संघ विचार के महान भाष्यकार श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी
संघ विचार के महान भाष्यकार श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी
डॉ. श्रीपति शास्त्री
श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी से सम्बन्ध सिर्फ संघ के सम्बन्ध में ही मेरा ज्यादा है, अपवादात्मक रुप से कई बार उनसे मिलने के लिये गया हूँ। दत्तोपंत जी का जीवन देखकर, उनके चाल-चलन, रहन-सहन, बोलने का ढ़ंग, ये सारा और इसका अनुभव लेकर, प्रश्नों के संबंध में उत्तर देने का उनका जो अद्भुत बौद्धिक सामर्थ्य था, उससे प्रभावित होकर, संघ में जो अनेक कार्यकर्ता, अपने सम्भ्रम को त्यागकर, जो संघ कार्य में रत हुये, जिनके कारण से जो हजारों कार्यकर्ता खड़े हुये, उसमें से मैं भी एक साधारण स्वयंसेवक हूँ। संघ प्रारम्भ तो हुआ पच्चीस (25) में, सारी जो पहली पीढ़ी थी संघ की, वह तो, जो प्राथमिक संकल्पना है, यह एक देश है, एक राष्ट्र है, और वह हिन्दू राष्ट्र है। इस बात को समाज में बिठाने के लिए एक पीढ़ी चली गई। वैचारिक दृष्टी से उस समय हिन्दू शब्द के साथ ही एलर्जी, स्वातन्त्र्य संग्राम चल रहा था, उसके जो आशय है तात्विक उससे कुछ भिन्न और हिन्दू समाज की विचित्र परिस्थिति है, यह संगठित होने वाला समाज है क्या? इन सारी बातों के बीच में संघ की बात को वहाँ पर बिठाना एक पीढ़ी का काम हो गया। बाद में जैसे-जैसे समय बदलता गया, अनेक प्रकार के प्रश्न खड़े होते चले, जो प्रारम्भिक काल में नहीं थे और केवल समय नहीं था इतना ही नहीं तो उसको दूर रखा गया था। डॉ. हेडगेवार को कई प्रश्न पूछते तो वो कहते थे मुझे क्या मालूम उनसे पूछो, वो इतिहासकारों से पूछो, तत्व-ज्ञानी से पूछो वह टालते थे, उत्तर नहीं देते थे। हिन्दू शब्द को डिफाईन करने से भी उन्होंने इंकार किया जो अत्यन्त प्राथमिक बात है। क्योंकि वह जानबूझकर किया था वैसा।
लेकिन जैसे-जैसे दिन चले, काम का विस्तार होता चला गया। परिस्थितियों में बदलाव आया, इसलिए अनेक प्रकार के जो प्रश्न, खड़े होते गये, इन प्रश्नों को शास्त्रीय ढ़ंग से, संघ की अत्यन्त बुनियादी बातों से सुसंगत, अत्यन्त वैज्ञानिक दृष्टि से सम्मत ऐसी उसकी व्याख्या करना, उसको प्रस्तूत करना, दुनिया के सामने प्रस्तूत करना, समर्थ भाषा में प्रस्तूत करना, ऐसे एक महान भाष्यकार थे, श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी। (the greatest commentator of Sangh Ideological dimensions) “द ग्रेटेस्ट कॉमेन्टेटर ओफ संघ आयडियोलोजिकल डायमेन्सनस्”, संघ के सारे विचार-विश्व को विकसित करना, विकसित हुए आयाम का विश्षलेण करना और सबके सामने उसको प्रस्तुत कर, उसको सर्व-स्वीकार्य बनाना। यह जो कई लोगों ने काम किया, बड़े महत्व का काम, बड़ा बुनियादी काम, इसमें दत्तोपंत जी का बहुत बड़ा स्थान है। मेरा खुद का एक अनुभव है। मैंने पूछा कि भाषण में वो कई बार बोलते थे, संघ अलग, समाज अलग ऐसा नहीं होना चाहिये और संघ समाज एक ही है। ऐसा कुछ बोलते थे। बोलने में सुनने में तो ठीक ही लगता था, लेकिन इसका व्यावहारिक अर्थ क्या है? तो उनका जो उत्तर देने का जो ढ़ंग था, “नहीं ऐसा नहीं, कल का इतिहासकार अगर लिखता है, संघ के बारे में, टुमारोज हिस्टोरियन, की ऐसा एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम का संगठन था उसने हिन्दू समाज के उपर जितनी-जितनी आपत्तियां थी, उसको दूर करने के लिए बहुत बड़ा परिश्रम किया “एण्ड संघ डिफेन्डेड हिन्दू सोसाइटी, प्रोटेक्टेड हिन्दू सोसाइटी” ऐसा यदि लिखने की नोबत आ जाये तो हमारे लिये यह हमारे विचार का पराभव हो गया। और कल का इतिहासकार ऐसा लिखता है कि हिन्दू समाज में ऐसे प्रश्न तैयार हो गये, ऐसी-ऐसी समस्याएं, चुनौतियां खड़ी हो गयी, और उनसे निपटने के लिये हिन्दू समाज के अन्तर्गत विचार हुआ, औ हिन्दू समाज के विचारवान्-विवेकवान् लोगों ने अपनी बुद्धी लगायी और उन्होंने अपने सामर्थ्य से इसके उत्तर को ढूंढ़ निकाला और हिन्दू समाज स्व-संरक्षण-क्षम बना । हिन्दू समाज ने अपनी समस्याओं को स्वयं हल किया, ऐसा अगर इतिहासकार ने लिखा तो संघ के विचार की विजय होगी, नहीं तो संघ ने प्रोटेक्ट किया ऐसा हो गया, ऐसा नहीं आना चाहिये इसलिये हमारा जो संघ का जो एचीवमेंट है उसका रिकार्ड मत मेन्टेन करो, बैंक खाते में सारा रिकार्ड हिन्दू सोसाइटी के क्रेडिट पर करना, “ओल दी अचीवमेंट ओफ संघ सुड बी क्रेडिटेड इन दी नेम ओफ हिन्दू सोसाइटी” ऐसे इसको रखना चाहिये। और इसके योग्य शब्द वे गढ़ते चले, संघ और समाज समव्याप्त है, संघ और समाज ‘को-एक्सटेन्सिव’।
नये-नये संगठन, नये-नये आन्दोलन जो कभी-कभी प्रारम्भ किये गये, होते चले गये और अभी भी हो रहे है, उसको उन्होंने, यह नई बात आ गई है, ऐसा नहीं बोलते थे। कहते थे यह पहले से संघ विचार में है, डॉ. साहब के समय का एकाध उदाहरण भी देकर, कलकत्ता में जब गड़बड़ हो गई तब डॉ. हेडगेवार ने क्या-क्या किया था उसका उदाहरण देकर, यह प्रारम्भिक काल से निहित संघ विचार है। उसको उन्होने एक नया शब्द भी दिया ‘प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट ओफ संघ आयडियोलोजी” ऐसा उन्होंने एक शब्द प्रयोग किया। ऐसे वैचारिक दृष्टी से एक संकल्पना के साथ उसको शुरु करना इतना ही नहीं तो सबको समझ में आ सके ऐसे शब्दों में रखकर, संघ के विचार की जो पूञ्जी है, उसको समृद्ध बनाने वाले ऐक बहुत बड़े भाष्यकार श्रीमान दत्तोपंत जी ठेंगड़ी हमारे बीच में, अपनी आंखों के सामने ही जीवन जीकर, वो चले गये। इसलिए संघ की वैचारिक भूमिका का जब हम विश्लेषण करने बैठते है, तो कौनसा भी विषय लो, वहाँ पर दत्तोपंत जी का प्रवास आता है। वो आते है, उनका क्या कहना था, बोलने के लिए आते है।
कैसे-कैसे प्रश्न आते चले गये ? परिस्थिति जैसे बदलती चली गई, नये-नये प्रश्न आते गये। नये-नये प्रश्न जो संघ के लोगों को भी शायद हजम नहीं हो ऐसे है। दत्तोपंत जी ने एक घटना बतायी थी, 1960 की बात है, 1960 में अपने देश में गृहमंत्री श्री गुलजारी लाल नन्दा थे, उस समय एक बहुत बड़ा स्ट्राइक हो गया, वामपंथी लोगों से प्रेरित स्टम्प ऐसे होते थे वो बहुत बड़ा स्ट्राइक हो गया और स्ट्राइक होने के बाद नुकसान इत्यादि होते है वो हो गया, इसलिए नन्दा जी बहुत नाराज हो गये और उन्होंने एक डिक्लेयर किया कि एक नया बिल लायेंगे, जिसमें यह स्टम्प करने का माने स्ट्राइक करने का यह जो राइट है, इसको हम ले लेंगे। समस्या समाधान के लिये नया मेकेनिज्म ढूंढेंगे। राइट टू स्ट्राइक यह नहीं रहना चाहिये ऐसा उनका स्टेटमेंट था उस समय। यह स्टेटमेंट आने के बाद 60-61 की बात होगी उस समय एक दो दिन नागपुर में होने के कारण श्रीगुरुजी से मुलाकात हो गई, गुरुजी ने दत्तोपंत जी को पूछा कि यह जो नन्दा जी का स्टेटमेंट है, इसके बारे में बी.एम.एस. की क्या भूमिका है? तुम्हारा क्या स्टैण्ड है? दत्तोपंत जी ने कहा हमारा स्टैण्ड तो कुछ नहीं है, गुरुजी ने पूछा की वृतपत्र में तुमने तुम्हारा स्टैण्ड विस्तृत नहीं किया ? दत्तोपंत जी ने कहा कि हमको कौन पूछेगा हम इतने छोटे है, कि नगण्य है, इसलिये हम दें तो क्या, नहीं दें तो क्या ? दें तो छापें भी नहीं पेपर वाले हमको, हम इतने छोटे है, ऐसा दत्तोपंत जी ने कहा। गुरुजी ने कहा कि वे छापे या न छापे कम से कम अपने पत्र तो छापेंगे, अपनी जो साप्ताहिक है वह तो जरुर छापेंगे, शायद हेडलाईन में भी छापे लेकिन तुम्हारी भूमिका क्या है, यह तो स्पष्ट होनी चाहिये, स्वयंसेवकों को समझना चाहिये, तुम्हारे विचार की दिशा तो समझनी चाहिये, दत्तोपंत जी ने कहा कि मैंने तो ऐसा सोचा ही नहीं। गुरुजी ने कहा कि शाखा होने के बाद शाम को फिर मिलेंगे। शाम को चाय के समय मिले, गुरुजी ने पूछा क्या तुम्हारा स्टेटमेंट तैयार हो गया? इन्होंने कहा नहीं, शब्द सूझते नहीं है, क्या कहना। गुरुजी ने कहा अच्छा पेपर और पेन लाओ और गुरुजी ने डिटेक्ट किया उनका जो स्टेटमेंट है बी.एम.एस. का, स्ट्राइक के बारे में, वो उन्होंने डिक्टेट किया, और दत्तोपंत जी ने वो लिख लिया, लिखने के बाद पेपर में भेजा, वो छपकर भी आ गया बी.एम.एस का स्टेण्ड क्या है? वो छपकर आ गया सारा, अर्थात् दत्तोपंत जी के नाम से आ गया, वो ही उसके प्रमुख थे, बाकि लोगों को कुछ मालूम नहीं है। बाद में जो बैठक हुई उस बैठक में अपने ही, अनेक संघ के जो प्रमुख थे, जिनमें कई लोग जिनका कारखानों के साथ संबंध भी था, कई लोग एक्जीट्यूव भी होगें, उन्होंने गुरुजी से शिकायत की, कि हमारे संघ के बहुत बड़े अच्छे प्रचारको को हम अन्य क्षैत्र में काम करने को कहते है, देखा ठेंगड़ी जी जैसे ऐसे बड़े कार्यकर्ता क्या स्टेटमेंट देते है, स्ट्राइक पर।
माने स्ट्राइक करना यह कम्युनिस्टों का धन्धा, और उसको रोकना हमारे कार्यकर्ता का देशभक्तिपूर्ण कार्य है, ऐसा एक इक्वेशन है अनेक लोगों के दिमाग में, उन्होंने गुरुजी से शिकायत की। देखीये गुरुजी क्या स्टेटमेंट दिया है, दत्तोपंत जी ने, वही स्टेटमेंट उन्होंने गुरुजी को सुनाया । स्टेटमेंट क्या था ? स्टेटमेंट यह था कि “राइट टू वर्क इज अ फन्डामेंटल राइट, देट मीन्स राइट नोट टू वर्क्स इज आलसो ए फन्डामेंटल राइट” इसलिये स्ट्राइक करना यह कामगारों का जो मूलभूत अधिकार है उसको खींच लेने का अधिकार सरकार को नहीं है। “दे मस्ट हेव देट राइट” यह मैंने सक्षिप्त में कहा लम्बा स्टेटमेंट है, उसका कॉपी है मेरे पास, मैंने दत्तोपंत जी से पूछा, उस समय गुरुजी ने क्या कहा ? गुरुजी ने कुछ कहा नहीं, आंखों के ऊपर ऐसा हाथ रखकर बैठे थे, सबकी सुनते थे, उस समय भी नहीं कहा, बाद में भी नहीं कहा, फिर आपने क्या किया ? उन्होंने कहा कि मैं क्या, कुछ न कुछ बोलना ही चाहिये वो तो बोल रहे है इतना बोल रहे है यह कुछ भी नहीं बोल रहे है तो मैंने कहा देखो भाई यह काम करने के लिये आपने मुझे कहा है, मैं काम कर रहा हूं और इस प्रश्न के ऊपर उचित ऐसा समझा मैंने वह स्टेटमेंट दे दिया, मुझे जो ठीक लगा, आप सब लोग विचार करके अगर ऐसा कहते है कि यह उचित नहीं है, ऐसा यदि निश्चय हो गया तो मैं मेरी गलती हो गई ऐसा मानकर उसको वापिस ले लूगां। इतना कहकर वो भी छूट गये, सब छूट गये उस समय, इस अवस्था से अपने लेबर मूव्हमेंट का काम दत्तोपंत जी कर रहे थे, उस समय यह अपने ही कार्यकर्ताओं की स्थिति थी।
गुरुजी के साथ दत्तोपंत जी का निकट का सम्बन्ध भी था लेकिन मजदूर क्षैत्र में कार्य और विचार की दृष्टी से नई-नई जो बातें आती थी, ये उनको प्रस्तूत करके सर्वमान्य होना चाहिये ऐसा देखने का भी एक काम दत्तोपंत करते थे। वैसे उस क्षैत्र के सभी लोगों के साथ उनका सम्बन्ध भी था, मैं खुद उनके साथ, पूना में आते थे, मुम्बई में आते थे उस समय के जो ट्रेड युनियन लीडर थे एस.एम. जोशी के साथ उनको लेकर गया था, मधुलिमये के साथ उनके साथ गया था, ट्रेड युनियन के कम्युनिस्ट भी उनके निकट के मित्र थे, दत्तोपंत जी के। अनेक घटना जो बोलते है प्रो. हिरेन मुखर्जी उनके निकट के मित्र थे, आन्ध्र के जो पी. राममूर्ती जो कम्युनिस्ट लीडर रहे उनके मित्र थे, उनके संबंध में जो कुछ बातें हुई वे बोलते थे, वो अजातशत्रु थे यह तो एक बात है लेकिन जगन्न मित्र थे यह दूसरी बात है “फ्रेंड ओफ ओल ऐनेमी टू नन” इतना है उनका। इसलिये सर्वक्षैत्र में अत्यन्त आसानी से उनका प्रवास चलता था जिसका चित्र मैंने इमरजेन्सी के समय सभी पक्ष के लोगों को एकत्र लाने के लिए जो उनका हलचल चला था उस समय मुझे देखने को और उसको अनुभव करने का समय मिला, इतना ही नहीं बड़े-बड़े लोगों के साथ जब उनके तरूणाई के समय के सम्बन्ध में बोलते बोलते संघ के संबंध में बोलते थे डी.पी. मिश्रा के साथ जैसे जाते थे और आते थे कैसा सम्बन्ध था? पिता पुत्र के जैसा अपना संबंध था ऐसा वो बोलते थे। मध्यप्रदेश के उस समय के जो स्ट्रोंग मेन थे, उनके साथ संबंध के बारे में बोलते थे, बाबा साहब के बारे में तो अधिक उल्लेख किया यहां पर तो उनका निकट का संबंध था।
और एक घटना वे बताते थे जिसका गुरुजी के साथ संबंध है। यहीं दिल्ली में गुरुजी आये थे। गुरुजी से मिलने के लिये नागपुर के बहुत बड़े कार्यकर्ता जो अपने संघचालक मान्यवर श्रीमन्त बाबा साहेब घटाटे, डॉ. हेडगेवार जी के समय से लेकर आखिर के दम तक नागपुर के संघचालक रहे, उनका घर माने अपने सर्व संघचालकों का देखभाल करने का एक “ही वाज दी केयरटेकर” ऐसा उनका स्थान था, वो बड़े थे, वो यहां पर आये थे, ये यहां क्यों आये ? दिल्ली में गुरुजी से मिलने के लिये आये, कार्य के लिये गुरुजी से मिलने के लिये आये थे, वह जो वर्ष था, पिछले जमाने के स्वातंत्र्य संग्राम जब चल रहा था इस देश में उस समय हिन्दू समाज का देखभाल करने वाले एक “वॉच डॉग ओफ हिन्दू सोसायटि” ऐसा रोल अदा करने वाले एक नागपुर के डॉ. बी. एस. मुञ्जे उनकी जन्म शताब्दी का वर्ष था। बहुत बड़े आदमी थे वो अपने ढ़ंग से बहुत बड़ी लड़ाईयां भी लड़ी उन्होंने अकेले, तो अनेक लोगों को प्रिय थे विशेषत: महाराष्ट्र और विदर्भ में ज्यादा प्रिय थे और घटाटे जी के मन में उनके बारे में बड़ा आदर था। उनकी जन्म शताब्दी समारोह समिति करके कुछ कार्यक्रम करना चाहिये ऐसा वह सोचकर उस समिति के अध्यक्ष श्री गुरुजी रहे यह विनती करने के लिये वे यहाँ पर आये थे। गुरुजी से मिले और विषय रखा, लेकिन व्यक्तिश: गुरुजी ऐसी बातों में रुचि तो नहीं लेते और लेकिन उस समय मांग करने वाले जो थे बहुत बड़े आदमी थे, डॉ. हेडगेवार जी के आखिर के दिनों में उनकी जो अत्यन्त तत्परता से देखभाल की वह बाबा साहब घटाटे थे, उनका सारा घर “आल हिज असेटस ओन द डिसपोजल ओफ द ओर्गेनाइजेशन”, यह व्यक्ति जब वहाँ यह मांग करने के लिये आते है और खुद डॉ. बी.एस. मुञ्जे और डॉ. हेडगेवार जी का संबंध, संघ के अनेक प्रमुख कार्यकर्ताओं का निकट का संबंध ये होने के कारण गुरुजी, उनकी इच्छा रहे न रहे स्वीकार करना पड़ा, मुञ्जे जन्म शताब्दी समिति के अध्यक्ष बने, और उसमें कौन-कौन रहना चाहिये और समिति सदस्य इस नाते विचार हुआ, बी.एस. मुञ्जे से आदर रखने वाले कौन-कौन है इस देश में, वह थोड़ा गुरुजी ने याद किया और कहा केन्द्र के जो मंत्री थे बहुत प्रतिष्ठित मंत्री बाबू जगजीवन राम उसके सदस्य रहना चाहिये ऐसा गुरुजी को लगा, और इसलिये उन्होंने कहा कि बाबू जगजीवन राम जी को सदस्य होने के लिये विनती करेंगे, वहां जो ओर कार्यकर्ता थे उन्होंने कहा कि वह कैसे बनेंगे, वे तो इसका सारा विरोध करेंगे, जन्म-शताब्दी तो मूञ्जे की है, और अध्यक्ष तो आप है और इसके साथ कैसे अपने आप को जोड़ लेंगे, ऐसा उन्होंने गुरुजी से कहा, गुरुजी ने कुछ नहीं कहा तो वो चुप हो गये। बाद में सब जाने के बाद उन्होंने दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को बुलाया, बुलाकर उनसे कहा अपनी और से बाबू जगजीवनराम से मिलकर आओगे क्या? यह विनती है कि सदस्य हो ऐसा जमता है तो जरा देखकर आना। वैसे दत्तोपंत जी गये, जगजीवन राम के पास गये पुराना परिचय भी था आसानी से मुलाकात भी हुई, वहाँ पर उन्होंने यह सारी बातें जग जीवन राम जी से कही। यह समिति है, आप सदस्य बने, अध्यक्ष तो गुरुजी रहने वाले है, बाबू जगजीवन राम ने एक प्रश्न पूछा, तुमको लगता है कि मैं सदस्य रहूँ इसलिये आये हो, या गुरुजी का संदेश लेकर तुम आये हो ये प्रश्न बोले। उन्होंने कहा गुरुजी की विनती लेकर मैं आया हूँ, “हिज रिक्वेस्ट, आई ऐम केरिंग” हिज रिक्वेस्ट यह उन्होंने कहा। उन्होंने एक मिनट विचार किया, बाद में कहा अच्छी बात है, मैं बनूगां, तुम जाकर पेपर-वेपर तैयार करके भेज दो, उसके ऊपर जहाँ-जहाँ साइन करना है, मैं करके दूंगा, वापिस आ गये, गुरुजी से कहा, गुरुजी ने कहा अभी किसी से आऊट मत करो, पहले सारा पक्का करके पेपर में छापने का बाद ही वे सारा आऊट हो जाये, पेपर तैयार किया, नेक्स्ट डे, उनके ओफिस में भेजा, दूसरे दिन प्रात: काल कार्यालय में वो साइन होकर आ गया। जब उनका नाम उसके साथ आ गया, इस समिति के यह सदस्य है, तो सबको बड़े आश्चर्य की बात हुई, तो उस समय कितना आश्चर्य लोगों को हुआ, जितनी आसानी से जगजीवन राम ने उसको स्वीकार किया। गुरुजी ने जैसे “हाऊ ही हेड रीड द माइण्ड ओफ जगजीवन राम” यह एक बात, गुरु शब्द का कीमत उसके पास क्या था ये बात, ये दत्तोपंत जी बहुत अच्छे ढ़ंग से वर्णन करके कहते थे, यह सब लोगों का उनका एक-एक, दो-दो, चार-चार, उदाहरण हम बता सकते है। जहाँ तक देश का संबंध है, संघ का संबंध है, एनेकडोट जिसको बोलते है तो बहुत स्टॉक है उसका, विशेषकर श्री गुरुजी के सम्बन्ध में, बाला साहेब देवरस जी के संबंध में यह सारी घटनाओं और बाहर के लोगों के साथ के संबंध में यह वो बोलते है।
लेकिन देश से संबंध में उनका कुछ विशिष्ट रोल था, वो यह था जिसका उल्लेख रमन भाई ने किया है । देश में ट्रेड युनियन मुव्हमेंट जो है ये सारा लेफ्टिस्ट लोगों की मोनोपोली थी उस समय उनकी जो अनेक प्रकार की जो कॉम्पलेक्सिटी है उसको ग्रास्प करने में भी तकलीफ होती थी, वहाँ के लोगों को ऐसी एक विचित्र परिस्थिति में, उस क्षैत्र में प्रवेश करके, उनसे ही सारी बातें सीखकर और बाद में जो लेबर एक मूव्हमेंट जो अपने देश में अत्यन्त आवश्यक थी, ऐसा एक लेबर मूव्हमेंट उन्होंने खड़ा किया जो”विच इज इफेक्टिव अलटरनेटिव टू द लेफ्टिस्ट मूव्हमेंट ओफ ट्रेड यूनियन” उन्होंने इस देश के लिये, उसका एक पर्याय तैयार किया, जो लोकतंत्र की दृष्टी से आवश्यक था, जो राष्ट्रवाद की दृष्टी से आवश्यक था, राष्ट्रवाद की चौखट में ट्रेड यूनियन मूवमेंट हो सकता है ऐसा प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्थापित करना आवश्यक था, ये सारी जो बातों को अत्यन्त आसानी से, अपने सम्बन्ध के बलबूते पर, अपने बौद्धिक सामर्थ्य के बलबूते पर, राष्ट्रनिष्ठा के बलबूते पर, संघ में जो उनका स्थान था उसके बलबूते पर, एसा एक अल्टरनेटिव टू बी लेफटीस्ट ओरियेन्टेड लेबर मूवमेन्ट ट्रेड युनियन मूवमेन्ट, उसको किया और जिसका आज “दी बिगेस्ट लेबर मूव्मेन्ट एन दिस कंट्री” ऐसा उसका स्थान आज है। एक व्यक्ति अपने जीवन में कितनी बाते कर सकता है, इतना ही नहीं, अनेक क्षैत्रों में प्रवाह है छोटा सा पुस्तक है, उसको मैंने पढ़ते पढ़ते पढ़ा था “वक्तृत्व की तैयारी” एक पुस्तक है छोटा सा , पच्चीस तीस पन्नो का “टू ट्रेन वन सेल्फ फॉर दी स्किल ओफ आरेटरी” ऐसा है उसमें जो छोटे छोटे उदाहरण है सारे यूरोप के इतिहास को लाया है, बड़ा मोह होता है, यूनियन के पार्लियामेंट की एक चर्चा को उन्होंने कोट किया है, ओरेटरी का कैसे इफेक्ट होता है। जार्ज थर्ड था, वार ओफ अमेरिकन इनडिपेन्डेन्स का कारण बना जार्ज थर्ड, ये राजा था उसके बारे में बहुत नाराजगी थी देश में, पार्लियामेंट में उसके उपर टीका होने लगी, टीका होने लगी उसमें एक आदमी ने ऐसी टीका की जार्ज के ऊपर वह क्या है ऐसा है, ये ऐसा देश के लिये खतरा है राजा, तो इससे देश को छुटकारा कब मिलेगा कौन जाने, ऐसा कुछ वाक्य है। बाद में कहा “सीजर हेड हिज ब्रूटस” (Caesar had his brutus) यह पहला वाक्य है सीजर की हत्या करने वाला एक ब्रूटस था याद करो “सीजर हेड हिज ब्रूटस” (Caesar had his brutus), “चार्ल्स हेड हिज क्रोमवेल” (Charles had his Cromwell) इंग्लेंड का राजा था चार्ल्स फस्ट नाम का ही “हेड हिज क्रोमवेल” जिन्होंने उनको फांसी पर, फांसी नहीं “बिहेडिंग” उस समय सिर काटते थे। ही वाज “बिहेडिट” (Beheadit) ये दोनों हो गया, दो राजाओं को याद करो, सीजर हेड हिज ब्रूटस, चार्ल्स हेड हिज क्रोमवेल, अब तीसरा यह जार्ज के नाम पर क्या बोलता है डर हो गया, लोगों ने चिल्लाया “इट इज अ ट्रीजन” लेकिन वक्ता क्या था एक मिनट रुका फिर रिपिट किया सीजर हेड हिज ब्रूटस, चार्ल्स हेड हिज क्रोमवेल एण्ड जॉर्ज द थर्ड मेय प्रोफिट बाय देयर एग्जाम्पल” ऐसा उन्होंने एंड किया उसका। माने राजद्रोह से बचा जो सजेस्ट करना था, वो किया, ये उस छोटी पुस्तक में है ऐक पेरा में वो है, ऐसे दस उदाहरण आपको मिलेंगे, सारा यूरोप का इतिहास वक्तृत्व की तैयारी के लिए छोटी पुस्तक, मैंने उनसे पूछा कि इसके लिए आपको टाईम कहाँ है ? उन्होंने कहा इसके लिये ज्यादा टाईम नहीं निकालना पड़ता, जब थोड़ा करने को कुछ धन्धा नहीं रहता है न, उस समय करते है यह काम, बड़ी आसानी से कहा उन्होंने, ऐसा हर क्षैत्र में उनको कुछ कहना है, और मूलत: उनका पिण्ड अध्यात्मवादी था वो और देव, भगवान, प्रभू-कृपा, ईश्वर कृपा, इश्वरेच्छा यह सारी बातें विशेष प्रसंग में उसका उल्लेख करते थे। दत्त उपासक थे और महाराष्ट्र में एक दत्त उपासना का क्षैत्र है और वहाँ पर तो वर्ष में एक बार दो बार तो वे जाते थे ऐसे आध्यात्मिक पिण्ड के आधार पर जन जहान, राष्ट्रवाद से प्रेरित होकर अत्यन्त विज्ञान निष्ट तर्कबद्ध बौद्धिक आधार पर ऐसा एक संघ का बहुत बड़ा व्याख्याकार, भाष्यकार अपने को ये मिला इसलिये संघ का जो वैचारिक संवृद्धी में बहुत बड़ा कन्ट्रीब्युशन उनका हो गया, अंतिम समय में पूना में ही रहे निकट से जानता हूं कैसे उनका विचार चला था। डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर के संबंध में आखिर का पुस्तक लिखकर पूर्ण होने के बाद वो तुरन्त चले गये, क्योंकि सर संघचालक जी ने उनको कहा था कि अम्बेडकर के साथ का तुम्हारा संबंध के आधार पर एक पुस्तक लिखो। आज वो पुस्तक अवेलेबल है, मूल मराठी में है, हिन्दी मैं भी भाषान्तरीत हो चुका है, अंग्रेजी में करना चल रहा है ऐसे एक बहुत बड़े आदमी के जन्म दिन पर आप सब लोगों के साथ सम्मिलित होने का मुझे एक मोका मिला इसलिये मैं स्वदेशी जागरण मंच के लोगों का अपनी और से बहुत बड़ा कृतज्ञ हूं इतना कहकर भाषण समाप्त करता हूँ।
Dr. SRIPATI SHASTRI was basically from HARIHARA of CHITRADURGA district in Karnataka. A Gold Medalist from Mysore University in history. He did his Ph. D thesis on “history of constitution of the world”. Then he joined department of history at Pune University and worked as professor of history for two decades. He was an active member of RSS from his student days. Dr. Shastry was a well known intellectual, speaker and thinker. He was a member of national executive committee. His lectures on “Partition of Bharat” and “1857 freedom movement” were highly inspiring. He visited several western countries and participated in many RSS functions. Unmarried, he dedicated much of his life for the cause of society. His famous book on “RSS on Christian activities” was a noted work .He was respected by all spectrum of the society irrespective of political and religious groups. His nature was acceptable to everyone and was a great teacher of history for thousands.