सामाजिक समरसता मंच की स्थापना मा० दत्तोपंत ठेंगड़ी के हाथों पुणे में 14 अप्रैल, 1983 को हुई। 1983 में रा० स्व० संघ मुंबई महानगर के सहकार्यवाह की जिम्मेदारी मुझ पर थी। समरसता मंच की स्थापना का समाचार मैंने समाचार पत्रों में पढ़ा जरूर, परंतु मैं उसका अर्थ नहीं समझ सका। 'समरसता' शब्द भी मैं जान नहीं सका।
महाराष्ट्र में सामाजिक वातावरण, महाराष्ट्र में सामाजिक आन्दोलन, महाराष्ट्र में वैचारिक प्रबोधन में समता शब्द का प्रयोग हमेशा होता रहता है। मैं उसका आशय समझता था। हाल ही में मैंने दलित आन्दोलन का अभ्यास एवं पठन शुरू किया था। डॉ० बाबासाहेब का लिखित साहित्य इन्हीं दिनों लोभी की तरह मैंने पढा था। इस सारे पठन में समरसता के शब्द से कहीं भी मुलाकात नहीं हुई थी। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि भविष्य में मुझे ही समरसता मंच का काम करना पड़ेगा।
मुंबई के चेंबूर में 1984 में गुजरात-विदर्भ-महाराष्ट्र इन तीन प्रांतों का द्वितीय वर्ष का संघ प्रशिक्षण वर्ग था। मैं इस वर्ग का कार्यवाह था। मा० दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का संघ प्रशिक्षण वर्ग के लिए भ्रमण था। उनका बौद्धिक वर्ग था। उस दिन मैंने उनसे पूछा, “समता शब्द प्रचलित है फिर हम समरसता इस नए शब्द का प्रयोग क्यों कर रहे हैं? समता शब्द का अर्थ झट से ध्यान में आता है। लोग भी समझते हैं तो फिर हम वही शब्द क्यों नहीं प्रयुक्त कर रहे हैं। सामाजिक समता मंच ऐसा नामकरण क्यों नहीं कर रहे है?“
इसके उतर में दत्तोपंत जी ने कहा, “प्रत्येक शब्द का विशिष्ट अर्थ होता है। समता शब्द आजकल जिस संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है, वह संदर्भ मार्क्स के तत्वज्ञान का है। यदि हम भी उस शब्द का प्रयोग करें तो उसे दूसरे से उधार लिया हुआ माना जाएगा। हमारा स्वतंत्र दृष्टिकोण लोगों के ध्यान में नहीं आएगा। समरसता शब्द प्रयोग हमारे तत्वज्ञान में है। इस शब्द की जड़ें भारतीय विचार-दर्शन में हैं और इस शब्द की सहायता से हम अपनी बात लोगों के सामने यथार्थ रूप में प्रस्तुत कर सकते है।“ प्रस्तुत संवाद एक अर्थ में विचारों का प्रेरक एवं मेरे भविष्यकाल की दिशा निर्धारित करने वाला था। दत्तोपंत जी के कथन का पूरा अर्थ उस समय मैं समझ गया ऐसा नहीं। दत्तोपंत जी के ही शब्दों में बताना हो तो पूरे अर्थ की 'प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट' जारी है। डॉ० बाबासाहेब के साहित्य को पढ़ते समय 'मेरे जीवन का तत्वज्ञान' ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। 'स्वातंत्र्य, समता और बंधुता- यह मेरे जीवन की तत्वत्रयी है। इसमें मैं बंधुता को सर्वोच्च स्थान देता हूँ। ये तत्व मैंने अपने गुरू भगवान गौतम बुद्ध के उपदेश में से ग्रहण किए हैं’, बाबासाहेब के इस वाक्य पर मैं अटक गया और मुझे अचानक दतोपंत जी ही याद आए। डॉ० बाबासाहेब बताते हैं कि स्वातंत्र्य, समता, बंधुता- इस त्रयी को मैंने फ्रेंच राज्य क्रांति में से नहीं, बल्कि भगवान गौतम बुद्ध के उपदेश में से ग्रहण किया। इसका मतलब हुआ कि बाबासाहेब को भी उधार-पाधार मान्य नहीं था। अपनी जड़ें काटने को बाबासाहेब तैयार नहीं थे। दत्तोपंत जी ने भी यही बात चेंबूर के वर्ग में मुझे बताई।
शायद सन 1962 की बात है जब महाड में संघ शाखा में मा० दत्तोपंत ठेंगड़ी का बौद्धिक वर्ग था। विषय था 'डॉ० बाबासाहेब अंबेडकर'। उसकी पुस्तिका भी प्रकाशित हो गई। बीस साल बाद मैंने वह पुस्तिका पढ़ी। बाबासाहेब के चरित्र का वाचन करने की रीति उस बौद्धिक वर्ग ने मुझे सिखाई। डॉ० बाबासाहेब और हिंदू समाज, डॉ० बाबासाहेब और भगवा ध्वज, डॉ० बाबासाहेब और संस्कृत, डॉ० बाबासाहेब और सामाजिक एकता जैसे अनेक विषयों का आंकलन बाद में अच्छी तरह होता गया। डॉ० बाबासाहेब के जीवन को परखने की विधायक तथा भावात्मक दृष्टि बन गई। बाबासाहेब की ओर देखने के दृष्टिकोण में ही एकदम बदलाव आ गया और अनजाने में डॉ० बाबासाहेब मेरे निरंतर चिंतन का विषय बन गये।
महाराष्ट्र में समरसता मंच का काम धीरे-धीरे आकार धारण करने लगा। 1987 में पुणे स्थित भरत नाट्य मंदिर में दलितों की सेवा करने वाले सेवावृत्ती कार्यकर्ताओं का सत्कार श्रेष्ठ समाजसेवक अन्ना हजारे के हाथों किया गया। मा० दत्तोपंत प्रमुख वक्ता थे। उनका भाषण इस कार्यक्रम का सर्वोकृष्ट अध्याय प्रतीत हुआ। कितनी नम्रता! भाषण के प्रारंभ में उन्होंने कहा, “गाने की सुंदर महफिल सजी हो। ख्यातनाम गायक गाते हो। ऐसे वक्त यजमान निवेदन करते हैं कि रसिकजनों, हमारा गोपाल भी उत्तम गाता है। उसे भी गाने दीजिए- मेरी दशा वही है।“ उनका विनयी भाव ही भरी सभा में बाजी मार गया।
मराठवाड़ा विद्यापीठ ने उनके तीन व्याख्यान आयोजित किए थे। इन तीन व्याख्यानों में उन्होंने महाराष्ट्र की सामाजिक परिस्थिति का विवेचनात्मक सिंहावलोकन किया। ये व्याख्यान पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए। विद्यापीठ द्वारा दिया गया सारा मानधन उन्होंने औरंगाबाद से प्रकाशित होने वाले एक दलित सामयिक पत्र को समर्पित कर दिया। प्रस्तुत सामयिक पत्र समरसता प्रचार करने वाला नहीं, समरसता पर आग बरसाने वाला है। परंतु दलित जनता के अन्य विषयों पर उतम प्रबोधन करने वाला है। दत्तोपंत ने उसका यह भावात्मक पहलू ध्यान में ले लिया।
'रिडल्स' बाद का अत्यंत संवेदनशील प्रकरण 1987 में महाराष्ट्र में उदित हुआ। प्रभु रामचंद्र की बदनामी करने वाला लेखन महाराष्ट्र शासन ने डॉ० बाबासाहेब के नाम पर प्रकाशित किया। इस 'रिडल्स' के विषय पर मा० दत्तोपंत द्वारा लिखित, किन्तु उनके निधन पूर्व अप्रकाशित, डॉ० बाबासाहेब अंबेडकर नामक ग्रंथ में विस्तृत जानकारी दी गई है। संघ के संस्कारों के कारण और दतोपंत के वैचारिक सहवास के कारण हमें भावात्मक एवं समन्वयवादी भूमिका अपनाना आवश्यक है इसे बताने की जरूरत नहीं। उन दिनों मैंने वैसा वृत्तपत्रीय लेखन किया। मा० दत्तोपंत को वह भा गया।
समरसता मंच के काम पर उनका बारीकी से ध्यान रहता था। एक मुलाकात में मैंने उनसे पूछा, “यह काम 1983 से लगभग बीस वर्ष पहले आरंभ करना जरूरी था। आपने इतनी देरी क्यों की?” वे हँसे और बोले, “मैं तुम्हें एक किस्सा बताता हूँ। तुमने जो कहा वही मैंने एक बार पू० गुरूजी से पूछा था। उन्होंने मुझे पदाधिकारियों की बैठक में यह विषय उपस्थित करने को कहा। तदनुसार मैंने विषय प्रस्तुत किया। बैठक में सभी ने उसका तीव्र विरोध किया। जाति-पाति का विचार संघ में बिलकुल नहीं होना चाहिए। हम लोग अस्पृश्यता नहीं मानते। एकात्म भाव जागरण ही हमारा कार्य है। ऐसे सभी विषय लिए गए। मुझे बाद में पता चला कि गुरूजी ने मुझे विषय उपस्थित करने को क्यों कहा। गुरूजी स्वयं कहा करते थे- शीघ्रता करो, परंतु धीरे-धीरे! किसी भी काम में जल्दबाजी से काम नही होता, उस काम के लिए उचित अवसर चाहिए।“
समरसता मंच के कार्य का ढंग क्या हो? इस संबंध में उनका सूत्र धीमी शीघ्रता ही था। ज्यादा जल्दबाजी न करो। उससे हमारे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ेगा। ऐसा वे कहा करते थे। वे समझाते कि दलित समाज में अब जाग्रति हुई है। दलित समाज अब तुरंत हमारी बातों पर विश्वास नहीं करेगा। हमें संशय की निगाह से देखेंगे। दलित समाज के पहले तबके के ‘नेता हमारे मंच पर भी नहीं आएंगे। वे समझ-बूझकर टालेंगे। हम पर जहरीली टीका करेंगे। इन सब बातों को मानकर काम करना होगा। दूसरी, तीसरी पंक्ति के युवकों से संपर्क बढ़ाना पड़ेगा। ये ही लोग हमारे निकट आने की संभावना है।‘
कौन से कार्यक्रम हाथ में लिए जाएं, इस संबंध में उनका कहना था कि कोई भी भड़कीला कार्यक्रम हमें नहीं करना चाहिए। मात्र प्रसिद्धि के इरादे वाला कार्यक्रम न करें। सामाजिक सत्य पुरूषों की जयंती अथवा पुण्यतिथि मनाऐं। सभी लोगों को उसने सम्मिलित करें। अन्याय-अत्याचार वाली घटनाओं के संदर्भ में धटनास्थल पर स्वयं पहुचें, परिस्थिति का मुआयना करें, अध्ययन करें और यथावश्यक पत्रक भी प्रकाशित करें। हमारा कार्य लोगों को 'जोड़ने' का है इसका सदैव ध्यान रखें।
1993 में चिंचवड़ में समरसता मंच का अधिवेशन था। इस अधिवेशन में टेक्सास गायकवाड़ को एक विषय पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया था। टेक्सास गायकवाड़ दलित आन्दोलन में रचनात्मक कार्य करने वाले कार्यकर्ता है। दलित रंगभूमि के वे बढ़िया कार्यकर्ता है। पाँच-छह वर्ष वे मंच के विविध व्यासपीठ पर आते रहे थे। उन्होंने कभी भी औचित्यभंग करने वाला भाषण नहीं किया था। परंतु चिंचवाड़ के अधिवेशन में उन्होंने हिंदुत्व, हिंदुधर्म, भगवान श्रीराम- इन विषयों की असभ्य भाषा में निंदा की। उनके भाषण के विषय से इसका कोई संबंध नहीं था। एक दृष्टि से वह भाषण अत्यंत लचर एवं गंदा था। उस समय व्यासपीठ पर दत्तोपंत आसीन थे। सामने मोरोपंत भी थे। हमें बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। लगा कि कहां से कुबुद्धि हुई और टेक्सास को भाषण के लिए निमंत्रित किया। भाषण को बीच में रोकना, सभा में हो-हल्ला मचाना यह हमारी परंपरा नहीं सो निर्विकार चेहरा रखकर हम भाषण सुनते रहे।
समापन भाषण में दत्तोपंत क्या बोलते हैं यह सुनने की आतुरता हमारे साथ सभी में थी। समरसता व्यासपीठ पर से उस दिन पहली बार मा० दत्तोपंत ने हिंदूराष्ट्र विचार की पृष्ठभूमि की वैश्विक भूमिका विशद की। भाषण अप्रतिम हुआ। टेक्सास गायकवाड़ के भाषण का असर पूर्णरूप से नष्ट करने वाला भाषण था। अधिवेशन के लिए आए हुए कार्यकर्ता शांत हुए और आत्मविश्वास के साथ घर लौट गए। टेक्सास गायकवाड़ को क्यों बुलाया? अथवा ऐसी बेवकूफी क्यों की? ऐसा कोई भी सवाल दत्तोपंत जी ने हमसे नहीं किया। इसके विपरीत कभी-कभी व्यक्ति का मानसिक संतुलन बिगड़ता है और स्वार्थ के आधीन हो जाता है। उसे बेध्यान करना। टेक्सास से संबंध न तोड़नें की सलाह दी।
13 अक्टूबर, 2004 को समरसता मंच की ही बैठक के सिलसिले में मैं पुणे में ही था। भिकूजी इदाते भी पधारे थे। दो ही दिन पूर्व सरकार्यवाह मा० मोहन जी भागवत का पत्र मिला था। मैंने समरसता का घोषणापत्र उनके पास भेजा था। उन्होंने लिखा था कि घोषणापत्र अच्छा बना है, फिर भी दत्तोपंत को दिखाने की सूचना दी थी। दत्तोपंत भी पुणे में ही थे। दादा इदाते ने उन्हें फोन करके मुलाकात का समय पूछा था। 14 अक्टूबर, को सुबह दस बजे की मुलाकात तय हो गई। बैठक जारी थी। दोपहर तीन बजे मोतीबाग कार्यालय के अचूतराव कोतहटकर बैठक में पहुंचे। उन्होंने मुझे बाहर बुला लिया और मंद स्वर में बताया कि 'दत्तोपत के निधन का फोन आया था। समाचार की सच्चाई का पता लगाना है। क्या आपके पास दत्तोपंत के पुणे-निवास का फोन नंबर है?’ मैंने दादा इदाते को भी बाहर बुलवा लिया। उनको भी यह खबर दी। उन्होंने कहा, “जिनका फोन आया वे झूठी खबर नहीं देंगे।“ उस समय शायद दोपहर के तीन-सवा तीन बजे थे। अगले कुछ ही मिनटों में यह समाचार सत्य साबित हुआ। समरसता के एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज पर बिना चर्चा किए ही दत्तोपंत परलोक सिधारे थे। उस क्षण मुझे संघ के गीत की पक्तियाँ याद आई-
भला चला जा जहाँ कोटी हाथ, देख रहे है वाँट वीर व्रत
देख वहीं से अपने पथ के, पथिकों का प्रचलन रणगान धन्य तुम्हारा जीवनदान.....
रमेश पतंगे