्तिगत रूप से राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश करेंगे और वहाँ संघ के आदर्शों के अनुकूल कार्य की रचना और विकास करेंगे । यह विजय दशमी 1925 में सोचा गया था । उसके अनुसार जैसे जैसे संघ की शक्ति बढ़ती गयी वैसे वैसे अन्य अन्य क्षेत्रों में प्रवेश करना शुरू हो गया । तो दादासाहब आपटे की कुछ Apprenticeship United Press में हुई थी । उनके साथ श्रीगुरूजी की बातचीत हुई । अपनी भी देशी भाषाओं को लेकर ‘News agency’ होनी चाहिए । ”हिन्दुस्थान समाचार” का विचार हुआ । जैसे वह विचार तय हुआ तो उसको ठीक ढंग से क्रियान्वित करना, उसके लिए उपयुक्त व्यक्ति कौन है , उनको locate करना motivate करना उनकी team बनाना । दादासाहब आपटे थे, बापूराव महाशब्दे, बापूराव लेले।, जी.आर. माधवराव, नारायणराव तरके, वसंतराव देशपांडे और आखिर तक जिन्होनें यह काम चलाया वह बालेश्वर जी अग्रवाल यह सारी जो team बनी, वह बनाने का काम बालासाहब ने किया । जैसे वनवासी कल्याण आश्रम, प्रेरणा गुरू जी की थी । बालासाहब देशपांडे जसपुर में वकालत करते थे । उनको वनवासियों में काम करने की प्रेरणा दी, किन्तु जैसे वह काम बढा, जो केवल जसपुर तक सीमित था । तो फिर उसको अखिल भारतीय स्वरूप देना चाहिए यह प्रेरणा बालासाहब ने दी और उसका अखिल भारतीय स्वरूप होना चाहिए इसलिए जो -जो सहायता संघ की ओर से होनी चाहिए वह देने की व्यवस्था भी की और उस कार्य से इतनी एकात्मता थी, जैसे मैने मद्रास का उदाहरण दिया, एक बडे सम्मेलन की योजना, वनवासी कल्याण आश्रम की, एक बिहार के गुमला में और एक बस्तर में हो गयी । सम्मेलन की योजना हुई इस समय बालासाहेब की तबीयत ठीक थी । योजना होने के बाद प्रत्यक्ष सम्मेलन के समय उनकी तबीयत बहुत खराब हो गयी उनके लिये चलना फिरना भी असंभव हो गया । फिर भी लोगों का विरोध न मानते हुए आग्रह पूर्वक गुमला में और बस्तर में वो स्वयं गये । वनवासी लोगो ने देखा की कितने कष्ट उठाते हुए सरसंघचालक हमारे बीच में आ रहे है । एक कृतज्ञता का भाव उनके मन में था । तो योजना बनाना, जनरल मार्गदर्शन -क्रियान्वयन करने का काम इसी तरह उनका चलता था । विशेष रूप से हम जानते है कि संघ कार्य में हमेशा एक समस्या रहती है ,आगे भी रहेगी और ये समस्या ये है ,और वह सच भी है कि संघ कार्य परिस्थिति निरपेक्ष है । संघ कार्य परिस्थिति निरपेक्ष है किन्तु स्वयंसेवक का मन यह परिस्थिति सापेक्ष रहता ही है । संघ कार्य परिस्थिति निरपेक्ष है, लेकिन स्वयंसेवक का मन परिस्थिति सापेक्ष है और इसके कारण बाह्यय परिस्थिति का परिणाम कम अधिक मात्रा में विभिन्न लोगों पर होता है ।
इसके कारण स्वयंसेवको की मानसिकता क्या है, जिसका ज्ञान केंद्र को रहना, केंद्र का विचार क्या है इसकी जानकारी स्वयंसेवको तक पहुंचाना यह ‘Two way communication ‘ बहुत आवश्यक होता है । यह रास्ता बालासाहब ने खोला । मुझे स्मरण है कि पहला ही प्रयोग 1945 में जब बहुत खलबली स्वयंसेवकों के मन में थी, कई तरह तरह के विचार मन मे थे -कार्यपद्धति के बारे में खासकर तो उन्होने नागपुर में जो राजाबाग मारूति मंदिर है, उसके प्रांगण में दिनभर का कार्यक्रम रखा । एक दिन में और कुछ नही , प.पू. गुरूजी ने बैठना ओर नागपुर के सभी कार्यकर्ता एकत्रित थे और उन्होने मुक्तचिंतन करना । जो भी विचार मन में हो वहां संकोच की बात नही थी, आदर के, मर्यादा के कारण कम बोलना ऐसी भी बात नही थी । जो विचार जिसके मन में आयेगा वो बोलेगा । पूरे दिन यह कार्यक्रम चला और कोई बात नही थी और फिर दूसरे सप्ताह में मा. बाबासाहब घटाटे के यहाँ बैठक हुई और वही लोग, और फिर जो जो बोला गया था उसके बारे में सरसंघचालक के नाते क्या प्रतिक्रिया है वह श्री गुरूजी ने उस समय प्रकट किया ।‘Two way communication ‘की प्रकट पद्धति बालासाहब ने शुरू की । उसी का अधिक विस्तृत स्वरूप सिंदी के जिला प्रचारकों के वर्ग में, इंदौर के विभाग प्रचारकों के वर्ग में, ठाणे में नवंबर 1972 मे वर्ग हुआ उसमें इसी का विस्तृत स्वरूप हम देख सके और इसके कारण इस तरह से केंद्र के मानस की जानकारी नीचे के स्वयंसेवक तक और नीचे के स्वयंसेवक की मानसिकता केंद्र तक -पहुंचाने की व्यवस्था भी बालासाहब की कुशलता की योजना के कारण हो सकी ।
हमारे विजय गिरकर जी ने उल्लेख किया था कि तरह तरह से कुछ लोग जानबूझकर गलतफहमी फैलाते है । जैसे श्री गुरू जी के समय कहते थे, कि डॉक्टर जी का संघ अलग था, श्री गुरूजी का संघ अलग था और आगे कहा की गुरूजी का संघ अलग था, बालासाहब का संघ अलग था । माने समझते दोनो को नहीं । लेकिन जानबूझ कर बुद्धिभेद करने का प्रयास होता है । वो लोग नही जानते कि कितने उनके घनिष्ठ संबंध थे । आखिरी दिनों में Ban (प्रतिबंध) के समय द्वारका प्रसाद जी मिश्र इनको जवाहरलाल जी ने नागपुर भेजा । श्री गुरू जी सिंदी के जेल में थे, बालासाहब आदि बाहर थे । उनके साथ मिश्रा जी की बैठक हुई । मिश्रा जी ने कहा की जवाहरलाल जी ने तय किया है कि Ban (प्रतिबंध) उठाना है । केवल उसके लिए श्री गुरू जी ने, केवल नेहरू जी के नाम पत्र देना चाहिये कि Ban (प्रतिबंध) उठाये । तो बालासाहब ने कहा- नही, इतने दिन का हमारा अनुभव ऐसा है जिसके कारण आपके शब्द पर हमारा विश्वास नही । श्री गुरू जी ऐसा कोई पत्र नही लिखने वाले । मिश्रा जी ने कहा आप केवल पत्र लिखिये, Ban (प्रतिबंध) उठने वाला है, मैं आश्वासन देता हूँ । बालासाहब ने कहा कि नेहरू जी के नाम श्री गुरू जी यह पत्र नही लिखेगें । फिर मिश्रा जी ने compromise निकाला की श्री गुरूजी ने नेहरू जी के नाम पत्र नही लिखें, किंतु मध्यस्थता करने वाले पं. मौलीचंद्र शर्मा इनके नाम Private पत्र देना । इसके आधार पर Ban (प्रतिबंध) उठाने का काम होगा और ऐसा ही हुआ । आखिरी जो पत्र था श्री गुरूजी का, नेहरू जी को नही था, Private letter to पं. मौलीचंद्र को शर्मा था और उसी के आधार पर Ban (प्रतिबंध) उठाने काम हुआ । किन्तु ये जब मिश्रा जी से बात हुई तब श्री गुरूजी तो सिंदी में थे । लोगो के साथ उनका Communication नही था, लोगो का जाना आना नही था । किन्तु जब मौलीचंद्र गये तो पत्र का content सीलबंद करके उनके पास दिया और उन्होन कहा कि इस पर आप को हस्ताक्षर करना चाहिये । बालासाहब का जब यह पत्र देखा कि इस पर आपको हस्ताक्षर करना चाहिये, गुरू जी ने तुरन्त हस्ताक्षर कर दिया वो Private letter to मौलीचंद्र शर्मा , इनके आधार पर बाद में Ban (प्रतिबंध) हटाया गया । माने इतना विश्वास ।
इनके परस्पर संबंधों के बारे में, खासकर जिन्होने गलतफहमी फैलाना अपना धर्म माना है कितनी बात कही है । कितनी परस्पर आत्मीयता थी उनकी, इसका केवल एक उदाहरण मै देना चाहता हू । शायद बाहर के लोगो को इतना मालूम नहीं । बहुत ही मार्मिक ऐसा यह प्रसंग है । गांधी हत्या हुई, शासन ने जानबूझकर संघ के बारे में गलतफहमी फैलाई जो राजनैतिक तत्व संघ को बदनाम करना चाहते थे । उन्होने उसका लाभ उठाया । जनता में क्षोभ पैदा किया गया । और फिर यह बात हुई की एक आदमी की हत्या हुई उसका बदला दूसरे आदमी की हत्या से होना चाहिये -खून का बदला खून से, हत्या का बदला हत्या से, ऐसा कहते हुए और ऐसे जो राजनेता थे बहुत बडे, वो Mob (भीड़) को लेकर प.पू. गुरूजी के मकान पर हमला करने के लिए आए । मकान छोटा था बालासाहब ने पहले ही व्यवस्था कर दी थी । Mob (भीड़) आ रही देखा तो 40 दंडधारी स्वयंसेवको को अंदर रखा था । किंन्तु Mob (भीड) इतना बडा था कि इतने Mob (भीड) के सामने 40 दंडधारी स्वयंसेवक कुछ नही कर पाते । इसलिये कई लोग गुरूजी से कहते थे आप यहाँ से सुरक्षित बाहर चले जाइये । बडा Mob (भीड़) है, यहा आप रहेंगे तो आपकी हत्या होगी । गुरू जी ने इन्कार कर दिया । उन्होने कहा की मेरी भूमिका ये है कि मै जिस हिंदु समाज के लिये काम करता हूँ वही हिंदु समाज यदि मुझे नही चाहता, मुझे मारना चाहता है, तो मुझे मारे । जो हिंदु समाज की इच्छा होगी वही हो । मै अपनी जान नही बचाऊंगा – अगर हिंदु समाज मेरी जान लेना चाहता है तो । कई लोग गये लेकिन गुरूजी हटने के लिए तैयार नही थे । बाहर Mob (भीड़) इकट्ठा हुआ था । मकान छोटा था । दरवाजा लकडी का था और वो भी पुरानी लकडी का दरवाजा था । आखिरी में दरवाजे को धक्के लगाना भी उन लोगों ने शुरू किया, गुरूजी मानने को तैयार नही थे । शायद उनके मन मे यही भावना थी की इस समय यहाँ आत्मार्पण करना यही सिद्धान्त के अनुकल है, ऐसा कुछ विचार होगा । आखिर में बालासाहब आये और बालासाहब ने उनको कहा आप हमारे सरसंघचालक है, हम आपके स्वयंसेवक है । सरसंघचालक के नाते आपके आदेश का पालन करना हमारा काम है । किन्तु स्वयंसेवक का भी स्वयंसेवक के नाते आप पर कुछ अधिकार है और उस अधिकार के नाते मै कहता हूँ कि आपको यहाँ से सुरक्षित बाहर जाना चाहिये । बाहर जाने के लिए रास्ता था । गुरू जी तैयार नही थे । मुझे इस समय बिल्कुल समानान्तर घटना का स्मरण हो रहा है, समानान्तर घटना! अपने इतिहास की! गुरू गोविंदसिंह जी चमकौर के दुर्ग में – उसको दुर्ग क्या कहा जाय उसको कच्ची गढी़ कहते है । बहुत थोडे़ लोगों के साथ थे । घेरे गए थे मुगल सेना से । मुगल सेना बहुत बडी़ थी । इतनी बडी सेना के साथ एकदम लड़ना भी संभव नही था किंतु जब घेराव हुआ तो पहले उन्होने अपने बडे पुत्र साहब जादा अजीतसिंह व बाद में पुत्र साहब जादा दूसरा जुझारसिंह दोनो को 10, 15 – 10, 15 लोग देकर लड़ने को गुरू गोविंदसिंह जी ने भेजा । अब लड़ने के लिए क्या भेजना था मरने के लिए ही भेजना था । स्पष्ट था जो जायेगा मरेगा ही । इतना होने के बाद 15-20 लोग गुरू गोविन्दसिंह जी के पास रहे फिर उन्होने कहा अब हम जायेंगे, उस समय शिष्यों ने कहा कि साहबजादा अजीतसिंह, साहबजादा जुझारसिंह उनका आत्मार्पण हुआ है । लेकिन आपकी बात दूसरी है आप हमारे नेता है आपने हमको सिखाया है कि ‘ ‘आप्पे गुरू आप्पे चेला । ” इस युक्ति के अनुसार अब हमारी बात मानना आपके लिए बाध्य हो जाएगा । आपको हमारी बात माननी चाहिये । आप सुरक्षित बाहर निकलिये । यह अपने लिये, देश के लिये आवश्यक है । ठीक यही बात जैसे बालासाहब ने कही स्वयंसेवक के नाते हमारो बात आप को माननी पडेगी । यही शिष्यों ने कहा ”आप्पे गुरू-आप्पे चेला” इसी उक्ति के अनुसार हम आपको कह रहे हैं और हमारी बात आप को माननी पडेगी । अपनी अनिच्छा होते हुए भी गुरू गोविंदसिंह जी ने शिष्यों की बात मान ली । वैसे ही अपनी अनिच्छा होते हुए भी श्री गुरू जी ने बालासाहब की बात मान ली और सुरक्षित बाहर आये, वरना हिंदुस्थान का ओर संघ का इतिहास बदल जाता । यह हम समझ सकते है दोनो में इतना परस्पर संबंध था ।लेकिन लोगों ने उसको तरह तरह के रंग दिये !
जैसे उन्होने कहा ‘Under his benign leadership, I was functioning as a manager’. वारत्तव में “Sceience ofManagement की शिक्षा दीक्षा न लेते हुए जन्मजात वो Manager थे, जन्मजात । बचपन में शाखा में तो Management करना ही पडता था । एक Philonthrophist डॉ चोलकर उन्होने नागपुर में अनाथ विद्यार्थी गृह निकाला । यह अनाथ विद्यार्थी गृह पुराने नागपुर में था । तो अनाथ विद्यार्थी गृह में स्वाभाविक रूप से उस पुराने नागपुर के दलित और पिछडी जाति के अनाथ विद्यार्थी ही आते थे । उन्होने वसतिगृह तो निकाला था । प.पू.डॉक्टर जी को उन्होने कहा की कोई अच्छा compitent आदमी दीजिये कि वो वसतिगृह की Management कर सकेगा और कैसी Management करना उसकी व्यवस्था लगा देगा । बालासाहब की वहाँ योजना हुई । 2 साल तक उन्होने ठीक ढंग से व्यवस्था की, अनुशासन बद्ध व्यवस्था की । उसी समय उनका बाकी दलित और पिछडे हुए लोगो के साथ संबंध आया । अच्छी Management इस नाते डॉ. चोलकर जी ने भी उनकी बहुत प्रशंसा की । आपको आश्चर्य होगा, बहुत लोगो को शायद यह पता नही है,१९४५,४६,४७ में उन्होन एक स्टार्स भी चलाया था’ भारत स्टोर्स ‘करके । मा. मनोहरराव ओक उनके सहयोगी रहे । भारत स्टोर्स की व्यवरथा तो business Management थी, Regular Management वो भी Management बहुत Efficiently वे कर सके ।
वैसे बहुत लोगों को ये पता नही होगा की उनकी पैतृक खेती थी, कृषि थी । बालाघाट जिले में कारंजा के पास आमगाव करके गांव है वहाँ थी । तो उन्होने सोचा कि प्रयोग के नाते मैं स्वय कृषि करूगा । और उस समय का उनका अनुभव है एक आदर्श कृषक इस नाते उन्होने काम किया और उन्होने उस समय कहा – जब बाकी कृषकों के सामने तो यह बात बहुत बाद में आयी तब उन्होने कहा कि- कृषको को जो कीमते मिलती है वो ठीक नही है । हमारे यहां हर तीन चार साल में एक बार अकाल आता है । माने दो साल में उसको इतनी कमाई करनी पडती है कि तीसरे साल भी इस पर या उस पर गुजारा कर सके । यह ध्यान में रखकर कृषि उपज का मूल्य तय होना चाहिये । यह बात उन्होने उस समय कही कि जिस समय यह बात उस हवा में नही थी और दूसरी बात उनके साथी किसान उनसे नाराज थे । क्योंकि उनके यहाँ काम करने वाले खेतीहर मजदूर और कारीगरों को वे पूरी रोजी देते थे । लोगो ने विरोध किया कि आप पूरी रोजी देते हैं, इसलिए हमारी Position खराब होती है आप पूरी रोजी देते है तो हमको भी देनी पडेगी । तो बालासाहब ने कहा आप भी दीजिये । ये तो न्याय की बात है । तो वो बोले हम नही दे सकते । बालासाहब ने कहा मत दीजिये मैं मेरा क्रम बंद नही करूंगा । मैं खेतीहर मजदूर और कारीगरो को पूरी रोजी दूँगा । ये उन्होन चलाया । इतना होते हुए भी उनकी कृषि एक आदर्श कृषि के नाते रही । तो वहा की भी Management उन्होन बहुत ही अच्छे ढंग से चलाई थी ।
विशेष रूप से जब तरूण भारत, यह पेपर खरीदा गया तो वह तो उनकी परीक्षा ही थी । उनके ही उपर भरोसा रखकर संघ के लोगो ने तय किया था कि पेपर खरीदेंगे । क्योंकि पेपर के संपादक और Management के जो लोग थे वो सब कांग्रेस के लिए अनुकूल, ऐसे थे । संघ के लिए कुछ तो विरोधी, कुछ प्रतिकूल, कुछ कम से कम अनुकूल ऐसे लोग थे और सीधा रास्ता जो होता है जो प्राय: होता है जब Management Change होती है, कि पुराने लोगो को हटाना, नये अपने लोग लाना । वो भी नही करना ऐसा बालासाहब ने तय किया ।और पुराना जो स्टाफ था, संपादकीय जिसमें सामान्य लोग नही थे । भाऊसाहेब माडखोलकर, तात्यासाहेब करकरे, श्री पटवर्धन, गोविंदराव गोखले, यशवंतराव शास्त्री, मानो Each one of them was great in his own right in field of journalism ऐसे लोग जो संघ के लिए विरोधी या प्रतिकूल थे ऐसे वायुमंडल से वह पेपर लेकर आये, इनको बदला नही लेकिन उनके ऊपर प्रेशर भी नही डाला । जब कभी समय मिलता था, तरूण भारत में जाते थे । इन लोगों के साथ बराबरी के नाते बातचीत करते थे, बार बार जाते थे । सब लोगो के मन में apprehention था, आशंका थी ,ये संघ का है यहाँ डिक्टेटर शिप होगी । परंतु उनको आश्चर्य हुआ की बालासाहब 2-2, 3-3 घंटे उनके साथ बातचीत चाय पान, नाश्ता करते थे और ऐसे stalwards में, पुराने लोगों में उन्होने इतना परिवर्तन लाया जिसके कारण तरूण भारत अपने लिए अनुकूल इस ढंग से काम कर सके । इस बीच ”समचार पत्रो की Management” इस विषय को उन्होने पूरी तरह से हस्तगत किया और इसक कारण वो बता भी सकते थे, कि कोई पत्र निकालना है तो कैसे निकालना यह सलाह दे सकते थे ।
उदाहरण के लिये दिल्ली में जब लोगो ने सोचा की र Motherland ये दैनिक पत्रक निकालना चाहिये । तो पहले उन्होने warning दी पत्रक निकालिये, आज आपके पास Finance है ठीक है लेकिन पत्र का Model क्या रहे यह तय करें । उन्होन कहा Model का मतलब ? तो बालासाहब ने कहा Mother land का Model नागपुर टाइम्स का होना चाहिये । Indian Express, Times of India या हिंदुस्थान टाइम्स ये Model लेकर आप मत चलिये । किन्तु दिल्ली पंजाब का उत्साह था, उस समय उन्होने दूसरा Model लिया और Mother land बंद करना पडा ये हम जानते है । तो Science of Management इस नाते उनकी एक विशेषता हर जगह दिखाई देती है और इस दृष्टि से उन्होन कहा कि “ Under His Benign leadership I was functioning as a manager “ बिलकुल सही है ।
राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रो पर उनका ध्यान था । सभी क्षेत्रों पर और हर क्षेत्र में जहां जहां आवश्यकता स्वयंसेवको को होती थी वो सहायता करते थे । वो जानते थे की राजनैतिक क्षेत्र का महत्व है और इस दृष्टि से जैसे विद्यार्थी क्षेत्र में, मजदूर क्षेत्र में, किसान क्षेत्र में वैसे राजनैतिक क्षेत्र में भी अपने स्वयंसेवक संघ की नीति-रीति पद्धति, आदर्श लेकर काम करे और एक Model Political पार्टी बनाकर लोगों के सामने उपस्थित करे । ये उनका प्रयास रहा और खासकर ये सब जानते हैं , कि जब आपातकाल आया उस समय बाकी सारे राजनैतिक दल निष्प्रभ हो गये थे । सारे निष्प्रभ हो गये थे । उस समय RSS had to bear the brunt उस समय जो R S S ने किया इसके कारण कुछ क्षण के लिए सभी राजनेताओं ने संघ की बडी प्रशंसा की, संघ के बारे में कृतज्ञता प्रगट की, किन्तु कृतज्ञता का भाव ज्यादा दिन तक मन में रखना ये राजनैतिक नेतृत्व का स्वभाव नही है इसके कारण वो बात बाद में भूल गये । किन्तु उस समय सभी ने प्रशंसा और कृतज्ञता भाव प्रकट किया था । वो सारा जो आपातकालीन संघर्ष था इसका सारा संचालन येरवडा जेल में रहते हुए बालासाहब करते थे । जो बाहर थे उनके साथ दिन प्रतिदिन उनका संपर्क रहता था । बाहर क्या हो रहा है उसकी खबर उनको जेल में मिलती थी । उनका आदेश क्या है ये लोगो को हर दिन मालूम होता था और इस तरह से सारा संचालन उन्होन किया । येरवडा जेल में बाकी लोगों को भी बालासाहब का परिचय हुआ । विभिन्न दलों के लोग थे, नाम लेने की आवश्यकता नही वो भी व्यक्तिगत संपर्क में आये । मुसलमान लोग भी संपर्क में आये और सभी के मन ने बालासाहब के प्रति इप्ताा? फादर फिगर के नाते श्रद्धा हुई कि विभिन्न दलो के नेता भी बालासाहब के चरणस्पर्श करने लगे वापस जाते समय और मुसलमान लोग भी बालासाहब के चरणस्पर्श करने लगे और जेल के बाहर आने के बाद भी बालासाहब को मिलने को बहुत लोग आते थे किन्तु हिंदु मुसलमान एकता हो जायेगी तो हमारी मिनिस्टरशिप का क्या होगा ? ऐसी चिंता जिन लोगों के मन में थी उन लोगो ने यह भी व्यवस्था की, इस तरह का हिन्दू मुसलमानों का मिलन नही होना चाहिये । तो मुसलमानों में फिर से गलत फहमी फैलाने का काम राजनेताओं ने किया । किन्तु उन सब लोगों में बालासाहब के विषय में श्रद्धा का भाव था । यह उल्लेखनीय बात है ।
राजनीति का महत्व वो जानते थे । साथ ही साथ राजनीति की सीमाएं भी जानते थे । खराब लोग राजनीति में रहें उसकी तुलना में अच्छे लोग शासन में रहे तो देश का नुकसान नही होगा, यह भी जानते थे । अच्छे लोगो का शासन में लाना चाहिए यह भी समझते थे किन्तु साथ ही साथ राजसत्ता के द्वारा ही राष्ट्र निर्माण होगा यह उनका विश्वास नही था । राष्ट्र निर्माण जो होगा वह सामाजिक, सांस्कृतिक शक्ति के आधार पर होगा ऐसा वो मानते थे । और इसके कारण जहाँ लोकतंत्र के अस्तित्व का ही सवाल आया, जब लोकतंत्र ही खतरे में था उस समय 1977 के चुनाव में खुलेआम बालासाहब ने घोषणा की, कि लोकतंत्र को बचाने के लिए कांग्रेस के खिलाफ हमारे लोग काम करेंगे । उस समय जो चार्टर ओफ डिमाण्ड बताया गया था, उसमें हम क्यो लडाई लड़ रहे हैं, उसमें ये Clause नही था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का Ban (प्रतिबंध) हटना चाहिये । इसके लिए यहClause नही था । संघ का नाम नही था । संस्थागत अभिनिवेश की बात नही थी । Institutional Ego की बात नही थी । एक ही था कि लोकतंत्र को बचाना और लोकतंत्र को बचाया गया । तानाशाही खत्म हो गयी । जिनको शासन चलाना था, उनके हाथ में शासन की बागडौर चली जाये और फिर, फिर से लोगों को चेतावनी के रूप में बालासाहब ने कहा कि राजनीति, राजनैतिक सत्ता, इसका महत्व कितना है और संघ का उससे क्या संबंध है । तो जनता पार्टी शासन में आने के पश्चात् दिल्ली में जो Rallies हुई उन Rallies में बालासाहब ने स्पष्ट रूप से एक विषय रखा था । तीन बार बालासाहब ने यह विषय दिल्ली की Rallies में रखा । जनता पार्टी शासन में आने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुत्व इन शक्तिओं का मापदंड राजनैतिक नही हो सकता । वह मापदंड सामाजिक और सांस्कृतिक ही होना चाहिए । यह विषय तीन बार उन्होने सामने रखा । तो इस तरह से संतुलन था । राजनीति का महत्व भी जानना, साथ ही साथ उसकी सीमाएं जानना और राष्ट्र निर्माण का कार्य लोकशक्ति के आधार पर होगा राजशक्ति के आधार पर नही, यह सारी बाते संतुलित रीति से उन्होने लोगों के सामने रखी ।
जहाँ तक सामाजिक समरसता का प्रश्न है, यह बताना आवश्यक है कि, संघ की विचारशैली, कार्यशैली इसकी एक विशेषता है । जैसे मैने कहा कि विजय दशमी सन् 1925 को जो संघ की स्थापना हुई वह Reflex action नाते नही हुई । एक Reaction के रूप में नही हुई । सालों तक प.पू. डॉक्टर जी ने सोच विचार किया था । डॉक्टार जी का सभी समकालीन कार्यो से प्रत्यक्ष संबंध था । सभी देशी-विदेशी विचारधाराओं का गहन अध्ययन था । यह सारा करते हुए उनके मन में यह लगता था कि कुछ कमी है और वह क्या है? इसका गहन चिंतन सालो तक उन्होने किया । उसके बाद संघ की स्थापना हुई । उनको Bi-focal Vision हो गया था । Bi-focal Vision आप जानते है कि नीचे पढने का होता है, और ऊपर का दूर का देखने का होता है । तो उनका Bi-focalVision हो गया था । नीचे के चश्मे से दिखता था कि तात्कालिक लक्ष्य क्या है? Immediate Object वो स्वराज्य है और ऊपर के चश्मे से दिखता था कि
Ultimate Object क्या है ? अंतिम लक्ष्य क्या है? वो है ”परम् वैभवम् नेतु मेतत् स्वराष्ट्रम्” इस ढंग से कार्य की रचना थी और इस कार्य की रचना में सारी जो योजना थी बहुत लंबी योजना थी । आज एकदम लोग जो संरथाएं खडी करते है ऐसा नही था । गहन चिंतन का परिणाम था और इस दृष्टि से आगे क्या होगा इसका पूरा विचार डॉक्टर जी के सामने था । यहाँ वो सारा विषय लेने की आवश्यकता नही है और इस दृष्टि से जो भी नया नया कार्य बाहर के लोगों ने देखा तो कहा कि अब संघ के लोग राजनीतिक क्षेत्र में भी आए, मजदूर क्षेत्र में आए, और किसी क्षेत्र में आए ऐसा कहा । वास्तव में यह पूर्व योजना थी । जैसे जैसे Capital बढेगा वैसे वैसे दुकानो की संख्या बढेगी ।Capital के Intrestपर दुकानों की संख्या बढानी है । पहले से ही योजना थी और भी नयी नयी संस्थाएं हमारे स्वयंसेवक निर्माण करेगें, किन्तु पूर्व योजनानुसार यह सारा चला और यह सारा जो पूर्व योजना के अनुसार चल रहा तो इसमें एक शैली इस नाते, जैसे, मैने कहा ”फलानुमेय: प्रारंभ:” यह विचार शैली होने के कारण पहले से declare नही हुआ । सभी बाते आरंभ में थी । एकदम सारा Manifesto घोषित नही हुआ । धीरे धीरे प्रस्फुटीकरण हुआ । उसको Progressive unfoldment कहना चाहिए । Progressive unfoldment धीरे धीरे होता गया । उदाहरणार्थ गौ हत्या विरोध संघ के स्थापना के पूर्व ही से डॉक्टर जी को यह Article of faith था । संघ का तो था ही किन्तु उसको समय की आवश्यकता के , अनुसार विशेष आग्रह जिसको thrust कहते है, इस रूप में प.पू. श्री गुरूजी के कालखंड में आया । जो गौ हत्या विरोध आदोंलन हुआ । ”स्वदेशी” अभी स्वदेशी जागरण मंच के नाम से काम चल रहा है । किन्तु स्वदेशी का आग्रह पहले से ही रहा । यहाँ तक कि नागपुर में जो स्वदेशी भंडार चलता था वहां Counter पर बहुत समय तक डॉक्टर जी भी बैठते थे । पहले से ही स्वदेशी का आग्रह रहा, किन्तु विशेष आग्रह, thrust के रूप में परिस्थिति की आवश्यकता के अनुकूल इस समय स्वदेशी जागरण मंच के रूप में आया । वैसे, ही सामाजिक समरसता यह आरंभ से ही थी । जब मैने कहा बालासाहब बाल स्वयंसेवक थे उस समय अपने कर्मठ परिवार के रसोई घर में दलित स्वयंसेवक बंधुओं को ले जाते थे यह सामासिक समरसता छोड़ कर और क्या थी । स्वयं डॉक्टर जी के जीवन मे आता है । मेरे गांव में , आर्वी गांव में एक जरठ युवती का विवाह उस युवती के मामा ने पैसे की लालच में आकर तय किया था । डॉक्टर जी को पता चला उनको बात बर्दाश्त नही हुई । वो आए, उन्होने देखा कि वो विवाह नही होगा ,उन्होने वो तोडा़ और उसी युवती का विवाह दूसरे अनुरूप वर के साथ ,युवक के साथ उन्होने विवाह करवा दिया । उसकी प्रसिद्धी नही की, आजकल Modern Fashion जो है , Propaganda , Image building की, थोडा सा काम करना और बहुत प्रसिद्धी करना ऐसा नही । लेकिन यह जो है सामाजिक कुरीति का विरोध चाहे बाल विवाह रहे ,चाहे दहेज वाली प्रथा रहे, सभी बातों का ये मूल से विरोध है । किन्तु इसका एक Propaganda कुछ लोगों ने तो ऐसा किया कि Propagandaकरते जाना, काम कुछ नही करना । अपनी ऐसी पद्धति नही रही । सामाजिक समरसता पहले से ही थी ।. लोगो ने खासकर के महाराष्ट्र के, एक ऐसा वायुमंडल निर्माण किया और हमारे विजय गिरकर ने उसका उल्लेख भी किया कि गुरूजी और बालासाहब दो ध्रुव के समान एक बिलकुल Orthodox और एक बिलकुल Progressive गलत बात है । बहुत पहले 7 अक्टुबर 1945 को महाराष्ट्र में एक सुप्रसिद्ध अंतरजातीय विवाह हुआ । नवले- करपे ऐसा विवाह था । अंतरजातीय था । उस अंतरजातीय विवाह के लिए शुभेच्छा और आशीर्वाद भेजेने वालों में महात्मा गांधी और सावरकर जी के साथ श्री गुरूजी का भी शुभेच्छा संदेश उस विवाह के लिए था जो उन्होने ही सारा छपवाया था । 7 अक्टुबर 1945 की बात है । इतना है कि Progressive लोगों के समान उसका डिम-डिम बजाना अपनी पद्धति में नही है । तो सिद्धांत मूल से लेकिन परिस्थिति की आवश्यकता के अनुकूल और thrust के रूप में देना यह काम बालासाहब के समय हुआ और वो उन्होने बहुत ही सक्षमता के साथ किया यह हम जानते है । हम जानते है कि कठिन परिस्थिति में भी बालासाहब ने इतना संतुलन भी रखा और आग्रह भी छोडा नही । सवर्ण लोगों को बताया कि तुमने दशको तक – शतकों तक दलित बंधुओं के साथ अन्याय किया है । अत्याचार किया है और पहली बार जब वो आरक्षण का सवाल खडा़ हुआ था- अभी तो आरक्षण के सवाल ने केवल Political Character लिया है- पहली बार जब आरक्षण का सवाल खडा़ हुआ था उस समय उन्होने स्पष्ट कहा कि, आरक्षण के बारे में सोचते समय हर एक सवर्ण हिंदु के मन में यह कल्पना करनी चाहिए कि यदि उस दलित जाति में मेरा जन्म होता – जिस दलित जाति पर शतकों तक अन्याय हो रहा है- तो मेरी मन: स्थिति? क्या होती ? मेरी प्रतिक्रिया क्या होती ? यह कल्पना मन में करके फिर आरक्षण के प्रश्न पर विचार करो ऐसा उन्होने उस समय कहा । सभी सामाजिक प्रश्नों के बारे में अभी वसंत व्याख्यान माला का उनका जो भाषण है उसका भी उल्लेख हुआ । राष्ट्र सेविका समिति का अखिल भारतीय सम्मेलन नागपुर में था उस समय अंतरजातीय विवाह का उन्होने प्रतिपादन किया । दहेज वगैरह कुरीतियों के खिलाफ वो हमेशा बोलते रहे और सामाजिक समरसता यह विषय उनके मन में कितना था, सरसंघचालक बने Officially घोषित भी हुआ । प. पू. श्री गुरूजी ने लिखा था कि ततीय सरसंघचालक पद का ग्रहण करना तो मासिक श्राद्ध के समय वह होने वाला था । Official सरसंघचालक पद ग्रहण करने के लिए जाते समय मंच पर जाने के पहले महात्मा फूले इनकी प्रतिमा को पुष्पहार समर्पण किया, उनको वंदन किया और उनका आशीर्वाद लेकर मंच पर गये और फिर वहाँ उन्होनें सरसंघचालक पद का ग्रहण घोषित किया यह दिखता है कि किस तरह उनके मन में इस विषय में एकात्मता थी । यह एकात्मता ,जो- जो राष्ट्र पुरूष है, सबके मन में रही । अभी जो कहा विजय गिरकर ने डॉ. आम्बेडकर जी के बारे मे। पाश्चात्य देशों में सिद्धान्त त्रयी का बोलबाला है । Liberty , Equality, Fraternity स्वातंय, समता-बंधुता पू. डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने कहा कि मैं इन सिद्धान्त त्रयी को मानता हूँ । किन्तु ऐसा कोई न समझे कि मैनें ये सिद्धान्त त्रयी, फ्रेंच राज्य क्रांति से उठाई है , नही ! मेरी प्रेरणा फ्रेंच राज्य क्रांति से नही है, ये सिद्धान्त त्रयी मेरे गुरू भगवान बुद्ध से उठायी है और जहाँ तक पाश्चात्य देशों का सवाल है, पू. डॉ. अंबेडकर जी ने कहा पाश्चात्य देश तो इसको Implement नही कर सके । घोषणा की स्वातंत्र्य, समता-बंधुता । स्वातंत्र्य की स्थापना की तो समता बिगड गयी । समता की स्थापना करने गये तो स्वातंत्र्य खत्म हो गया । स्वतंत्रता और समता दोनों एक साथ नही चला सके इसका कारण ? अंबेडकर जी ने इसका कारण यह कहा कि तीसरा जो फैक्टर है बंधुता, इसका तो उदय ही नही हुआ-, इसका निर्माण ही नही हुआ और उन्होन साफ कहा जब तक बंधुता निर्माण नही होती तब तक स्वातंत्र्य और समता दोनो साथ- साथ जिंदा नही रह सकते और फिर उन्होने कहा कि इसी बंधुता को, मै ”धर्म” यह संज्ञा देता हूँ । ऐसा पू. अंबेडकर जी ने कहा । जिसको उन्होने ”धर्म” यह संज्ञा दी, जिसको बंधुता ऐसा उन्होने कहा, वही अभिप्राय समरसता इस शब्द का पू. बालासाहब देवरस का है ।
तो यह संदेश सभी राष्ट्र परूषों ने दिया है । बिलकूल महात्मा फुले हो, अंबेडकर जी हो, साहू छत्रपती हो, राजाराम मोहन राय, केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद्र विद्यासागर हो, स्वामी दयानंद जी, लाला हंसराज जी, स्वामी श्रद्धानंद हो, गुरू देव नारायण गुरूस्वामी केरला के हो, सभी लोगो ने यह समरसता का संदेश दिया । लोग भूल जाते है – public memory is short उसको फिर से उज्वल करने के लिये हमारे मा. शषाद्री जी ने कहा कि बालासाहब की स्मृति में यह जो मासिक स्मृति दिन होगा ”सामाजिक समरसता दिन” इस नाते हमको मनाना चाहिये । तो सभी लोगों की यह जो परंपरा है । उसी परंपरा में सामाजिक समरसता का संदेश पू. बालासाहब देवरस का है । इसको हम ध्यान में रखे और यहाँ से जाते समय हम निश्चय करें कि यह सामाजिक समरसता हम अपने जीवन में लायेंगे और इसका संदेश जहाँ जहाँ हमारा प्रवेश है ,एसे सब लोगों को यह संदेश पहुँचायेगें, उतना हम प्रण करें । इतना ही इस समय कहना पर्याप्त है ।
(16 जुलाई 1996 को मुंबई में श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी द्वारा दिया गया भाषण ।)प. पू. बालासाहब के साथ कई दशको तक घनिष्ठ संबंध रहा । ऐसे मेरे जैसे व्यक्ति के लिये आज के इस अवसर पर कुछ भी बोलना कितना कठिन है इसकी कल्पना आप कर सकते है । शायद यदि किसी को कल्पना न होगी तो अपनी भावनाओं के बारे में हमारे मान्यवर जगजीत सिंह जी ने जो बताया कि प्रगट करना बहुत कठिन हो जाता है । उसी का अनुभव मैं ले रहा हूँ । जैसा कहा गया कि खामोश गुप्तगूं है “आज बेजुबाँ है जबाँ मेरी” हम में से बहुत सारे लोगों की अवस्था इस समय एसी ही होगी, ऐसा में समझता हूँ । किन्तु एक कर्तव्य के नाते इस समय पर कुछ बोलना है इसी नाते बोलने का साहस कर रहा हूँ ।
यह मासिक स्मृति दिन मनाया जा रहा है । मा. सरकार्यवाह श्री. शेषाद्री जी के आदेश के अनुसार ‘सामाजिक समरसता’ दिन इस नाते इसको हम मना रहे है । बालासाहेब का पूरा जीवन हमारे सामने है । His life was an open book कई नेताओं का जीवन इतना open नही रहता । बालासाहब का जीवन open book जैसा जीवन रहा । जीवन के अंतिम चरण में विकलांग अवस्था के कारण उनको कितनी असुविधा बर्दाश्त करनी पडी, कष्ट बर्दाश्त करने पडे, हममे से बहुत लोगों ने उनका दर्शन करते हुए यह आखों से देखा है । कई वर्ष तक वो विकलांग थे किन्तु इसके कारण एक भ्रांति जिन्होने उनको नजदीक से देखा नही उनको मन में रही कि विकलांग है, अब कुछ काम काम नही कर सकते । निरूपयोगी हो गये ऐसी भ्रांति अपरिचित लोगों के मन में हो सकती थी । वह गलत थी । भीष्म पितामह सरशैय्या पर थे, हलचल नही कर सकते थे किन्तु उस अवस्था में भी युधीष्ठर ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा ”धर्म और अधर्म इसका निर्णय कर लेना चाहता हूँ ” तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कहा इसका निर्णय करने के लिए अधिकारी पुरूष भीष्म पितामह ही है । मै तुमको उनके पास ले जाता हूँ । ठीक यही अवस्था जब सरशैय्या पर बालासाहब थे, हलचल नही कर सकते थे तो भी सभी को मार्गदर्शन करना, सलाह देना, सभी की बाते सुनना ये सारा कार्य उनका चल रहा था । शरीर विकल था, बुद्धी विकल नही थी यही विशेषता थी । Intellectual capacity, memory intact थी और इसके कारण कोई भी समस्या लेकर भी जाता था, उसका उचित मार्गदर्शन करते थे । कोई भी मिलने को आया तो उसको ठीक ढंग से पहचानते थे । उसके बारे में, उसके परिवार के बारे में, उसकी शाखा के बारे में पूछते थे । सारे समाचार पत्र, जो भी उपलब्ध थे, हर दिन पढ़वा लेते थे । टी. वी. पर आधुनिक समाचार क्या है यह भी बारीकी से देखते थे । राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्र में क्या हो रहा है, इसका इनका निरीक्षण बराबर चलता था । sharp Intellect, sharp memory आखिर तक थी । बिलकुल अंतिम चरण तक थी । और इसी कारण राजनैतिक क्षेत्र में क्या उथल-पुथल हो रही है, सामाजिक क्षेत्र में क्या गलत बाते हो रही है सभी बातों का उनका निरीक्षण रहता था । और इस दृष्टि से मार्गदर्शक के नाते भीष्म पितामह के समान उनकी भूमिका हमेशा रहती थी ।
संघ के कार्यकर्ता, इतना ही नही तो स्वयंसेवकों द्वारा चलाई जा रही विभिन्न संस्थाएं उनके कार्यकर्त्ता को भी मार्गदर्शन करने का काम उस विकलांग अवस्था में भी उन्होने किया यह एक उल्लेखनीय बात है । उनकी सारी उत्कृष्ट भावनाएँ संघ के स्वयंसेवक के नाते, सर संघचालक के नाते , उस विकलांग अवस्था में भी यथापूर्व कायम थी । वे हमेशा स्वयंसेवक की ओर अपने पुत्र के जैसे देखते थे । पितृतुल्य भावना उनके मन में थी । कुछ लोगों ने ऐसा कहा की भई इनकी मृत्यु हुई तो उनको बड़ा शोक हुआ । स्वयंसेवकों पर कोई भी आपति आती है तो उनका दिल दर्द करता था और इसलिये सबको आश्चर्य हुआ की जिस समय कार्यालय के एक कमरे से दूसरे कमरे में जाना wheel chair पर भी कठिन लगता था, ऐसे समय जब उन्होने पढ़ा की मद्रास में अपने संघ के कार्यालय में Bomb Blast हुआ है, हमारे कुछ स्वयंसेवक हत और आहत हुए है, उनसे रहा नही गया और आखिर में डॉ. के Advice के विरूद्ध जाते हुए हर तरह की “रिस्क” लेते हुए वो उस अवस्था में भी मद्रास गये । जिनकी मृत्यु हो गयी थी ऐसे लोगों के परिवार जनों को स्वयं व्यक्तिगत रूप से मिले । जो आहत हुए थे, घायल हुए थे, उनको सांत्वना दी और वे फिर वापस आये ऐसी अवस्था में भी एक कमरे से दूसरे कमरे में जाना उनके लिये कठिन था । इतना साहस उन्होने दिखाया इतनी ताकत उन्होने जुटाई तो सभी स्वयंसेवको के बारे मे कितना प्रेम कितनी पितृतुल्य आत्मीयता, एकात्मता उनके मन में थी । यह विकलांग अवस्था में भी उनका दर्शन हम लोगों ने किया ।
जीवित अवस्था में उन्होने जो कार्य किया वह हमारे सामने है । लेकिन विशेष रूप से मैंने इसका उल्लेख इसलिए किया कि बहुत लोगों के मन में भ्रांति देखी थी कि एक बार विकलांग होने के बाद, कार्य के लिए उनका मार्गदर्शन, योगदान नहीं रहा , ऐसी बात नही थी । विकलांग अवस्था में भी उनका योगदान था, आखिर तक यह योगदान रहा यह कहने की प्रमख बात थी ।
वैसे उनके जीवन के बारे में पिछले एक माह में बहुत कुछ कहा गया है, बहुत कुछ लिखा गया है । इसके कारण कोई नई बात बताने की है ऐसा मै नहीं समझता । देवरस परिवार यह आंध्र प्रदेश का है, महाराष्ट्र का नही । आंध्र-प्रदेश में चंद्रपुर के मार्ग से, वाया चंद्रपुर कई तेलगु परिवार नागपुर में आये । हेगडेवार परिवार उसी में था । बापूजी अणे उसमें थे । बाल शास्त्री हरदास का परिवार था । कन्नमवार का परिवार था । कई तेलगू परिवार वाया चंद्रपुर, नागपुर में आये, उसी मे से देवरस जी का परिवार था । उनका पहला नाम देवराजू ऐसा था । नागपुर में स्थायी होने के बाद देवराजू का मराठी करण देवरस हो गया । आचार्य विनोबा भावे जो शाब्दिक श्लेष करने में चतुर थे वह हम लोगों से कहते थे कि देवरस का अर्थ तुम नही समझते । सभी देवताओ का रस निकालकर जो तैयार हुआ वह तुम्हारा देवरस है । विनोबा भावे ऐसा शाब्दिक श्लेष करते थे । उनके पिताजी बहुत धार्मिक थे, कर्मठ थे । नागपुर में मोती बाबा जामदार करके एक श्रेष्ठ संत थे । जिनको दत अवतार कहा जाता था । उनके भक्त थे । उनकी माताजी, वह भी बहुत धार्मिक थी और प्रमुख बात यह थी कि बहुत कर्मठ और एक तरह से व्रती उनको कहना, यह ठीक होगा । ऐसा उनका व्यवहार था । परिवार में गृहिणी के नाते उनको ही सब काम करने पड़ते थे किन्तु किसी शारीरिक न्यून या बीमारी के कारण Medical Advice था कि उन्होने केवल छाछ पर जीवित रहना और कुछ लेना ही नही, केवल छाछ! दिन में, सुबह, रात को केवल छाछ । तो जीवन का आधे से अधिक हिस्सा बालासाहब की माता जी ने केवल छाछ पीकर बिताया और उसी अवस्था में घर का भी तो सब काम करती थी और हम बच्चे थे तो हम लोगों को आश्चर्य होता था कि इधर पूरण पोली, वडा ऐसे सारे भोजन के पदार्थ वह बनाती थी । सब लोगों को परोसती थी और स्वयं केवल छाछ पीकर रहती थी । इसमें उनका जो संयम है, व्रती जीवन है उसका परिचय उस समय भी हम लोगो को होता था । ऐसा उनकी माताजी का स्वभाव था । बालासाहब के मन में माता जी के बारे में बहुत ही प्रेम आदर था । आखिरी बीमारी में उन्होने अपने माताजी का बक्सा, माताजी का फोटो, उनका जो गांव है, आमगांव कारंजा, वहाँ से मंगवाया था और इसका कारण बालासाहब के जीवन में माताजी का योगदान भी महत्वपूर्ण रहा । सूझबूझ आने के बाद या सूझ बूझ आते ही बालासाहब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रविष्ठ हुए और उन्होनें संघ के वायुमंडल के अनुकूल माताजी से कहा की मेरे साथ भोजन के लिए सभी जाति के लोग आयेंगे । दलित भी आयेंगे । उस समय मै यह नहीं सुनूंगा की ये दलित हैं तो मेरे रसोई घर में रोटी नही खा सकता । मेरे साथ बैठकर खायेगे । रसोई घर में बैठकर रोटी खाएंगे । माता जी ने कहा मेरी ओर से काई आपत्ति नही है । उन दिनों में आप कल्पना कीजिए जब वे बाल स्वयंसेवक थे । उन दिनों में orthodoxy इतनी प्रबल थी की जहाँ माता पिता दोनो बहुत कर्मठ, वहाँ यह बाल स्वयंसेवक आग्रह करता है कि मेरे दलित बंधु भी मेरे साथ आयेंगे और रसोई घर में खाना खायेंगे । बाहर नही । तो माताजी ने यह बात स्वीकार कर ली । यह एक अनोखी बात उन दिनों मानी गयी थी । सामाजिक समता परिषद् सामाजिक मंच आदि बातें तो सब नयी है । मै तो समझता हूँ उनके बाल्य अवस्था से ही यह सामाजिक समरसता का प्रांरभ उनके रसोई घर से उन्होने किया था और माताजी के सहयोग के कारण यह हो सका । इस तरह की माताजी भगवान की दया से उनके लिए उपलब्ध थी वह हमारे लिये भी एक सौभाग्य की बात थी । जब से सूझ-बूझ आयी तब से शाखा में शामिल हुए कुश पथक यह बाल स्वयंसेवकों का पथक उन दिनों में बहुत ही प्रसिद्ध था । प. पू. डॉक्टर जी का विशेष ध्यान कुश पथक के स्वयंसेवकों पर रहता था । बहुत आशाएँ उन्होंने लगायी थी और कुश पथक में से सभी वैसे ही स्वयंसेवक, कार्यकर्ता निर्माण हुए, जिन्होने डॉक्टर साहब की आशा फलीभूत करने का प्रयास किया । वहाँ से धीरे-धीरे संघ के कार्य में उनकी प्रगति हुई । संघ के बारे में आप जानते है कि संघ में हर एक को रगड़ में से जाना पड़ता है ऐसा नहीं होता की अच्छा भाषण देता है तो उसको अधिकारी बना दो, ऐसा नहीं होता । जो संघ की रगड़ है, स्वयंसेवक, गटनायक, शिक्षक, मुख्य शिक्षक, प्रचारक, जिला-प्रचारक, विभाग-प्रचारक, या कार्यवाह, जि. कार्यवाह, विभाग-कार्यवाह, एक रगड़ मे से हर एक को जाना पड़ता हैं । तो सभी तरह के काम करते करते उन्होने संघ कार्य में प्रगति की । जिस विभाग में उनका जन्म हुआ, उनका मकान जिस विभाग में था वह विभाग पुराने नागपुर में था । नागपुर के हम दो हिस्से उन दिनों में मानते थे । जो ब्रीज है, ब्रीज के उधर का नागपुर, याने Modern इधर का याने पुराना । तो पुराने नागपुर में उनका मकान था और इसके कारण तथा कथित पिछड़ी जातीयों, तथा कथित दलित जातीयाँ, ऐसे लोग उनके अगल बगल में रहते थे । तो सारा वायुमंडल ऐसा था । शाखा पर भी दलित और पिछड़े लोगों की संख्या अच्छी रहती थी । उन सब को लेना, संम्भालना, संस्कार देना यह काम करना पड़ता था और वह भाषण से नहीं करते थे ।
संघ कार्य के बारे में आप जानते है कि संघस्थान पर आना पड़ता है । संघस्थान कहाँ मिलेगा? पहला ही संघस्थान बालासाहब को ऐसा मिला की एक टूटा हुआ मकान, खंडहर, उसके सामने मैदान ऐसा ही पड़ा था । कोई उपयोग नही लेता था जो केवल खंडहर था, तो सुबह शाम को लोग प्रातविधी के लिये उसका उपयोग करते थे । इसके कारण वहा गंदगी रहती थी । वहाँ शाखा लगाने का सोचा तो वह गंदगी दूर करने का काम पहले करना पड़ा और दूसरे लोगों को कहने के पहले स्वयं बालासाहब सामने हो गये । उन्होने वह गंदगी अपने हाथ से उठायी, बाकी फिर स्वयंसेवकों ने यह काम पूरा किया । तो यहाँ ऐसे छोटे छोटे कामों से लेकर सबके साथ खेलना कबड्डी बहुत अच्छा खेलते थे- सबके साथ खेलना एक Sprit सभी लोगो में रह सके इस तरह से शाखा चलाना, होते होते नागपूर कार्यवाह तक उनकी प्रगती हुई और नागपूर कार्यवाह के नाते जितने भी कार्य आवश्यक थे वो बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से उन्होने किये । विभिन्न शाखाओं से संबंध, हर एक कार्यकर्ता को बराबर देखना, कौन कार्यकर्ता है, कैसा है? उसका स्वभाव कैसा है? दोनो के बारे मे Equations कैसे है ये सारा देखना, कार्यकर्ताओं को संस्कारित करना और विशेष बात कि सारे जो कार्यक्रम होते है, जैसे संघ शिक्षा वर्ग है उसकी व्यवस्था । शीत शिविर है उसकी व्यवस्था । उन दिनों शीत शिविर की व्यवस्था याने सारे शारीरिक कार्य स्वयंसेवक को ही करने है इस तरह की व्यवस्था थी । बिल्कुल तंबू ठोकने से लेकर सभी काम स्वयंसेवक करते थे । उसमें पहल करने का काम स्वयं बालासाहब करते थे । जिसके कारण बाकी लोगों को प्रेरणा और प्रोत्साहन मिलता था । इस तरह के सभी कार्य नागपुर कार्यवाहक के नाते उन्होने किये । इतना ही नहीं तो कार्यवाह तो नागपुर के थे लेकिन नागपुर यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का केन्द्र है, उसका एक विशेष जिम्मेदारी है ऐसा प. पू. डॉक्टर जी कहते थे । उसके अनुसार नागपुर में रहते हुए बाकी देश मे प्रचार कार्य करने के लिए कार्यकर्ताओं को, प्रचारकों को निकालना ये महत्वपूर्ण कार्य अच्छी संख्या में बालासाहब ने किया और नागपुर के बाहर भी जब संघ शिक्षा वर्ग शुरू हुए तब वहाँ प्रारंभिक दिनों में मुख्य शिक्षक भेजना, वह भी नागपुर से ही भेजे जाते थे । तो संघ शिक्षा वर्ग में मुख्य शिक्षक, शिक्षकों को भेजना और प्रचारक के रूप में काम करने के लिये लोगों को Motivate करना इस तरह, नागपुर में रहते हुए संपूर्ण देश में कैसे यह कार्य का वटवृक्ष किस तरह से फैलेगा उसके लिए परिश्रम करना उनका काम रहा ।
प. पू. डॉक्टर जी के समय ही प. पू. श्रीगुरूजी का संघ में प्रवेश हुआ और ऐसा दिखता है कि डॉक्टर जी के मन में श्रीगुरूजी और बालासाहब इनके बारे में कुछ विशेष Equation होगा । जैसे सन् 1939 में कलकता में संघ कार्य शुरू करने के लिए श्रीगुरूजी को भेजा गया और थोडे ही दिन के बाद उनके सहायक के नाते बालासाहब को भेजा गया । तो दोनो के विषय में कुछ विशेष भावना डॉक्टर जी के मन में थी ऐसा स्पष्ट दिखता है और यह भावना का अनुभव दोनों करते थे । इसके कारण दोनों की जो परस्पर विषयक भावनाएँ थी ये बहुत ध्यान में रखने लायक थी ।
श्रीगुरूजी सर संघचालक हो गये बालासाहब कभी नागपुर कार्यवाह थे, कभी सह-सरकार्यवाह थे । बाद में सर-कार्यवाह बने लेकिन पहले नागपुर कार्यवाह और सह-सरकार्यवाह ही थे । उस समय भी बालासाहेब का जब उल्लेख होता था – तब श्रीगुरूजी कहते थे जिन्होंने डॉ. हेडगेवार जी को देखा नही ,उन्हे बालासाहब को देख लेना चाहिए, तो फिर उनके ख्याल में आयेगा की डॉक्टर जी कैसे थे । एक समय श्री गुरू जी तांगे में जा रहे थे । उनके सामने ही रास्ता दिखाने के लिये बालासाहेब चल रहे थे । तो स्वाभाविक रूप से गुरू जी के मुख से शब्द निकले कि असली सर-संघचालक तो पैदल रास्ते से जा रहे है और नकली सर-संघचालक हम तांगे में बैठकर जा रहे है । मजाक में लेकिन जो स्वाभाविक रूप से शब्द निकला । एक समय उन्होने कहा ‘ संघ के संविधान में एक समय दो सर-संघचालकों की नियुक्ति करने की गुंजाईश नहीं है । यदि होती तो फिर शायद आज की अवस्था नहीं होती । दो सर-संघचालक एकदम नहीं नियुक्त हो सकते इसलिए मै सर-संघचालक हूँ और ये सरकार्यवाह है ।‘ माने कितनी भावना उनके बारे में श्रीगुरूजी के मन में थी यह हम देख सकते है । उनकी भी भावना श्रीगुरूजी के बारे में जो थी वह भी देखने योग्य है । मासिक श्राद्ध के समय सर-संघचालक पद ग्रहण करते समय उनका जो भाषण हुआ उन्होने वर्णन करते हुए कहा उनके वाक्य थे – ‘Under his benign leadership, I was functioning as a manager’. श्रीगुरूजी उनको कितना उच्च पद देते थे और वे कहते थे , ” Under Guruji’s benign leadership I was functioning as a manager.” के नाते, organizer के नाते उनकी जो क्षमता थी वह विशेष थी ही किन्तु परस्पर संबंध कैसे थे यह एक देखने की बात है । हम जानते है की विविध कार्य स्वयंसेवको द्वारा चलाये गये । प्राय: श्री गुरू जी के कालखंड में ही शुरू हुए । बाद में भी कुछ शुरू हुए और भी कुछ शुरू होंगे । वह क्रम चलेगा क्योंकि यह तो Progressive unfoldment है । 1925 विजय दशमी के पूर्व ही प. पू. डॉक्टर जी ने संपूर्ण राष्ट्र पुनर्निर्माण की योजना बनायी थी, किन्तु जिसको प्रकाशित नहीं किया जो उनकी पद्धति थी । आजकल तो पद्धति नयी है कि एकदम 5 लोग भी पार्टी Form कर लेते है Manifesto Publish कर देते है कि दुनिया की सुर शक्ल कैसे सुधारने वाले है । ब्रह्माण्ड की सुर शक्ल कैसे दुरूस्त करने वाले है । डॉक्टर जी की कार्य शैली दूसरी थी । रघुवंश के राजाओं के बारे में कहा गया है की फलानुमेय: प्रारंभ: । माने किसी भी बडे काम का प्रारंभ करते थे तो पहले शोरगुल नही मचाते थे । उसकी Advertisement propaganda नही करते थे । शांत चित्त से कार्य का पारंभ करने देते थे । जब कार्य का फल आता है तो ”फलानुमेय: प्रांरभ:” । लोग अनुमान लगा सकते थे कि जो फल आया है तो इसका बीजारोपण कभी न कभी हुआ होगा । इस तरह से काम करने की डॉक्टर जी की शैली थी । इसके कारण तरह तरह की सारी योजनाएँ उनके मन में रहती थी । तो भी उन्होने इस तरह Manifesto नही दिया । किन्तु आज जितना हम देखते हैं मूल योजना की ही यह Progressive unfoldment है । उत्तरोत्तर होने वाला यह प्रस्फुटीकरण है । तो तरह तरह की संस्थाएं जो निर्माण हुई थी अब इसमें गुरूजी और बालासाहब का ऐसा कुछ Joint था । उदाहरण के लिये दादासाहब आपटे बहुत साल U.P. उस समय United Press करके थी, बाद में उसको U.N.I. बनाया गया । उसमें उन्होने काम किया । पत्रकारिता क्षेत्र में जाना है यह सोचा था, सभी क्षेत्र में जाना है यह पहले से ही सोचा था । संघ कुछ नही करेगा, संघ स्वयंसेवक सब कुछ करेंगे । संघ केवल संपर्क, स्वयंसेवक, संगठन यही तक अपनी सीमा रखेगा । किंतु संघ से प्रेरणा और संस्कार प्राप्त किये हुए स्वयंसेवक व्यक्तिगत रूप से राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश करेंगे और वहाँ संघ के आदर्शों के अनुकूल कार्य की रचना और विकास करेंगे । यह विजय दशमी 1925 में सोचा गया था । उसके अनुसार जैसे जैसे संघ की शक्ति बढ़ती गयी वैसे वैसे अन्य अन्य क्षेत्रों में प्रवेश करना शुरू हो गया । तो दादासाहब आपटे की कुछ Apprenticeship United Press में हुई थी । उनके साथ श्रीगुरूजी की बातचीत हुई । अपनी भी देशी भाषाओं को लेकर ‘News agency’ होनी चाहिए । ”हिन्दुस्थान समाचार” का विचार हुआ । जैसे वह विचार तय हुआ तो उसको ठीक ढंग से क्रियान्वित करना, उसके लिए उपयुक्त व्यक्ति कौन है , उनको locate करना motivate करना उनकी team बनाना । दादासाहब आपटे थे, बापूराव महाशब्दे, बापूराव लेले।, जी.आर. माधवराव, नारायणराव तरके, वसंतराव देशपांडे और आखिर तक जिन्होनें यह काम चलाया वह बालेश्वर जी अग्रवाल यह सारी जो team बनी, वह बनाने का काम बालासाहब ने किया । जैसे वनवासी कल्याण आश्रम, प्रेरणा गुरू जी की थी । बालासाहब देशपांडे जसपुर में वकालत करते थे । उनको वनवासियों में काम करने की प्रेरणा दी, किन्तु जैसे वह काम बढा, जो केवल जसपुर तक सीमित था । तो फिर उसको अखिल भारतीय स्वरूप देना चाहिए यह प्रेरणा बालासाहब ने दी और उसका अखिल भारतीय स्वरूप होना चाहिए इसलिए जो -जो सहायता संघ की ओर से होनी चाहिए वह देने की व्यवस्था भी की और उस कार्य से इतनी एकात्मता थी, जैसे मैने मद्रास का उदाहरण दिया, एक बडे सम्मेलन की योजना, वनवासी कल्याण आश्रम की, एक बिहार के गुमला में और एक बस्तर में हो गयी । सम्मेलन की योजना हुई इस समय बालासाहेब की तबीयत ठीक थी । योजना होने के बाद प्रत्यक्ष सम्मेलन के समय उनकी तबीयत बहुत खराब हो गयी उनके लिये चलना फिरना भी असंभव हो गया । फिर भी लोगों का विरोध न मानते हुए आग्रह पूर्वक गुमला में और बस्तर में वो स्वयं गये । वनवासी लोगो ने देखा की कितने कष्ट उठाते हुए सरसंघचालक हमारे बीच में आ रहे है । एक कृतज्ञता का भाव उनके मन में था । तो योजना बनाना, जनरल मार्गदर्शन -क्रियान्वयन करने का काम इसी तरह उनका चलता था । विशेष रूप से हम जानते है कि संघ कार्य में हमेशा एक समस्या रहती है ,आगे भी रहेगी और ये समस्या ये है ,और वह सच भी है कि संघ कार्य परिस्थिति निरपेक्ष है । संघ कार्य परिस्थिति निरपेक्ष है किन्तु स्वयंसेवक का मन यह परिस्थिति सापेक्ष रहता ही है । संघ कार्य परिस्थिति निरपेक्ष है, लेकिन स्वयंसेवक का मन परिस्थिति सापेक्ष है और इसके कारण बाह्यय परिस्थिति का परिणाम कम अधिक मात्रा में विभिन्न लोगों पर होता है ।
इसके कारण स्वयंसेवको की मानसिकता क्या है, जिसका ज्ञान केंद्र को रहना, केंद्र का विचार क्या है इसकी जानकारी स्वयंसेवको तक पहुंचाना यह ‘Two way communication ‘ बहुत आवश्यक होता है । यह रास्ता बालासाहब ने खोला । मुझे स्मरण है कि पहला ही प्रयोग 1945 में जब बहुत खलबली स्वयंसेवकों के मन में थी, कई तरह तरह के विचार मन मे थे -कार्यपद्धति के बारे में खासकर तो उन्होने नागपुर में जो राजाबाग मारूति मंदिर है, उसके प्रांगण में दिनभर का कार्यक्रम रखा । एक दिन में और कुछ नही , प.पू. गुरूजी ने बैठना ओर नागपुर के सभी कार्यकर्ता एकत्रित थे और उन्होने मुक्तचिंतन करना । जो भी विचार मन में हो वहां संकोच की बात नही थी, आदर के, मर्यादा के कारण कम बोलना ऐसी भी बात नही थी । जो विचार जिसके मन में आयेगा वो बोलेगा । पूरे दिन यह कार्यक्रम चला और कोई बात नही थी और फिर दूसरे सप्ताह में मा. बाबासाहब घटाटे के यहाँ बैठक हुई और वही लोग, और फिर जो जो बोला गया था उसके बारे में सरसंघचालक के नाते क्या प्रतिक्रिया है वह श्री गुरूजी ने उस समय प्रकट किया ।‘Two way communication ‘की प्रकट पद्धति बालासाहब ने शुरू की । उसी का अधिक विस्तृत स्वरूप सिंदी के जिला प्रचारकों के वर्ग में, इंदौर के विभाग प्रचारकों के वर्ग में, ठाणे में नवंबर 1972 मे वर्ग हुआ उसमें इसी का विस्तृत स्वरूप हम देख सके और इसके कारण इस तरह से केंद्र के मानस की जानकारी नीचे के स्वयंसेवक तक और नीचे के स्वयंसेवक की मानसिकता केंद्र तक -पहुंचाने की व्यवस्था भी बालासाहब की कुशलता की योजना के कारण हो सकी ।
हमारे विजय गिरकर जी ने उल्लेख किया था कि तरह तरह से कुछ लोग जानबूझकर गलतफहमी फैलाते है । जैसे श्री गुरू जी के समय कहते थे, कि डॉक्टर जी का संघ अलग था, श्री गुरूजी का संघ अलग था और आगे कहा की गुरूजी का संघ अलग था, बालासाहब का संघ अलग था । माने समझते दोनो को नहीं । लेकिन जानबूझ कर बुद्धिभेद करने का प्रयास होता है । वो लोग नही जानते कि कितने उनके घनिष्ठ संबंध थे । आखिरी दिनों में Ban (प्रतिबंध) के समय द्वारका प्रसाद जी मिश्र इनको जवाहरलाल जी ने नागपुर भेजा । श्री गुरू जी सिंदी के जेल में थे, बालासाहब आदि बाहर थे । उनके साथ मिश्रा जी की बैठक हुई । मिश्रा जी ने कहा की जवाहरलाल जी ने तय किया है कि Ban (प्रतिबंध) उठाना है । केवल उसके लिए श्री गुरू जी ने, केवल नेहरू जी के नाम पत्र देना चाहिये कि Ban (प्रतिबंध) उठाये । तो बालासाहब ने कहा- नही, इतने दिन का हमारा अनुभव ऐसा है जिसके कारण आपके शब्द पर हमारा विश्वास नही । श्री गुरू जी ऐसा कोई पत्र नही लिखने वाले । मिश्रा जी ने कहा आप केवल पत्र लिखिये, Ban (प्रतिबंध) उठने वाला है, मैं आश्वासन देता हूँ । बालासाहब ने कहा कि नेहरू जी के नाम श्री गुरू जी यह पत्र नही लिखेगें । फिर मिश्रा जी ने compromise निकाला की श्री गुरूजी ने नेहरू जी के नाम पत्र नही लिखें, किंतु मध्यस्थता करने वाले पं. मौलीचंद्र शर्मा इनके नाम Private पत्र देना । इसके आधार पर Ban (प्रतिबंध) उठाने का काम होगा और ऐसा ही हुआ । आखिरी जो पत्र था श्री गुरूजी का, नेहरू जी को नही था, Private letter to पं. मौलीचंद्र को शर्मा था और उसी के आधार पर Ban (प्रतिबंध) उठाने काम हुआ । किन्तु ये जब मिश्रा जी से बात हुई तब श्री गुरूजी तो सिंदी में थे । लोगो के साथ उनका Communication नही था, लोगो का जाना आना नही था । किन्तु जब मौलीचंद्र गये तो पत्र का content सीलबंद करके उनके पास दिया और उन्होन कहा कि इस पर आप को हस्ताक्षर करना चाहिये । बालासाहब का जब यह पत्र देखा कि इस पर आपको हस्ताक्षर करना चाहिये, गुरू जी ने तुरन्त हस्ताक्षर कर दिया वो Private letter to मौलीचंद्र शर्मा , इनके आधार पर बाद में Ban (प्रतिबंध) हटाया गया । माने इतना विश्वास ।
इनके परस्पर संबंधों के बारे में, खासकर जिन्होने गलतफहमी फैलाना अपना धर्म माना है कितनी बात कही है । कितनी परस्पर आत्मीयता थी उनकी, इसका केवल एक उदाहरण मै देना चाहता हू । शायद बाहर के लोगो को इतना मालूम नहीं । बहुत ही मार्मिक ऐसा यह प्रसंग है । गांधी हत्या हुई, शासन ने जानबूझकर संघ के बारे में गलतफहमी फैलाई जो राजनैतिक तत्व संघ को बदनाम करना चाहते थे । उन्होने उसका लाभ उठाया । जनता में क्षोभ पैदा किया गया । और फिर यह बात हुई की एक आदमी की हत्या हुई उसका बदला दूसरे आदमी की हत्या से होना चाहिये -खून का बदला खून से, हत्या का बदला हत्या से, ऐसा कहते हुए और ऐसे जो राजनेता थे बहुत बडे, वो Mob (भीड़) को लेकर प.पू. गुरूजी के मकान पर हमला करने के लिए आए । मकान छोटा था बालासाहब ने पहले ही व्यवस्था कर दी थी । Mob (भीड़) आ रही देखा तो 40 दंडधारी स्वयंसेवको को अंदर रखा था । किंन्तु Mob (भीड) इतना बडा था कि इतने Mob (भीड) के सामने 40 दंडधारी स्वयंसेवक कुछ नही कर पाते । इसलिये कई लोग गुरूजी से कहते थे आप यहाँ से सुरक्षित बाहर चले जाइये । बडा Mob (भीड़) है, यहा आप रहेंगे तो आपकी हत्या होगी । गुरू जी ने इन्कार कर दिया । उन्होने कहा की मेरी भूमिका ये है कि मै जिस हिंदु समाज के लिये काम करता हूँ वही हिंदु समाज यदि मुझे नही चाहता, मुझे मारना चाहता है, तो मुझे मारे । जो हिंदु समाज की इच्छा होगी वही हो । मै अपनी जान नही बचाऊंगा – अगर हिंदु समाज मेरी जान लेना चाहता है तो । कई लोग गये लेकिन गुरूजी हटने के लिए तैयार नही थे । बाहर Mob (भीड़) इकट्ठा हुआ था । मकान छोटा था । दरवाजा लकडी का था और वो भी पुरानी लकडी का दरवाजा था । आखिरी में दरवाजे को धक्के लगाना भी उन लोगों ने शुरू किया, गुरूजी मानने को तैयार नही थे । शायद उनके मन मे यही भावना थी की इस समय यहाँ आत्मार्पण करना यही सिद्धान्त के अनुकल है, ऐसा कुछ विचार होगा । आखिर में बालासाहब आये और बालासाहब ने उनको कहा आप हमारे सरसंघचालक है, हम आपके स्वयंसेवक है । सरसंघचालक के नाते आपके आदेश का पालन करना हमारा काम है । किन्तु स्वयंसेवक का भी स्वयंसेवक के नाते आप पर कुछ अधिकार है और उस अधिकार के नाते मै कहता हूँ कि आपको यहाँ से सुरक्षित बाहर जाना चाहिये । बाहर जाने के लिए रास्ता था । गुरू जी तैयार नही थे । मुझे इस समय बिल्कुल समानान्तर घटना का स्मरण हो रहा है, समानान्तर घटना! अपने इतिहास की! गुरू गोविंदसिंह जी चमकौर के दुर्ग में – उसको दुर्ग क्या कहा जाय उसको कच्ची गढी़ कहते है । बहुत थोडे़ लोगों के साथ थे । घेरे गए थे मुगल सेना से । मुगल सेना बहुत बडी़ थी । इतनी बडी सेना के साथ एकदम लड़ना भी संभव नही था किंतु जब घेराव हुआ तो पहले उन्होने अपने बडे पुत्र साहब जादा अजीतसिंह व बाद में पुत्र साहब जादा दूसरा जुझारसिंह दोनो को 10, 15 – 10, 15 लोग देकर लड़ने को गुरू गोविंदसिंह जी ने भेजा । अब लड़ने के लिए क्या भेजना था मरने के लिए ही भेजना था । स्पष्ट था जो जायेगा मरेगा ही । इतना होने के बाद 15-20 लोग गुरू गोविन्दसिंह जी के पास रहे फिर उन्होने कहा अब हम जायेंगे, उस समय शिष्यों ने कहा कि साहबजादा अजीतसिंह, साहबजादा जुझारसिंह उनका आत्मार्पण हुआ है । लेकिन आपकी बात दूसरी है आप हमारे नेता है आपने हमको सिखाया है कि ‘ ‘आप्पे गुरू आप्पे चेला । ” इस युक्ति के अनुसार अब हमारी बात मानना आपके लिए बाध्य हो जाएगा । आपको हमारी बात माननी चाहिये । आप सुरक्षित बाहर निकलिये । यह अपने लिये, देश के लिये आवश्यक है । ठीक यही बात जैसे बालासाहब ने कही स्वयंसेवक के नाते हमारो बात आप को माननी पडेगी । यही शिष्यों ने कहा ”आप्पे गुरू-आप्पे चेला” इसी उक्ति के अनुसार हम आपको कह रहे हैं और हमारी बात आप को माननी पडेगी । अपनी अनिच्छा होते हुए भी गुरू गोविंदसिंह जी ने शिष्यों की बात मान ली । वैसे ही अपनी अनिच्छा होते हुए भी श्री गुरू जी ने बालासाहब की बात मान ली और सुरक्षित बाहर आये, वरना हिंदुस्थान का ओर संघ का इतिहास बदल जाता । यह हम समझ सकते है दोनो में इतना परस्पर संबंध था ।लेकिन लोगों ने उसको तरह तरह के रंग दिये !
जैसे उन्होने कहा ‘Under his benign leadership, I was functioning as a manager’. वारत्तव में “Sceience ofManagement की शिक्षा दीक्षा न लेते हुए जन्मजात वो Manager थे, जन्मजात । बचपन में शाखा में तो Management करना ही पडता था । एक Philonthrophist डॉ चोलकर उन्होने नागपुर में अनाथ विद्यार्थी गृह निकाला । यह अनाथ विद्यार्थी गृह पुराने नागपुर में था । तो अनाथ विद्यार्थी गृह में स्वाभाविक रूप से उस पुराने नागपुर के दलित और पिछडी जाति के अनाथ विद्यार्थी ही आते थे । उन्होने वसतिगृह तो निकाला था । प.पू.डॉक्टर जी को उन्होने कहा की कोई अच्छा compitent आदमी दीजिये कि वो वसतिगृह की Management कर सकेगा और कैसी Management करना उसकी व्यवस्था लगा देगा । बालासाहब की वहाँ योजना हुई । 2 साल तक उन्होने ठीक ढंग से व्यवस्था की, अनुशासन बद्ध व्यवस्था की । उसी समय उनका बाकी दलित और पिछडे हुए लोगो के साथ संबंध आया । अच्छी Management इस नाते डॉ. चोलकर जी ने भी उनकी बहुत प्रशंसा की । आपको आश्चर्य होगा, बहुत लोगो को शायद यह पता नही है,१९४५,४६,४७ में उन्होन एक स्टार्स भी चलाया था’ भारत स्टोर्स ‘करके । मा. मनोहरराव ओक उनके सहयोगी रहे । भारत स्टोर्स की व्यवरथा तो business Management थी, Regular Management वो भी Management बहुत Efficiently वे कर सके ।
वैसे बहुत लोगों को ये पता नही होगा की उनकी पैतृक खेती थी, कृषि थी । बालाघाट जिले में कारंजा के पास आमगाव करके गांव है वहाँ थी । तो उन्होने सोचा कि प्रयोग के नाते मैं स्वय कृषि करूगा । और उस समय का उनका अनुभव है एक आदर्श कृषक इस नाते उन्होने काम किया और उन्होने उस समय कहा – जब बाकी कृषकों के सामने तो यह बात बहुत बाद में आयी तब उन्होने कहा कि- कृषको को जो कीमते मिलती है वो ठीक नही है । हमारे यहां हर तीन चार साल में एक बार अकाल आता है । माने दो साल में उसको इतनी कमाई करनी पडती है कि तीसरे साल भी इस पर या उस पर गुजारा कर सके । यह ध्यान में रखकर कृषि उपज का मूल्य तय होना चाहिये । यह बात उन्होने उस समय कही कि जिस समय यह बात उस हवा में नही थी और दूसरी बात उनके साथी किसान उनसे नाराज थे । क्योंकि उनके यहाँ काम करने वाले खेतीहर मजदूर और कारीगरों को वे पूरी रोजी देते थे । लोगो ने विरोध किया कि आप पूरी रोजी देते हैं, इसलिए हमारी Position खराब होती है आप पूरी रोजी देते है तो हमको भी देनी पडेगी । तो बालासाहब ने कहा आप भी दीजिये । ये तो न्याय की बात है । तो वो बोले हम नही दे सकते । बालासाहब ने कहा मत दीजिये मैं मेरा क्रम बंद नही करूंगा । मैं खेतीहर मजदूर और कारीगरो को पूरी रोजी दूँगा । ये उन्होन चलाया । इतना होते हुए भी उनकी कृषि एक आदर्श कृषि के नाते रही । तो वहा की भी Management उन्होन बहुत ही अच्छे ढंग से चलाई थी ।
विशेष रूप से जब तरूण भारत, यह पेपर खरीदा गया तो वह तो उनकी परीक्षा ही थी । उनके ही उपर भरोसा रखकर संघ के लोगो ने तय किया था कि पेपर खरीदेंगे । क्योंकि पेपर के संपादक और Management के जो लोग थे वो सब कांग्रेस के लिए अनुकूल, ऐसे थे । संघ के लिए कुछ तो विरोधी, कुछ प्रतिकूल, कुछ कम से कम अनुकूल ऐसे लोग थे और सीधा रास्ता जो होता है जो प्राय: होता है जब Management Change होती है, कि पुराने लोगो को हटाना, नये अपने लोग लाना । वो भी नही करना ऐसा बालासाहब ने तय किया ।और पुराना जो स्टाफ था, संपादकीय जिसमें सामान्य लोग नही थे । भाऊसाहेब माडखोलकर, तात्यासाहेब करकरे, श्री पटवर्धन, गोविंदराव गोखले, यशवंतराव शास्त्री, मानो Each one of them was great in his own right in field of journalism ऐसे लोग जो संघ के लिए विरोधी या प्रतिकूल थे ऐसे वायुमंडल से वह पेपर लेकर आये, इनको बदला नही लेकिन उनके ऊपर प्रेशर भी नही डाला । जब कभी समय मिलता था, तरूण भारत में जाते थे । इन लोगों के साथ बराबरी के नाते बातचीत करते थे, बार बार जाते थे । सब लोगो के मन में apprehention था, आशंका थी ,ये संघ का है यहाँ डिक्टेटर शिप होगी । परंतु उनको आश्चर्य हुआ की बालासाहब 2-2, 3-3 घंटे उनके साथ बातचीत चाय पान, नाश्ता करते थे और ऐसे stalwards में, पुराने लोगों में उन्होने इतना परिवर्तन लाया जिसके कारण तरूण भारत अपने लिए अनुकूल इस ढंग से काम कर सके । इस बीच ”समचार पत्रो की Management” इस विषय को उन्होने पूरी तरह से हस्तगत किया और इसक कारण वो बता भी सकते थे, कि कोई पत्र निकालना है तो कैसे निकालना यह सलाह दे सकते थे ।
उदाहरण के लिये दिल्ली में जब लोगो ने सोचा की र Motherland ये दैनिक पत्रक निकालना चाहिये । तो पहले उन्होने warning दी पत्रक निकालिये, आज आपके पास Finance है ठीक है लेकिन पत्र का Model क्या रहे यह तय करें । उन्होन कहा Model का मतलब ? तो बालासाहब ने कहा Mother land का Model नागपुर टाइम्स का होना चाहिये । Indian Express, Times of India या हिंदुस्थान टाइम्स ये Model लेकर आप मत चलिये । किन्तु दिल्ली पंजाब का उत्साह था, उस समय उन्होने दूसरा Model लिया और Mother land बंद करना पडा ये हम जानते है । तो Science of Management इस नाते उनकी एक विशेषता हर जगह दिखाई देती है और इस दृष्टि से उन्होन कहा कि “ Under His Benign leadership I was functioning as a manager “ बिलकुल सही है ।
राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रो पर उनका ध्यान था । सभी क्षेत्रों पर और हर क्षेत्र में जहां जहां आवश्यकता स्वयंसेवको को होती थी वो सहायता करते थे । वो जानते थे की राजनैतिक क्षेत्र का महत्व है और इस दृष्टि से जैसे विद्यार्थी क्षेत्र में, मजदूर क्षेत्र में, किसान क्षेत्र में वैसे राजनैतिक क्षेत्र में भी अपने स्वयंसेवक संघ की नीति-रीति पद्धति, आदर्श लेकर काम करे और एक Model Political पार्टी बनाकर लोगों के सामने उपस्थित करे । ये उनका प्रयास रहा और खासकर ये सब जानते हैं , कि जब आपातकाल आया उस समय बाकी सारे राजनैतिक दल निष्प्रभ हो गये थे । सारे निष्प्रभ हो गये थे । उस समय RSS had to bear the brunt उस समय जो R S S ने किया इसके कारण कुछ क्षण के लिए सभी राजनेताओं ने संघ की बडी प्रशंसा की, संघ के बारे में कृतज्ञता प्रगट की, किन्तु कृतज्ञता का भाव ज्यादा दिन तक मन में रखना ये राजनैतिक नेतृत्व का स्वभाव नही है इसके कारण वो बात बाद में भूल गये । किन्तु उस समय सभी ने प्रशंसा और कृतज्ञता भाव प्रकट किया था । वो सारा जो आपातकालीन संघर्ष था इसका सारा संचालन येरवडा जेल में रहते हुए बालासाहब करते थे । जो बाहर थे उनके साथ दिन प्रतिदिन उनका संपर्क रहता था । बाहर क्या हो रहा है उसकी खबर उनको जेल में मिलती थी । उनका आदेश क्या है ये लोगो को हर दिन मालूम होता था और इस तरह से सारा संचालन उन्होन किया । येरवडा जेल में बाकी लोगों को भी बालासाहब का परिचय हुआ । विभिन्न दलों के लोग थे, नाम लेने की आवश्यकता नही वो भी व्यक्तिगत संपर्क में आये । मुसलमान लोग भी संपर्क में आये और सभी के मन ने बालासाहब के प्रति इप्ताा? फादर फिगर के नाते श्रद्धा हुई कि विभिन्न दलो के नेता भी बालासाहब के चरणस्पर्श करने लगे वापस जाते समय और मुसलमान लोग भी बालासाहब के चरणस्पर्श करने लगे और जेल के बाहर आने के बाद भी बालासाहब को मिलने को बहुत लोग आते थे किन्तु हिंदु मुसलमान एकता हो जायेगी तो हमारी मिनिस्टरशिप का क्या होगा ? ऐसी चिंता जिन लोगों के मन में थी उन लोगो ने यह भी व्यवस्था की, इस तरह का हिन्दू मुसलमानों का मिलन नही होना चाहिये । तो मुसलमानों में फिर से गलत फहमी फैलाने का काम राजनेताओं ने किया । किन्तु उन सब लोगों में बालासाहब के विषय में श्रद्धा का भाव था । यह उल्लेखनीय बात है ।
राजनीति का महत्व वो जानते थे । साथ ही साथ राजनीति की सीमाएं भी जानते थे । खराब लोग राजनीति में रहें उसकी तुलना में अच्छे लोग शासन में रहे तो देश का नुकसान नही होगा, यह भी जानते थे । अच्छे लोगो का शासन में लाना चाहिए यह भी समझते थे किन्तु साथ ही साथ राजसत्ता के द्वारा ही राष्ट्र निर्माण होगा यह उनका विश्वास नही था । राष्ट्र निर्माण जो होगा वह सामाजिक, सांस्कृतिक शक्ति के आधार पर होगा ऐसा वो मानते थे । और इसके कारण जहाँ लोकतंत्र के अस्तित्व का ही सवाल आया, जब लोकतंत्र ही खतरे में था उस समय 1977 के चुनाव में खुलेआम बालासाहब ने घोषणा की, कि लोकतंत्र को बचाने के लिए कांग्रेस के खिलाफ हमारे लोग काम करेंगे । उस समय जो चार्टर ओफ डिमाण्ड बताया गया था, उसमें हम क्यो लडाई लड़ रहे हैं, उसमें ये Clause नही था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का Ban (प्रतिबंध) हटना चाहिये । इसके लिए यहClause नही था । संघ का नाम नही था । संस्थागत अभिनिवेश की बात नही थी । Institutional Ego की बात नही थी । एक ही था कि लोकतंत्र को बचाना और लोकतंत्र को बचाया गया । तानाशाही खत्म हो गयी । जिनको शासन चलाना था, उनके हाथ में शासन की बागडौर चली जाये और फिर, फिर से लोगों को चेतावनी के रूप में बालासाहब ने कहा कि राजनीति, राजनैतिक सत्ता, इसका महत्व कितना है और संघ का उससे क्या संबंध है । तो जनता पार्टी शासन में आने के पश्चात् दिल्ली में जो Rallies हुई उन Rallies में बालासाहब ने स्पष्ट रूप से एक विषय रखा था । तीन बार बालासाहब ने यह विषय दिल्ली की Rallies में रखा । जनता पार्टी शासन में आने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुत्व इन शक्तिओं का मापदंड राजनैतिक नही हो सकता । वह मापदंड सामाजिक और सांस्कृतिक ही होना चाहिए । यह विषय तीन बार उन्होने सामने रखा । तो इस तरह से संतुलन था । राजनीति का महत्व भी जानना, साथ ही साथ उसकी सीमाएं जानना और राष्ट्र निर्माण का कार्य लोकशक्ति के आधार पर होगा राजशक्ति के आधार पर नही, यह सारी बाते संतुलित रीति से उन्होने लोगों के सामने रखी ।
जहाँ तक सामाजिक समरसता का प्रश्न है, यह बताना आवश्यक है कि, संघ की विचारशैली, कार्यशैली इसकी एक विशेषता है । जैसे मैने कहा कि विजय दशमी सन् 1925 को जो संघ की स्थापना हुई वह Reflex action नाते नही हुई । एक Reaction के रूप में नही हुई । सालों तक प.पू. डॉक्टर जी ने सोच विचार किया था । डॉक्टार जी का सभी समकालीन कार्यो से प्रत्यक्ष संबंध था । सभी देशी-विदेशी विचारधाराओं का गहन अध्ययन था । यह सारा करते हुए उनके मन में यह लगता था कि कुछ कमी है और वह क्या है? इसका गहन चिंतन सालो तक उन्होने किया । उसके बाद संघ की स्थापना हुई । उनको Bi-focal Vision हो गया था । Bi-focal Vision आप जानते है कि नीचे पढने का होता है, और ऊपर का दूर का देखने का होता है । तो उनका Bi-focalVision हो गया था । नीचे के चश्मे से दिखता था कि तात्कालिक लक्ष्य क्या है? Immediate Object वो स्वराज्य है और ऊपर के चश्मे से दिखता था कि
Ultimate Object क्या है ? अंतिम लक्ष्य क्या है? वो है ”परम् वैभवम् नेतु मेतत् स्वराष्ट्रम्” इस ढंग से कार्य की रचना थी और इस कार्य की रचना में सारी जो योजना थी बहुत लंबी योजना थी । आज एकदम लोग जो संरथाएं खडी करते है ऐसा नही था । गहन चिंतन का परिणाम था और इस दृष्टि से आगे क्या होगा इसका पूरा विचार डॉक्टर जी के सामने था । यहाँ वो सारा विषय लेने की आवश्यकता नही है और इस दृष्टि से जो भी नया नया कार्य बाहर के लोगों ने देखा तो कहा कि अब संघ के लोग राजनीतिक क्षेत्र में भी आए, मजदूर क्षेत्र में आए, और किसी क्षेत्र में आए ऐसा कहा । वास्तव में यह पूर्व योजना थी । जैसे जैसे Capital बढेगा वैसे वैसे दुकानो की संख्या बढेगी ।Capital के Intrestपर दुकानों की संख्या बढानी है । पहले से ही योजना थी और भी नयी नयी संस्थाएं हमारे स्वयंसेवक निर्माण करेगें, किन्तु पूर्व योजनानुसार यह सारा चला और यह सारा जो पूर्व योजना के अनुसार चल रहा तो इसमें एक शैली इस नाते, जैसे, मैने कहा ”फलानुमेय: प्रारंभ:” यह विचार शैली होने के कारण पहले से declare नही हुआ । सभी बाते आरंभ में थी । एकदम सारा Manifesto घोषित नही हुआ । धीरे धीरे प्रस्फुटीकरण हुआ । उसको Progressive unfoldment कहना चाहिए । Progressive unfoldment धीरे धीरे होता गया । उदाहरणार्थ गौ हत्या विरोध संघ के स्थापना के पूर्व ही से डॉक्टर जी को यह Article of faith था । संघ का तो था ही किन्तु उसको समय की आवश्यकता के , अनुसार विशेष आग्रह जिसको thrust कहते है, इस रूप में प.पू. श्री गुरूजी के कालखंड में आया । जो गौ हत्या विरोध आदोंलन हुआ । ”स्वदेशी” अभी स्वदेशी जागरण मंच के नाम से काम चल रहा है । किन्तु स्वदेशी का आग्रह पहले से ही रहा । यहाँ तक कि नागपुर में जो स्वदेशी भंडार चलता था वहां Counter पर बहुत समय तक डॉक्टर जी भी बैठते थे । पहले से ही स्वदेशी का आग्रह रहा, किन्तु विशेष आग्रह, thrust के रूप में परिस्थिति की आवश्यकता के अनुकूल इस समय स्वदेशी जागरण मंच के रूप में आया । वैसे, ही सामाजिक समरसता यह आरंभ से ही थी । जब मैने कहा बालासाहब बाल स्वयंसेवक थे उस समय अपने कर्मठ परिवार के रसोई घर में दलित स्वयंसेवक बंधुओं को ले जाते थे यह सामासिक समरसता छोड़ कर और क्या थी । स्वयं डॉक्टर जी के जीवन मे आता है । मेरे गांव में , आर्वी गांव में एक जरठ युवती का विवाह उस युवती के मामा ने पैसे की लालच में आकर तय किया था । डॉक्टर जी को पता चला उनको बात बर्दाश्त नही हुई । वो आए, उन्होने देखा कि वो विवाह नही होगा ,उन्होने वो तोडा़ और उसी युवती का विवाह दूसरे अनुरूप वर के साथ ,युवक के साथ उन्होने विवाह करवा दिया । उसकी प्रसिद्धी नही की, आजकल Modern Fashion जो है , Propaganda , Image building की, थोडा सा काम करना और बहुत प्रसिद्धी करना ऐसा नही । लेकिन यह जो है सामाजिक कुरीति का विरोध चाहे बाल विवाह रहे ,चाहे दहेज वाली प्रथा रहे, सभी बातों का ये मूल से विरोध है । किन्तु इसका एक Propaganda कुछ लोगों ने तो ऐसा किया कि Propagandaकरते जाना, काम कुछ नही करना । अपनी ऐसी पद्धति नही रही । सामाजिक समरसता पहले से ही थी ।. लोगो ने खासकर के महाराष्ट्र के, एक ऐसा वायुमंडल निर्माण किया और हमारे विजय गिरकर ने उसका उल्लेख भी किया कि गुरूजी और बालासाहब दो ध्रुव के समान एक बिलकुल Orthodox और एक बिलकुल Progressive गलत बात है । बहुत पहले 7 अक्टुबर 1945 को महाराष्ट्र में एक सुप्रसिद्ध अंतरजातीय विवाह हुआ । नवले- करपे ऐसा विवाह था । अंतरजातीय था । उस अंतरजातीय विवाह के लिए शुभेच्छा और आशीर्वाद भेजेने वालों में महात्मा गांधी और सावरकर जी के साथ श्री गुरूजी का भी शुभेच्छा संदेश उस विवाह के लिए था जो उन्होने ही सारा छपवाया था । 7 अक्टुबर 1945 की बात है । इतना है कि Progressive लोगों के समान उसका डिम-डिम बजाना अपनी पद्धति में नही है । तो सिद्धांत मूल से लेकिन परिस्थिति की आवश्यकता के अनुकूल और thrust के रूप में देना यह काम बालासाहब के समय हुआ और वो उन्होने बहुत ही सक्षमता के साथ किया यह हम जानते है । हम जानते है कि कठिन परिस्थिति में भी बालासाहब ने इतना संतुलन भी रखा और आग्रह भी छोडा नही । सवर्ण लोगों को बताया कि तुमने दशको तक – शतकों तक दलित बंधुओं के साथ अन्याय किया है । अत्याचार किया है और पहली बार जब वो आरक्षण का सवाल खडा़ हुआ था- अभी तो आरक्षण के सवाल ने केवल Political Character लिया है- पहली बार जब आरक्षण का सवाल खडा़ हुआ था उस समय उन्होने स्पष्ट कहा कि, आरक्षण के बारे में सोचते समय हर एक सवर्ण हिंदु के मन में यह कल्पना करनी चाहिए कि यदि उस दलित जाति में मेरा जन्म होता – जिस दलित जाति पर शतकों तक अन्याय हो रहा है- तो मेरी मन: स्थिति? क्या होती ? मेरी प्रतिक्रिया क्या होती ? यह कल्पना मन में करके फिर आरक्षण के प्रश्न पर विचार करो ऐसा उन्होने उस समय कहा । सभी सामाजिक प्रश्नों के बारे में अभी वसंत व्याख्यान माला का उनका जो भाषण है उसका भी उल्लेख हुआ । राष्ट्र सेविका समिति का अखिल भारतीय सम्मेलन नागपुर में था उस समय अंतरजातीय विवाह का उन्होने प्रतिपादन किया । दहेज वगैरह कुरीतियों के खिलाफ वो हमेशा बोलते रहे और सामाजिक समरसता यह विषय उनके मन में कितना था, सरसंघचालक बने Officially घोषित भी हुआ । प. पू. श्री गुरूजी ने लिखा था कि ततीय सरसंघचालक पद का ग्रहण करना तो मासिक श्राद्ध के समय वह होने वाला था । Official सरसंघचालक पद ग्रहण करने के लिए जाते समय मंच पर जाने के पहले महात्मा फूले इनकी प्रतिमा को पुष्पहार समर्पण किया, उनको वंदन किया और उनका आशीर्वाद लेकर मंच पर गये और फिर वहाँ उन्होनें सरसंघचालक पद का ग्रहण घोषित किया यह दिखता है कि किस तरह उनके मन में इस विषय में एकात्मता थी । यह एकात्मता ,जो- जो राष्ट्र पुरूष है, सबके मन में रही । अभी जो कहा विजय गिरकर ने डॉ. आम्बेडकर जी के बारे मे। पाश्चात्य देशों में सिद्धान्त त्रयी का बोलबाला है । Liberty , Equality, Fraternity स्वातंय, समता-बंधुता पू. डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने कहा कि मैं इन सिद्धान्त त्रयी को मानता हूँ । किन्तु ऐसा कोई न समझे कि मैनें ये सिद्धान्त त्रयी, फ्रेंच राज्य क्रांति से उठाई है , नही ! मेरी प्रेरणा फ्रेंच राज्य क्रांति से नही है, ये सिद्धान्त त्रयी मेरे गुरू भगवान बुद्ध से उठायी है और जहाँ तक पाश्चात्य देशों का सवाल है, पू. डॉ. अंबेडकर जी ने कहा पाश्चात्य देश तो इसको Implement नही कर सके । घोषणा की स्वातंत्र्य, समता-बंधुता । स्वातंत्र्य की स्थापना की तो समता बिगड गयी । समता की स्थापना करने गये तो स्वातंत्र्य खत्म हो गया । स्वतंत्रता और समता दोनों एक साथ नही चला सके इसका कारण ? अंबेडकर जी ने इसका कारण यह कहा कि तीसरा जो फैक्टर है बंधुता, इसका तो उदय ही नही हुआ-, इसका निर्माण ही नही हुआ और उन्होन साफ कहा जब तक बंधुता निर्माण नही होती तब तक स्वातंत्र्य और समता दोनो साथ- साथ जिंदा नही रह सकते और फिर उन्होने कहा कि इसी बंधुता को, मै ”धर्म” यह संज्ञा देता हूँ । ऐसा पू. अंबेडकर जी ने कहा । जिसको उन्होने ”धर्म” यह संज्ञा दी, जिसको बंधुता ऐसा उन्होने कहा, वही अभिप्राय समरसता इस शब्द का पू. बालासाहब देवरस का है ।
तो यह संदेश सभी राष्ट्र परूषों ने दिया है । बिलकूल महात्मा फुले हो, अंबेडकर जी हो, साहू छत्रपती हो, राजाराम मोहन राय, केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद्र विद्यासागर हो, स्वामी दयानंद जी, लाला हंसराज जी, स्वामी श्रद्धानंद हो, गुरू देव नारायण गुरूस्वामी केरला के हो, सभी लोगो ने यह समरसता का संदेश दिया । लोग भूल जाते है – public memory is short उसको फिर से उज्वल करने के लिये हमारे मा. शषाद्री जी ने कहा कि बालासाहब की स्मृति में यह जो मासिक स्मृति दिन होगा ”सामाजिक समरसता दिन” इस नाते हमको मनाना चाहिये । तो सभी लोगों की यह जो परंपरा है । उसी परंपरा में सामाजिक समरसता का संदेश पू. बालासाहब देवरस का है । इसको हम ध्यान में रखे और यहाँ से जाते समय हम निश्चय करें कि यह सामाजिक समरसता हम अपने जीवन में लायेंगे और इसका संदेश जहाँ जहाँ हमारा प्रवेश है ,एसे सब लोगों को यह संदेश पहुँचायेगें, उतना हम प्रण करें । इतना ही इस समय कहना पर्याप्त है ।
(16 जुलाई 1996 को मुंबई में श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी द्वारा दिया गया भाषण ।)