सुनता और पढ़ता आया हूँ कि इच्छाएं ‘इत्यलम’ कहना नहीं जानती और चाहों का चक्र कभी नहीं थमता । मगर मैं तो कामनाओं के वृत्त में ‘दौड़ने का रसिक हूँ । पाने का अपना आनन्द होता होगा, किन्तु चाहने का सुख भी छोटा नहीं है, यदि चाह छोटी न हो । इसलिए चाहता हूँ ।

मनुष्य को पंगु और बौना बनाने वाली गरीबी मिटे,
जीविका के लिए जीवन रेहन न रखना पड़े,
रोटी इन्सान को न खाये ।।

मशीनें श्रम की कठोरता को घटायें,
उत्पादकता को बढ़ायें,
मगर वे श्रम का अवसर न छीनें,
न आदमी को अपना पुर्जा बना पायें ।।

पृथ्वी का दोहन विवेक पूर्वक हो,
प्रकृति से द्रोह न किया जाये ।।

दरिद्रता, दैन्य व अत्याचार को मिटाने का वीरावेश भड़के,
परन्तु क्रूरता बहादुरी का मुखौटा पहनकर न घूमे।।

समाज और व्यक्ति राष्ट्र और विश्व में परस्पराश्रय हो,
परस्पर विरोध नहीं ।।

धनी-निर्धन, विद्वान-अनपढ़ और
शासक-शोषित का द्वैत मिटकर अद्वैत उभरे।।

सुख विलासिता का,
सादगी रसहीनता और मनहूसियत का,
तप वर्जनाओं का,
कला कृत्रिमता का पर्यायवाची न बने ।।

सत्य संख्या में न दब जाये,
सौन्दर्य अलंकरण में न छिप जाये,
विज्ञान हिंसा का दास न हो ।।

जीवन और जगत् पर प्रकाश, आनन्द और करुणा का राज्य हो ।।

इन चाहों के चक्कर में मैं युग-युग भटकने को तैयार हूँ ।

दत्तोपंत ठेंगड़ी

साभार :- दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन-दर्शन