अपने देश की राष्ट्रीय प्रभुसत्ता को इस समय राजनैतिक अथवा सेनिकआक्रमण से भी अधिक गंभीर खतरा विदेशी पूंजी के बढ़ते हुए विस्तार और उसको पिछलग्गू बनी भारतीय एकाधिकारवादी पूँजी से है। अपनी पूँजी और उन्नत तकनीक के आधार पर विदेशी लोग अपने आर्थिक साम्राज्य के विस्तार की प्रक्रिया में लगे हए हैं और दुर्भाग्यवश हमारे बहुत से राजनेता उनके हाथों बिक चुके हैं । अत: अपने देश के सम्मुख इस समय सबसे प्रमुख समस्या विदेशी आर्थिक प्रभुत्व सम्बन्धित आक्रमण का प्रतिकार करने की है । स्वाधीनता की दूसरी लड़ाई या विदेशी आर्थिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध युद्ध करना ही प्रत्येक देशभक्त का अब राष्ट्रीय कर्तव्य बन गया है ।
विचारणीय विषय की सीमा-रेखाओं को प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देना बहुत आवश्यक है, अन्यथा शीर्षक से यह भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि इसमें भावी समाज की रूपरेखा का वर्णन किया गया होगा । परन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है। इसका कारण यह है कि रूपरेखा तैयार करने की आवश्यकता तभी अनुभव होती है, जब उसे लागू करने की स्थिति आ गई हो । इसलिये सामाजिक ढाँचे का पुनर्निर्माण करने वाले व्यक्ति कभी भी कोरे किताबी-ज्ञान का आँख मूँदकर सहारा नहीं लेते । यदि ऐसा न होता तो राष्ट्र-निर्माता लेनिन ने सोवियत राष्ट्र निर्माण के प्रारम्भिक चरण में कभी भी यह न कहा होता कि उसका कम्युनिज्म केवल रूस का सोवियतीकरण और विद्युतीकरण करना चाहता है और एक तकनीकी व्यक्ति बीस कम्युनिस्टों के बराबर होता है । जहाँ तक विकास के विभिन्न चरणों की विस्तृत रूपरेखा और विशिष्ट प्रश्नों के क्रियात्मक हल खोजने की बात है मार्क्स और एंजिल्स ने उन पर कोई चर्चा नहीं की क्योंकि वे उसे कल्पनालोक की उड़ान मानते थे । इस संबंध में मार्क्स का तो यह कहना था कि, “मेहनतकश वर्ग के पास लागू करने के लिए किसी बने बनाए आदर्श राज्य की संकल्पना नहीं है और वे किन्हीं आदर्शों से बंधे नहीं हैं । परन्तु वे नवीन समाज को उन तत्वों से पूरी तरह मुक्ति दिला देंगे जिनसे नष्टप्राय बुर्जुआ समाज इस समय गहरी पीड़ा का अनुभव कर रहा है ।” कम्युनिस्टों का काम “भावी समाज की संगठनात्मक संरचना के लिए काल्पनिक व्यवस्थाओं की चिंता करना नहीं है । अत: उसकी विस्तृत-रूपरेखा प्रस्तुत करने का तो प्रश्न ही नहीं खड़ा होता । भावी समाज में खाद्यान्न वितरण और रहन-सहन की क्या व्यवस्था होगी, इन पर विचार करना कल्पनालोक में उडान भरने के सिवा कुछ भी नहीं है । अत: भविष्य में कायम होने वाले कम्युनिस्ट समाज के लोग उन बातों के लिए तनिक भी चिंतित नहीं होंगे जिनके सम्बन्ध में हम सोचते हैं कि उन्हें चिंता करनी चाहिए ।”
एक बार पंडित दीनदयाल उपाध्याय से जब किसी ने भावी समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करने से सम्बन्धित प्रश्न किया था, तब उन्होने प्रश्नकर्ता से यही पूछा कि “क्या आप भावी पीढी के हाथ पहले से ही बाँध देना चाहते हैं?” इसी तरह श्री एम०एन० राय ने भी अपने नव-मानवतावाद के आधार पर आदर्श समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करना उचित नहीं समझा क्योंकि वह एक ऐसी काल्पनिक व्यवस्था का चित्रण करना होता है, जिसे उनके अनुयाई अपने लिए अन्तिम सत्य समझ लेते । लेकिन इसमे यह अर्थ भी निकल रहा था कि उस काल्पनिक व्यवस्था को पा लेने के बाद प्रगति और विकास की अब कोई संभावना शेष नहीं रह गई है । दूसरे शब्दों में इससे समाज निश्चेष्ट और गतिहीन हो जाता ।
अत: संरचना की रूपरेखा की मांग करना व्यावहारिक न होकर पूरी तरह कल्पना जगत से संबंधित है और जब तक उसको लागू करने की स्थिति न उत्पन्न हो जाए तब तक उसकी चिंता करना अबुद्धिमत्तापूर्ण कदम के सिवा कुछ भी नहीं है ।
एक अन्य गलतफहमी यह भी हो सकती है कि अपनी सांस्थनिक संरचना पूरी तरह से एक आन्तरिक मामला है इसमें कोई संदेह भी नहीं है कि यह पूरी तरह आंतरिक मामला ही है फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि इस आंतरिक सांस्थनिक संरचना को बाहरी तत्व प्रभावित न करते हों । इसी तरह यद्यपि हमने यह घोषणा कर रखी है कि हमारी विदेश नीति का उद्देश्य विश्व शांति और मानव-कल्याण को ध्यान में रखते हुए अपने महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा करना है, फिर भी अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियाँ, पड़ोसी देशों के साथ हमारे सम्बन्ध और प्रतिरक्षा संबंधी आवश्यकताएं आदि ऐसे गंभीर तत्व हैं जो कि इस संरचना पर अपना गहरा असर डालते हैं । इसलिए शास्त्रकारों ने यह कहा है कि “शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र-चिन्ता प्रवर्तते ॥”
अपने देश की राष्ट्रीय प्रभुसत्ता को इस समय राजनीतिक अथवा सैनिक आक्रमण से भी अधिक गंभीर खतरा विदेशी पूंजी के बढते हुए विस्तार और उसकी पिछलग्गु बनी भारतीय एकाधिकारवादी पूंजी से है । अपनी पूंजी और उन्नत तकनीक के आधार पर विदेशी लोग अपने आर्थिक साम्राज्य के विस्तार की प्रक्रिया में लगे हुए हैं और दुर्भाग्यवश हमारे बहुत से राजनेता, उनके हाथों बिक चुके हैं । अत: अपने देश के सम्मुख इस समय सबसे प्रमुख समस्या विदेशी आर्थिक प्रभुत्व सम्बन्धित आक्रमण का प्रतिकार करने की है। स्वाधीनता की दूसरी लडाई का विदेशी आर्थिक साम्राज्यवाद के विरूद्ध युद्ध करना ही प्रत्येक देशभक्त का अब राष्ट्रीय कर्तव्य बन गया है । आपद्- धर्म के अंश के रूप में इस युद्ध के लिए अपनाई जाने वाली व्यूह रचना या युद्ध-नीति अपने देश की सांस्थानिक संरचना को निकट भविष्य में प्रभावित करने वाली अवश्य होनी चाहिए ।
किसी भी गँभीर विचार-मंथन के लिए उपयुक्त संदर्भ बिन्दुओं की आवश्यकता सभी स्वीकार करते हैं । वर्तमान संदर्भ में धर्म तत्व का ही सबसे पहले विवेचन आवश्यक हो जाता है ।
‘धर्म’ एक ऐसा शब्द है जिसकी व्याख्या की जानी जरूरी है । इसका कारण यह है कि ‘धर्म’ शब्द को पंथ या ‘रिलीजन’ का पयार्यवाची मानकर उसे पंथ-निरपेक्षता या ‘सेकुलरिज्म’ का विरोधी मान लिया जाता है और इसी आधार पर अनेक विवेकशील बुद्धिजीवियों को भी इस शब्द से चिढ़ सी हो गई है । पंथ-निरपेक्षता या सेकुलरिज्म पर सार्वजनिक वाद-विवाद आज भी चल रहा है और जब तक पंथ निरपेक्ष (सेकुलर), पंथ (रिलीजन) और धर्म आदि शब्दों का पूरी अवधारणात्मक स्पष्टता और बौद्धिक ईमानदारी के साथ विश्लेषण नहीं कर लिया जाता तब तक इस विषय पर किया गया कोई भी चिन्तन व्यर्थ ही सिद्ध होगा ।
‘पंथ –निरपेक्षता’ शब्द का अपने देश में बहुत ही गलत अर्थ लगाया गया है । यही कारण है कि संविधान सभा से लेकर श्री पी. सी. चटर्जी की रचना ‘पंथ-निरपेक्ष भारत के लिए पंथ-निरपेक्ष जीवन-मूल्य’ (सेकुलर वैल्यूज फोर सेकुलर इण्डिया) तक में पंथ -निरपेक्षता की अवधारणा को लेकर लगातार बहस चल रही है । ‘पंथ-निरपेक्ष’ शब्द का सीधा अर्थ पारलौकिक जगत से संबंध न होकर सांसारिक जगत से संबंध रखना है। या उसका आशय आध्यात्मिक और चर्च से संबधित मामलों से न होकर भौतिक और नागरिक वस्तुओं से होता है । इसीलिए पंथ-निरपेक्षता का अर्थ राज्य को किसी पंथ या, मजहब (रिलीजन) से मुक्त रखना बताया गया है और उसके अन्तर्गत चर्च और राज्य एक दूसरे से पूरी तरह अलग होते हैं । जहाँ तक भारत का संबंध है, यहाँ तो राज्य सर्वदा ही पंथ-निरपेक्ष रहा है । पूज्य श्री गुरुजी प्राय: कहा करते थे कि हिन्दुस्थान के इतिहास में राज्य सदैव पंथों से ऊपर या पंथ-निरपेक्ष रहा है और हिन्दू राज्य निरपवाद रूप में पंथ-निरपेक्ष राज्य रहा है ।
इस विषय में डा० बाबा साहब अम्बेडकर का कहना था कि “इसका (पंथ-निरपेक्ष राज्य) अर्थ यह नहीं है कि लोगों की मजहबी भावनाओं का ध्यान नहीं रखा जाएगा । पंथ-निरपेक्ष राज्य का सीधा अर्थ बस यही है कि इस संसद को किसी विशेष पंथ मजहब को शेष देशवासियों के ऊपर लादने का कोई अधिकार नहीं होगा । केवल इसी मर्यादा या सीमा रेखा को संविधान ने मान्यता दी है । पंथ-निरपेक्षता का अर्थ मजहब या उपासना पंथ को समाप्त करना नहीं है ।”
अपने संपूर्ण जीवन में उपासना, मजहब या पंथ से संबंधित प्रत्येक वस्तु की अत्यंत निष्ठापूर्वक निन्दा करने वाले श्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में पंथ या मजहब (रिलीजन) शब्द के विषय में लिखा था कि “कुछ शब्द बहुत अधिक प्रचलित हो जाने के बावजूद अपनी अभिव्यक्ति कभी भी ठीक रूप में नहीं कर पाते और उनके अनेक अर्थ लिए जाते हैं । संभवत: पंथ या मजहब (या अन्य भाषाओं में उसके पर्यायवाची) शब्द को छोड़कर कोई भी ऐसा दूसरा शब्द नहीं है जिसकी विभिन्न लोग विभिन्न प्रकार से व्याख्या करते हैं । इसीलिए इस शब्द को सुनने या पढ़ने से किन्हीं भी दो व्यक्तियों में समान विचारों और भावनाओं की प्रतिक्रिया नहीं होती । सच तो यह है कि ‘रिलीजन’ शब्द अपना सुनिश्चित महत्व (यदि उसका कभी ऐसा कोई सुनिश्चित महत्व था) तो कभी का खो चुका है और उसके अलग-अलग अर्थ किए जाने से केवल भ्रांति और व्यर्थ का लम्बा विवाद ही उत्पन्न होता है । अत: अच्छा और उचित तो यही होगा कि इस शब्द का प्रयोग पूरी तरह बन्द कर दिया जाए और उसके स्थान पर अधिक सीमित और स्पष्ट अर्थ का बोध कराने वाले धर्म विज्ञान (थियोयॉजी ), दर्शन, नैतिकता, नीति शास्त्र, आध्यात्मिकता, तत्व मीमांसा (मेटा- फिजिक्स) कर्तव्य, अनुष्ठान सबंधी आदि शब्दों का प्रयोग करना शुरु कर दिया जाए ।” इसके विपरित गांधीजी का इस विषय में यह अभिमत है कि “कुछ लोग अपने बुद्धि और तर्क सबंधी अहंकार के नशे में आकर बड़े गर्व से यह घोषणा करते है कि उनका रिलीजन (धर्म) से कोई लगाव नही है । लेकिन उनका यह कथन ऐसा ही है जैसे कि एक व्यक्ति यह कहे कि वह सांस तो लेता है पर उसके नाक नहीं है।” अपने कथन को और अधिक स्पष्ट करते हुए गांधीजी ने कहा था कि “सत्य के प्रति अपनी गहरी निष्ठा के कारण मैं राजनीतिक क्षेत्र में आया हूँ और पूर्ण विनम्रता के साथ-साथ बिना किसी संकोच के मैं यह कह सकता हूँ कि जो लोग यह कहते हैं कि राजनीति का रिलीजन (धर्म) से कोई संबंध नहीं है, वे वस्तुत: रिलीजन (धर्म) का मर्म या वास्तविक अर्थ ही नहीं समझते ।” संभवत: यह अधिक उचित होता यदि महात्मा जी यह कहते कि राजनीति को रिलीजन (धर्म) से अलग करने वाले अधिकांश व्यक्ति उसका वह अर्थ ले रहे हैं जो कि उनके द्वारा इस शब्द के लिये प्रयुक्त अर्थ से सर्वथा भिन्न है । गांधी जी की इस व्याख्या से यह स्पष्ट है कि उन्होंने रिलिजन शब्द का प्रयोग नैतिकता के अर्थ में किया है जो कि रिलीजन की आलोचना करने वालों से बिल्कुल भिन्न है! फलस्वरूप एक ही शब्द का विभिन्न अर्थो में प्रयोग करने से अस्पष्टता और बढ जाती है ।
इस स्थिति में हमें स्वत: प्रभु ईसा के उन शब्दों का स्मरण हो आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि “अक्षर मारता है और भावना जीवन प्रदान करती है।” इस संदर्भ में श्री हुमायू कबीर द्वारा उद्धृत विलियम केप के निम्न शब्द बहुत अधिक विचारणीय है-
“असमान मतों, सिद्धांतों और विश्वास की परस्पर विरोधी व्यवस्थाओं में समायोजन करके उन्हें संयुक्त करने की जो क्षमता हिन्दू संस्कृति में है, वह उसके किसी अन्य तत्व की अपेक्षा उसकी अनूठी जीवन शक्ति और चिरन्तन शक्ति का परिचायक है । असमान तत्वों को समायोजित करके उनके सम्मिश्रण से विविधता में एकता प्रस्थापित करने की उसकी यह कार्यक्षमता सम्भवत: संपूर्ण मानवीय इतिहास में बेजोड़ है और उसके दर्शन हमें अन्यत्र कहीं नहीं होते ।”
केप का आगे यह भी कहना है कि “वस्तुत: आन्तरिक चित्तवृत्तियों और सम्बन्धों की परिधियों के जितने अधिक मानदण्ड होंगे उतने ही अधिक सत्य के स्वरूप और यथार्थ के उतने ही अधिक पहलू होंगे । हिन्दू मस्तिष्क में सहिष्णुता का मन तो इस समाज की उस आन्तरिक चित्तवृत्ति में निहित है जो यह मानती है कि प्रत्येक चित्तवृत्ति यथार्थ के किसी एक विशेष पहलू का स्वरूप हमारे सम्मुख स्पष्ट करती है । इसके स्थान पर यूरोपीय दर्शन परस्पर विरोधी विचारों की श्रेणियों को नामंजूर कर देता है और यूरोपीय विचार दर्शन यथार्थ का चित्रण स्पष्ट पारिभाषिक शब्दावली में उसे अन्य वास्तविकताओं से अलग करके निरपेक्ष या परम सत्य के रूप में करने का प्रयास करता है। इसके विपरित हिन्दू ज्ञान-शास्त्र में सत्य के किसी भी स्वरूप को अमान्य न करके उनके विविध पक्षों एवं श्रेणियों को मान्यता दी गई है ।"
केप हिन्दू जीवन-दर्शन और यूरोपीय विचारधारा की तुलना यहीं तक करके रुक नहीं जाता । उसका आगे कहना है कि “योरोपीय विचार दर्शन ने यथार्थ की व्याख्या परम सत्य या परम भ्रांति के संदर्भ में करने का प्रयास किया हैं । इससे उसे प्रगाढ़ता और दृढ़ता के गुण तो अवश्य प्राप्त हुए पर उसने सत्य के प्रति यूरोप के दृष्टिकोण को हठधर्मिता और संकुचितता पर आधारित कर दिया । दूसरी ओर भारतीय दर्शन ने अति प्राचीन काल से इस तथ्य को मान्यता दी है कि यथार्थ या सत्य के अनेक पहलू होते हैं और उन्हें परस्पर विरोधी परिशुद्ध विचार श्रेणियों में आबद्ध नहीं किया जा सकता । भारतीय दर्शन ने सत्य का विश्लेषण जिस तुला पर आधारित किया है, सम्भवत: यरोपीय तत्व मीमांसा में उसके लिए कोई स्थान नही है ।”
इस पृष्ठभूमि में भारतीय जीवन रचना, परिस्थितियों और विचार-दर्शन का मूल्यांकन पश्चिमि मानदण्डों के आधार पर करना सदैव खतरे से परिपूर्ण है । विचार-दर्शन के विकास की बात को एक और रखकर हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि भौतिकवादी तत्व भी यूरोपीय इतिहास के समान तीसरी दुनिया के देशों में पुनरावृत्ति करने वाले नहीं हैं ।
नवीन लक्ष्य की आवश्यकता
औद्योगिक क्रान्ति के समय संयोगवश कुछ ऐसी घटनाएँ हुई जिससे पश्चिमी जगत के राष्ट्रों को बहुत अधिक लाभ हुआ । इन घटनाओं में हवाई यातायात का युग आने से पहले समुद्री-मार्गों के भू-राजनीतिक महत्व में वृद्धि, कच्चे माल की बहुलता और प्रभावी विपणन क्षमता वाले देशों का अपने आन्तरिक व्यापार और वाणिज्य के विकास में तल्लीन, नौ सैनिक शक्ति वाले राज्यों के लिए विशाल साम्राज्य निर्माण हेतु अनुकूल परिस्थितियों, उपनिवेशों के शोषण के आधार पर अपनी आन्तरिक अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाए रखने की व्यावहारिकता आदि शामिल थे । लेकिन तीसरी दुनिया के देशों के लिए ऊपर गिनाई गई ये परिस्थितियाँ लौटकर आने वाली नहीं हैं । गोरे राष्ट्रों की सम्पन्नता और समृद्धि जिन तत्वों पर आधारित थी, वे अब अश्वेत राष्ट्रों को उपलब्ध नहीं होंगे । अत: पश्चिमी देशों की नकल करने और उन्हें अपना आदर्श, प्रतिमान मानने का कोई औचित्य शैष नहीं रह जाता ।
पश्चिमी देशों के उदाहरणों की विफलता और ऐतिहासिक घटनाक्रम में स्पष्ट दिखाई देने वाली भिन्नता को ध्यान में रखकर विकास और प्रगति हेतु प्रयत्नशील सभी राष्ट्रों को अपने लिए नए लक्ष्यों का निर्धारण करना बहुत आवश्यक हो गया है । इसलिए अब हमें अपनी राष्ट्रीय संस्कृति, अपनी पुरानी परम्परा, वर्तमान आवश्यकताओं और भविष्य की आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर अपनी प्रगति और विकास का प्रतिमान सुनिश्चित करना चाहिए । हमें पश्चिमी प्रतिमानों या उदाहरणों का गहराई से अध्ययन विश्लेषण करना चाहिए और यदि संभव हो तो उनसे लाभ भी उठाना चाहिए । लेकिन उन्हें अपने भावी विकास का आदर्श प्रतिमान मानने की गलती नहीं करनी चाहिए । इसी तरह धर्म से प्रेरणा प्राप्त करने की अपनी परंपरा को हमें नहीं छोड़ देना चाहिए और इस बात की चिन्ता करनी चाहिए कि कछ व्यक्तियों ने धर्म को पंथ या रिलीजन का पर्यायवाची मानकर उसे पंथ -निरपेक्षता या सेकुलरिज्म का विरोधी बताने की जो गलती की है वह कभी भी उचित नहीं है ।
सच्ची पंथ - निरपेक्षता
पंथ-निरपेक्षता या सेकुलरिज्म से संबंधित संपूर्ण विवाद पश्चिमी जगत की देन है । इस संबंध में ईसाइयत के वेदवाक्य की घोषणा करते हुए संत मार्क ने कहा था कि “जो सीजर (राजा) का है वह उसे और जो ईश्वर का है वह उसे दो ।” इस प्रकार संत मार्क ने सांसारिक और पारलौकिक गतिविधियों में लक्ष्मण रेखा खींचने का प्रयास किया था (जो कि यूनानी और रोमन नगर-राज्यों की अवधारणा से अलग था, जिसमें राज्य सत्ता मानवीय जीवन के दोनों पहलुओं का नियंत्रण करती थी) सन् ३१२ ईस्वी मे इटली के मिलान राज्य द्वारा घोषित राजाज्ञा या आदेश पत्र संत मार्क के ऊपर बताए गए इसी वेदवाक्य की सम्पुष्टि करता है ।
ईसाइयत की दीक्षा प्राप्त कर लेने के बाद सम्राट कान्स्टेटाइन ने ‘ईसाइयत’ को अपने राज्य द्वारा मान्य मजहब घोषित कर दिया और सन् ३४६ ईस्वी में सभी गैर-ईसाई मंदिरों पर ताले लगा दिए । इसके बाद यूरोप में चर्च और राज्य एक के बाद एक-दूसरे पर प्रभुत्व जमाने का प्रयास करते रहे ।
पंथ-निरपेक्षता या सेकुलरिज्म का दार्शनिक आधार जेरेमी बेन्थम और जेम्स मिल के उपयोगितावाद में निहित है जिसे उन्होंने थामस पैन और रिचर्ड कार्लाइल के उपासना-विरोधी कट्टर विचारों से प्राप्त किया था । उपयोगितावाद ने पंथ-निरपेक्षता या सेकुलरिज्म को दोहरा तात्विक आधार प्रदान किया। विश्वास की स्वतंत्रता और मानवीय व्यक्तित्व का विकास और समाज के निर्माण में मजहब या रिलीजन तत्व की पूर्ण अनुपस्थिति । समाज-निर्माण की अति महत्वपूर्ण प्रक्रिया से मजहब या रिलीजन को निकाल बाहर करने के लिए यहाँ तक कहा गया “मकान या भवन का नक्शा बनाने वाले वास्तुकार की सलाह के बिना भी उन सभी उद्देश्यों को पूरा किया जा सकता है जिनके लिए भवन के नक्शे का निर्माण वास्तुकार द्वारा कराया गया था ।” कहने का अर्थ यह था कि मजहब या रिलीजन की देवी सत्ता के बिना भी लौकिक या सांसारिक जीवन को सुखी और सम्पन्न बनाया जा सकता है ।
राजनीतिक दृष्टि से पंथ-निरपेक्षता का विकास सन् १८३२ के सुधार कानून में पढ़ने और बाद की उथल - पुथल भरी परिस्थितियों का परिणाम है और आंशिक रूप में उसे रॉबर्ट ओवेन के समाजवाद तथा चार्टिस्ट आन्दोलन ने प्रेरणा प्रदान की थी । पंथ -निरपेक्षता या सेकुलरिज्म शब्द की उत्पत्ति जार्ज जैकब होलियांक के जीवन और परिश्रम का परिणाम है जिसे उसने सन् १८५० में ब्रैडले से भेंट के बाद सन् १८५१ में प्रचलित किया था । होलियांक् ने उस समय जोर देकर कहा था कि पंथ निरपेक्षता का मजहब या रिलिजन से संबंध आपसी विरोध पर न आधारित होकर दोनों कीअपनी-अपनी विशिष्टता और स्वायतता को बनाये रखने में है। दूसरी और ब्रैडले का विश्वास था कि पंथ निपेक्षता या सेकुलरिज्म में ईश्वर के अस्तित्व को अमान्य किया जाना आवश्यक है।
संयुक्त राज्य अमेरिका में मजहब या रिलीजन पर आधारित स्वतंत्रता अन्य सभी तरह की स्वतंत्रताओं का मूल है । जबकि युरोप में उसकी प्राप्ति सबसे बाद में,यहाँ तक कि राजनैतिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद ही की जा सकती है।
अमेरिका में पंथ या रिलिजन के प्रति गहरे सम्मान की भावना होने के कारण मजहबी स्वतंत्रता वहाँ के समाज और विचार -दर्शन में अपनी गहरी जड़े जमाए हुए है। दूसरी और योरोप में मजहबी स्वतंत्रता पंथ, मजहब या रिलिजन के प्रति उदासीनता और विरोध के कारण लोगों को प्राप्त हुई है।
पंथ-निरपेक्षता या सेकुलरिज्म के प्रति अमेरिका के आधिकारिक दृष्टीकोण को सन् १७९१ में अमरीकी संविधान में किये गये प्रथम संशोधन (और उसके बाद एक शताब्दी से भी अधिक समय के उपरान्त) सन् १९४० के कैण्टबेल बनाम कनक्टीकर राज्य संबंध मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किये गए निर्णय में देखा जा सकता है ।
अत: हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भावी भारत की सांस्थानिक संरचना का विकास करते समय उस मजहब पंथ या रिलीजन के प्रभाव से मुक्त रखना आवश्यक है । उसका विकास तो सनातन धर्म के सार्वभौमिक नियमो के आधार पर किया जाना चाहिए । इसी तथ्य को ध्यान में रखकर डाक्टर अम्बेडकर ने कहा था कि मजहब, पंथ या रिलीजन पूरी तरह व्यक्ति से संबंधित व्यक्तिगत विषय है जबकि धर्म का स्वरूप सामाजिक होने के कारण व्यापक हैं ।
कठिनाई तब खड़ी होती है जब हमारे देश के कुछ बुद्धिजीवी भारतीय स्थिति का समायोजन कृत्रिम रूप से योरोप के हठवादी विचार-दर्शन के आधार पर करने का प्रयास करते हैं । पर एसा करते समय वे इम महत्त्वपूर्ण सच्चाई की उपेक्षा कर देते हैं कि दर्शन से संबंधित वैचारिक क्षेत्र का एतिहासिक विकास पूर्व और पश्चिम में एक समान नहीं रहा है । ***