राष्ट्र ऋषि श्रद्धेय श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी का जन्म 10 नवम्बर, 1920 को, दीपावली के दिन, महाराष्ट्र के वर्धा जिला के आर्वी नामक ग्राम में हुआ। दत्तोपंत जी के पित्ताजी श्री बापूराव दाजीबा ठेंगड़ी, सुप्रसिद्ध अधिवक्ता थे, तथा माताजी, श्रीमति जानकी देवी, गंभीर आध्यात्मिक अभिरूची से सम्पन्न, साक्षात करूणामूर्ति, और भगवान दतात्रेय की परम भक्त थी। परिवार में एक छोटा भाई और एक छोटी बहन थी।

श्रद्धेय दत्तोपंत जी की 11वीं तक की शिक्षा, आर्वी म्युनिशिपल हाई स्कूल में सम्पन्न हुई। बाल्यकाल से ही, उनकी मेधावी प्रतिभा तथा नेतृत्व क्षमता की चर्चा सब ओर थी। 15 वर्ष की अल्पायु में ही, आप आर्वी तालुका की ‘‘वानर सेना’’ के अध्यक्ष बने। अगले वर्ष, म्युनिशिपल हाई स्कूल आर्वी के छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गये। 1936 में, नागपुर के ‘‘मौरिस कॉलेज’’ में दाखिला लेकर अपनी स्नातक की पढाई पूरी की और फिर, नागपुर के लॉ कॉलेज से, एल. एल. बी. की उपाधि प्राप्त की। मौरिस कॉलेज में अध्ययन के दौरान, आप सन् 1936-38 तक क्रान्तिकारी संगठन ‘‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसियेसन’’ से सम्बन्ध रहे। श्रद्धेय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी अपने बाल्यकाल से ही, संघ शाखा में जाया करते थे। हालांकी वह अनियमित स्वयंसेवक थे। फिर भी अपने सहपाठी और मुख्य शिक्षक श्री मोरोपंत जी पिंगले के सानिध्य में, दत्तोपंत जी ने, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघ शिक्षा वर्गों का तृतीय वर्ष तक का शिक्षण क्रम पूरा किया। 1936 से नागपुर में अध्यनरत रहने तथा माननीय मोरोपंत जी के सानिध्य के कारण दत्तोपंत जी को परम पूजनीय डॉक्टर जी को प्रत्यक्ष देखने, सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आगे चलकर परम पूजनीय श्री गुरूजी का अगाध स्नेह और सतत मार्गदर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

दिनांक 22 मार्च 1942 को संघ के प्रचारक का चुनौती भरा दायित्व स्वीकार कर आप सुदूर केरल प्रान्त में संघ का विस्तार करने के लिए ‘‘कालीकट’’ पहुंचे। 1942 से 1945 तक रा. स्व. संघ प्रचारक के नाते यशस्वी कार्य खड़ा करने के साथ ही, 1945 से 1947 तक, कलकत्ता मेें, संघ के प्रचारक के नाते, तथा 1948 से 49 तक बंगाल.असम प्रान्त के प्रान्त प्रचारक का दायित्व सम्पादन किया। इस समय राष्ट्रीय परिदृष्य में, भारत विभाजन, तथा पूज्य महात्मा जी की हत्या से उत्पन्न परिस्थितियों का बहाना बनाकर संघ पर आरोपित प्रतिबंध और देशभक्तों द्वारा अन्यायकारी प्रतिबंध के विरूद्ध देशव्यापी सत्याग्रह, इसी बीच जून माह में, सरकार के साथ बातचीत का घटनाक्रम तेजी से घटा और श्री वेंकटराम शास्त्री की मध्यस्थता में, सरकार ने संघ पर लगाया गया प्रतिबंध वापिस लिया। ऐसे चुनौती पूर्ण समय में, श्रद्धेय दत्तोपंत जी को बंगाल से वापिस बुला लिया गया और 9 जुलाई, 1949 को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना की औपचारिक घोषणा हुई। और, दत्तोपंत जी को, विद्यार्थी परिषद के संस्थापक सदस्य तथा नागपुर विदर्भ के प्रदेशाध्यक्ष के नाते जिम्मेदारी दी गई। श्री दत्ताजी डिडोलकर को महामंत्री तथा बबनराव पाठक को संगठन मंत्री का

दायित्व दिया गया।

1949 में ही परम पूजनीय श्री गुरूजी ने, श्रद्धेय दत्तोपंत जी को, मजदूर क्षेत्र का अध्ययन करने को कहा। इस प्रकार दत्तोपंत जी के जीवन में एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। ऐसा लगता है, मानो, मजदूर आन्दोलन दत्तोपंत जी के लिये ईश्वर प्रदत कार्य था। विद्यार्थी परिषद के जन.जागरण कार्यक्रमों के दौरान, कांग्रेस से सम्बन्धित, इण्डियन नेशनल ट्रेड युनियन कांग्रेस (इंटक) के प्रदेश अध्यक्ष श्री पी. वाय. देशपाण्डे जी से अच्छा सम्पर्क आया था। उसी का लाभ लेते हुए दत्तोपंत जी ने इंटक में प्रवेश किया। अपनी प्रतिभा और संगठन कौशल के बल पर थोड़े समय में ही इंटक से सम्बधित नो युनियनों ने, श्रद्धेय ठेंगड़ी जी को, अपना पदाधिकारी बना दिया। अक्टुबर 1950 में, श्री दत्तोपंत जी को इंटक की राष्ट्रीय परिषद का सदस्य बनाया गया तथा साथ ही तत्कालीन मध्य प्रदेश के इंटक के प्रदेश संगठन मंत्री चुने गये। श्रद्धेय दत्तोपंत जी, कहते थे – ‘‘पूजनीय श्री गुरूजी का यह आग्रह था कि, केवल इंटक की कार्यपद्धति जानना प्रर्याप्त नहीं है। कम्यूनिस्ट यूनियन्स और सोशलिस्ट यूनियन्स की कार्य पद्धति भी जाननी चाहिये।”

श्रद्धेय दत्तोपन्त जी ने इस दिशा मे प्रयत्न प्रारंभ किये और 1952 से 1955 के कालखंड में श्री दत्तोपंत जी, कम्युनिस्ट प्रभावित ‘‘ऑल इण्डिया बैंक एम्पलाइज एसोशियेशन’’ (AIBEA) नामक मजदूर संगठन के प्रांतीय संगठन मंत्री रहे। 1954 से 55 में आर. एम. एस. एम्पलॉइज युनियन नामक पोस्टल मजदूर संगठन के वे सेन्ट्रल सर्कल (अर्थात् आज का मध्यप्रदेश, विदर्भ, और राजस्थान) के अध्यक्ष इसी कालखंड में (1949 से 19551) श्री ठेंगड़ी जी ने कम्युनिज्म का गहराई से अध्ययन किया। कम्युनिज्म के तत्व ज्ञान और कम्युनिस्टों की कार्य पद्धति आदि विषयों पर पूज्य श्री गुरूजी से वे रात के कई घंटों तक विस्तृत चर्चा किया करते थे। (शून्य से सृष्टि तक पृ. इस प्रकार पूज्य लोकमान्य तिलक की सौवीं (100वीं) जयन्ति के अवसर पर, देश के अन्यान्य प्रान्तों से आये हुए 35 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में, 23 जुलाई 1955 को, भोपाल में, भारतीय मजदूर संघ की, एक अखिल भारतीय केन्द्रीय कामगार संगठन के रूप में स्थापना की गई।

सनातन धर्म के वैचारिक अधिष्ठान, आलौकिक संगठन कौशल्य, परिश्रम की पराकाष्ठा, अचल धयेयनिष्ठा, विजयी विश्वास, और पूज्य श्री गुरूजी के सतत मार्गदर्शन के बल पर, श्रद्धेय दत्तोपंत जी ने, मात्र तीन दशक में ही, उस समय के सबसे बड़े, और कांग्रेस से सम्बन्ध मजदूर संगठन इण्डियन नेशनल ट्रेड युनियन कॉग्रेस INTUC को पीछे छोड़ दिया। सन् 1989 में, भारतीय मजदूर संघ की सदस्य संख्या 31 लाख थी, जो कम्युनिस्ट पार्टियों से सम्बन्ध, एटक AITUC तथा सीटू CITU की सम्मलित सदस्यता के भी अधिक थी। सन् 2002 में, भारतीय मजदूर संघ 81 लाख सदस्यता के साथ भारत का विशालतम श्रम संगठन बन गया, देश के सभी अन्यान्य केन्द्रीय श्रम संगठनों की कुल सदस्यता से कहीं अधिक थी, भारतीय मजदूर संघ की सदस्य संख्या।

हिन्दू जीवन मूल्यों के आधार पर, प्रकृति से गै़र–राजनैतिक और वैचारिक दृष्टि से प्रखर राष्ट्रवादी, स्वायत और स्वयंशासी भारतीय मजदूर संघ नामक जन संगठन खड़ा किया। पूज्य श्री गुरूजी ने, एक नवम्बर 1972 को ठाणे बैठक में कहा, ‘‘ जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने सोचा कि मजदूर क्षेत्र में भारतीय मजदूर संघ स्वंतत्र रूप से काम करें और इसका संगठन दत्तोपंत ठेेंगड़ी खड़ा करें तो यह काम उन पर सौंप दिया गया। उन्होंने बड़े परिश्रम किए, अपने कार्यकर्ताओं की सहानुभूति और सहायता थोड़ी बहुत होगी ही, परन्तु उन्होंने अकेले यह कार्य किया, जिसको अंग्रेजी में ‘सिंगल हैंडिड’ कहते है। अब भारतीय मजदूर संघ का बोलबाला भी काफी हो गया है और श्रमिक क्षैत्र में यह एक शक्ति के रूप में खड़ा हो गया है। इसका प्रभाव बढता ही जा रहा है। अभी ऐसी स्थिति है कि मजदूर क्षैत्र में काम करने वाले जो अन्यान्य संगठन है, उनके पास, ठोस विचार देने वाले व्यक्ति कम है, वे केवल आंदोलन के भरोसे, ‘हो हल्ला’ मचाकर अपनी लोकप्रियता बढाने का प्रयत्न करते है। मजदूर क्षैत्र के लिए ठोस.योग्य विचार देने की क्षमता अभी इस भारतीय मजदूर संघ में ही हमें अधिक मात्रा में दीखती है।’’ (शून्य से सृष्टि तक)

पूज्य श्री गुरूजी और दत्तोपंत जी के सम्बन्ध कैसे थे? मैं माननीय पी. परमेश्वरन जी की साहित्यक भाषा का उपयोग करना चाहता हूं। श्री परमेश्वरन जी लिखते है, ‘‘श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी, उन थौड़े लोगों में से थे, जो परम पूज्य श्री गुरूजी की मनोरचना (Mind) को समझने में समर्थ थे। अगर परम पूज्य श्री गुरूजी, सनातन धर्म के हिमालय से निकलने वाली गंगोत्री थे, तो दत्तोपंत जी, को उस पवित्र जल में, गहरी डुबकियां लगाने का सुअवसर प्राप्त हुआ था।’’

भारतीय मजदूर संघ की स्थापना के कालखंड में भी श्रद्धेय दत्तोपंत जी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्षेत्र के अनेक समानान्तर दायित्वों का, साथ–साथ निर्वहन कर रहे थे। इसी कालखंड में, 1949 से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक सदस्य, हिन्दुस्तान समाचार के संगठन मंत्री, 1951 से 53, संगठन मंत्री, भारतीय जनसंघ, मध्यप्रदेश 1956 से 57 संगठन मंत्री, भारतीय जनसंघ, दक्षिणांचल।

दत्तोपंत जी के व्यक्तित्व का चित्रण करते हुए भानुप्रताप शुक्ल लिखते है, ’’रहन–सहन की सरलता, अध्ययन की व्यापकता, चिन्तन की गहराई, ध्येय के प्रति समर्पण, लक्ष्य की स्पष्टता, साधना का सातत्य और कार्य की सफलता का विश्वास, श्री ठेंगड़ी का व्यक्तित्व रूपायित करते है।’’

1964 से 1976 तक दो बार उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने गये। राज्यसभा में जाने का निर्णय हुआ तो दत्तोपंत जी कहते है, ‘‘मैंने पूज्य श्री गुरूजी से पूछा कि मुझे राज्यसभा में काहे के लिए भेज रहे हो? श्री गुरूजी विनोद करते हुए बोले, ‘‘जाओ, भाषण दो, विश्राम करो, बहुत परिश्रम किया है।’’, क्षणभर में ही गम्भीर स्वर में बोले, ‘‘एक और भी काम हो सकता है, राज्य सभा में अनेक दलों और अनेक विचारधाराओं के वरिष्ठ लोग आते है, उनके साथ व्यक्तिगत चर्चा, व्यक्तिगत सम्बन्ध, व्यक्तिगत मित्रता स्थापित करने का अवसर भी, है, जो आगे चलकर अपने कार्य के लिए उपयोगी हो सकता है।’’ परमपूज्य श्री गुरूजी, कितना आगे का सोचते थे, यह बात आपातकाल के विरूद्ध चलाये गये देश व्यापी आन्दोलन के समय अनुभव में आई। राज्यसभा के कार्यकाल के दौरान, देश के सभी प्रमुख राजनैतिक नेताओं से, समाजवादियों से लेकर साम्यवादियों तक, श्रद्धेय दत्तोपंत जी के अत्यन्त व्यक्तिगत सम्बन्ध होने के कारण, आपातकाल विरोधी आन्दोलन में सभी का सहयोग और विश्वास सम्पादित करना सहज सम्भव हुआ। 1964 से 1976 तक राज्य सभा के सदस्य रहते हुऐ, आपने राज्यसभा के अनेक महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। 1968 से70 तक आप राज्य सभा के उपाध्यक्ष मंडल के माननीय सदस्य रहे। 1965से 66 तक, संसद की हाऊस कमेटी के सदस्य रहे। 1968 से 70 तक सार्वजनिक उद्योग समिति के सदस्य रहे। 1969 में लोकसभा अध्यक्ष श्री नीलम संजीव रेड्डी की अध्यक्षता में, तथा राज्यसभा के सेक्रेटरी जनरल श्री बी. के. बेनर्जी के मंत्रीत्व में, भारतीय संसद के शिष्ट मंडल का सोवियत रूस जाने का कार्यक्रम तय हुआ। उस समय श्री वी. वी. गिरी राष्ट्रपति थे। श्री वी. वी. गिरी ने, इस संसदीय प्रतिनिधि मंडल में जाने के लिए श्रद्धेय दत्तोपंत जी का नाम प्रस्तावित किया। श्री वी. वी. गिरी, जो स्वयं मजदूर क्षैत्र से संबंध रहे थे, चाहते थे कि, सोवियत रूस में औद्योगिक सम्बन्धों का स्वरूप क्या है? इसका बारीकी से और निरपेक्ष भाव से अध्ययन करके, सम्यक जानकारी प्राप्त हो, क्योंकि कुछ समय बाद श्री वी. वी. गिरी भी रूस दौरे पर जाने वाले थे। 16 दिनों की सोवियत रूस की यात्रा में, उनके साथ, कम्यूनिष्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता, श्री हीरेन मुखर्जी तथा फारवर्ड ब्लॉक के श्री शिलभद्रयाजी प्रमुख थे। इस प्रतिनिधि मंडल के साथ, 16 दिनों तक सोवियत रूस तथा हंगरी की यात्रा की।

रूस यात्रा, श्रद्धेय दत्तोपंत जी के लिऐ, साम्यवाद के वास्तविक स्वरूप का बारीकी से अध्ययन करने का अपूर्व अवसर था। साम्यवादी विचारधारा का खोखलापन तथा, साम्यवादी विचारधारा के अन्तर्विरोधों का प्रत्यक्ष अनुभव करने के बाद श्रद्धेय दत्तोपंत जी ने, अथाह आत्म–विश्वासपूर्वक राष्ट्र को आश्वस्त करते हुए कहा था कि, ‘‘साम्यवाद अपने अन्तर्विरोधों के कारण, स्वतः समाप्त होने वाला है, साम्यवाद को समाप्त करने के लिए किसी को प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है।’’ देश भर में, अपने उद्बोधनों में, श्री दत्तोपंत जी ने यह उद्घोष किया, उस समय दुनियां के आधे देशों पर लाल झंडा लहरा रहा था। कोई भी जानकार व्यक्ति ऐसी बात मानना तो दूर, सोचना भी, समझदारी नहीं मानता था, ऐसे, सटीक विश्लेषक थे दत्तोपंत जी, आज, परिणाम हम सभी के सामने है।

3 अप्रेल से 19 अप्रेल 1985 को, ऑल चायना फेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन्स के निमंत्रण पर, श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी के नेतृत्व में, भारतीय मजदूर संघ का प्रतिनिधि मंडल चीन यात्रा पर गया। प्रतिनिधि मंडल में, श्री मनहर भाई मेहता, श्री रास बिहारी मैत्र, श्री वेणुगोपाल, और श्री ओम प्रकाश अग्धी शामिल थे। 17 दिवसीय चीन यात्रा के दौरान, दत्तोपंत जी ने, चीन, के समाज जीवन, औद्योगिक सम्बन्धों, मजदूर संगठनों, राज्य व्यवस्था का अत्यन्त बारीकी से अध्ययन किया। यात्रा के दौरान, चीन के मजदूर नेताओं, प्रसासनिक अधिकारियों, कम्यूनिष्ट पार्टी के नेताओं से विस्तार से चर्चा हुई। प्रतिनिधि मंडल के विदाई के अवसर पर, चीन रेडियो द्वारा, श्रद्धेय दत्तोपंत जी का विदाई संदेश रिकार्ड किया गया, जो 28 अप्रेल 1985 को सार्वजनिक रूप से प्रसारित चीन यात्रा के पश्चात, अपने देश व्यापी प्रवास के दौरान, अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा कि, ‘‘चीन में, केवल नाम मात्र के लिए कम्यूनिज्म है, चीन, कम्यूनिज्म छोड़ चुका है।’’ उन्होंने इस बात पर प्रसन्नता प्रकट की , कि, चीन के ट्रेड यूनियन्स ने, बी. एम. एस. की कार्यप्रणाली का व्यापक अध्ययन करने के बाद, हमें निमंत्रित किया था। उन्होंने कहा कि, बी. एम. एस. की त्रिसूत्री, ‘‘राष्ट्र का औद्यौगिकिकरण, उद्यौगों का श्रमिकीकरण, और श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण, ’’ की सभी ने प्रसंशा की।

3.4 मार्च 1979 में, कोटा, राजस्थान में भारतीय किसान संघ के अखिल भारतीय अधिवेशन का आयोजन कर, किसानों के अखिल भारतीय संगठन की स्थापना की। देश के बहुत बड़े, शौषित–पीड़ित और असंगठित जन समुदाय में आत्म विश्वास जाग्रत करते हुए उन्होंने आव्हान किया कि, ‘‘हर किसान हमारा नेता है’’ और नारा दिया कि, ‘‘देश के हम भंडार भरेेंगे, लेकिन कीमत पूरी लेगें।’’महापुरूषों के संकल्प सत् संकल्प होते है, और सत् संकल्प, भगवान को पूरे करने होते है। सनातन हिन्दू धर्म के अधिष्ठान पर, पूर्णतः गैर–राजनैतिक, और प्रखर राष्ट्रवाद से प्रेरित, देश का सबसे बड़ा, सबसे सक्षम, जन संगठन खड़ा हुआ। सामुहिक चर्चा, सामुहिक निर्णय और सामुहिक नेतृत्व के सिद्धान्त और व्यवहार की सफलता की स्थापना की। आज भारतीय किसान संघ, किसानों और राष्ट्र के हितों का सबल, सजग प्रहरी के नाते सभी को ध्यान में आता है।

बाबा साहेब अम्बेडकर जन्म शताब्दी के अवसर पर पुणे में, दिनांक 14 अप्रेल 1983 को सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की। यह सुखद संयोग था कि इसी दिन प. पू. डॉक्टर जी का जन्मदिन वर्ष प्रतिपदा भी था। ‘‘सामाजिक समरसता के बिना सामाजिक समता असम्भव है।’’ इस ध्येय वाक्य का उद्घोष कर, श्रद्धेय दत्तोपंत जी ने, हिन्दु समाज की अत्यन्त पीड़ादयक व्याधि के उपचार का मार्ग प्रस्सत किया। श्रद्धेय ठेंगड़ी जी को, पूज्य बाबा साहब अम्बेडकर के निकट सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पूज्य बाबा साहब के हृदय की पीड़ा को समझने का महान अवसर प्राप्त हुआ था। सर्वसमावेशी सनातन हिन्दू धर्म के अधिष्ठान पर हिन्दू समाज की एकात्मता के महान कार्य को सम्पादित करने के लिए, सामाजिक समरसता मंच के माध्यम से मार्गदर्शन प्रारम्भ किया। इसी कड़ी में, दिनांक 16 अप्रेल 1991 को नागपुर में, सर्वपंथ समादर मंच की स्थापना की।

सन् 1980 के आस.पास श्रद्धेय ठेंगड़ी जी, ने विकसित गौरे देशों के, साम्राज्यवादी षडयंत्रों से राष्ट्र को सावधान करना प्रारम्भ कर दिया था। अपने सार्वजनिक भाषणों, कार्यकर्ता बैठकों, अर्थशास्त्रज्ञों की गोष्ठींयों तथा व्यक्तिगत बातचीत में राष्ट्र पर आसन्न संकट की स्पष्ट सम्भावना प्रकट करते थे।श्री ठेंगड़ी जी ने सावधान किया कि, ‘‘विश्व बैंक, अर्न्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष और, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, पश्चिमी गौरे देशों के, शौषण करने के नये हथियार है, जिनके माध्यम से, साम–दाम–दंड–भेद का उपयोग करते हुऐ गौरे देश, विकसनशील तथा अविकसित देशों का शौषण कर रहे है।’’ जनरल एग्रीमेंट ऑन टेरिफ एण्ड ट्रेड (गेट) जिसकी स्थापना 1 जनवरी 1948 में की गई थी, इसमें केवल एक ही विषय था, माल का अन्तराष्ट्रीय व्यापार। 1986 में, गेट समझौते की उरूग्वै वार्ताओ के दौर में, कुख्यात डंकेल प्रस्तावों का मसविदा, सामने आया। अभी तक गैट वार्ताओं में, केवल माल पर लगने वाले सीमा शुल्क को कम करने के बारे में बातचीत होती थी। लेकिन, 1986 में, गैट के अध्यक्ष आर्थर डंकेल ने, गैट का दायरा विस्तृत करते हुऐ, ‘‘वस्तुओं के व्यापार के साथ, सेवाओं के व्यापार को भी शामिल करने का प्रस्ताव रखा और तीन नये विषय गैट वार्ता की टेबल पर लाये:-

1. बौद्धिक सम्पदा अधिकारों का व्यापार (TRIPS)

2. निवेश सम्बन्धी उपक्रमों का व्यापार (TRIMS)

3. तथा कृषि (Agreement on Agriculture)

डंकेल प्रस्तावों का व्यापक अध्ययन करने के पश्चात् श्रद्धेय दत्तोपंत जी, ने देश को आव्हान किया कि, ‘‘डंकेल प्रस्ताव गुलामी का दस्तावेज है।’’ उन्होंने आगाह किया कि, भारत सरकार देश विरोधी डंकेल प्रस्तावों को अस्वीकार करें। क्योंकि डंकेल प्रस्ताव, आर्थिक साम्राज्यवाद लाने वाला है। राष्ट्र की सम्प्रभुता संकट में पड़ जाएगी। उन्होंने केवल सरकार को चेतावनी ही नहीं दी वरन् डंकेल प्रस्तावों के विरोध में व्यापक जन–आंदोलन खड़ा करने के लिए, सरकार पर भारी जन दबाव लाने के लिए देश भर में जन.जागरण का आव्हान भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ तथा अनेक देश भक्त संगठनों की विशाल.रेलियों तथा प्रदर्शनों के माध्यम से, आर्थिक साम्राज्यवाद के कारण, आसन्न आर्थिक गुलामी के विरोध में, राष्ट्र व्यापी आन्दोलन का आव्हान किया। उन्होंने इसे, स्वतंत्रता का दूसरा संग्राम कहा और इस दूसरे स्वतंत्रता संग्राम को चलाने के लिए 22 नवम्बर 1991 को नागपुर में स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की। उस बैठक में अखिल भारतीय स्वरूप की पांच संस्थाओं के प्रमुख पदाधिकारी उपस्थित थे। जिसमें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, सहकार भारती, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत, भारतीय किसान संघ तथा भारतीय मजदूर संघ शामिल थे।

नागपुर बैठक में, स्वदेशी जागरण मंच के संयोजक के नाते, डॉ. मा. गो. बोकरे को दायित्व दिया गया, डॉ. बोकरे सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री तथा नागपुर विश्वविद्यालय के उप.कुलपति रहे। आप पूर्व में कट्टर मार्क्सवादी रहे, और कम्यूनिष्ट पार्टी के एक चोटी के विचारक, यह मान्यता उन्हें प्राप्त हुई थी, परन्तु कालान्तर में उनके विचारों में परिवर्तन हुआ और उन्होंने विख्यात पुस्तक ‘हिन्दू अर्थशास्त्र’ लिखा। इसके साथ ही, मा. मदनदास जी देवी को राष्ट्रीय सह संयोजक का दायित्व दिया गया। स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ तथा भारतीय किसान संघ तथा अनेक देशभक्त संगठनों द्वारा व्यापक जन जागरण तथा जन दबाव के अभियानों के बावजूद, केन्द्र सरकार ने, संसद को भी अंधेरे में रखकर, डंकेल प्रस्तावों पर हस्ताक्षर करके विश्व व्यापार संगठन समझौते को स्वीकार कर लिया।

श्रद्धेय दत्तोपंत जी ने, इस चुनौती को स्वीकार करते हुए, स्वदेशी जागरण मंच को ओर व्यापक स्तर पर जन जागरण का आव्हान किया। देश भर में, स्थान स्थान पर, सभा संगोष्ठी, धरना प्रदर्शन, के माध्यम व्यापक जन जागरण और जन दबाव उत्पन्न किया। संघर्ष यात्राओं के माध्यम से देश भर में, जन जागरण यात्राओं का अभियान लिया गया। अनेक देश भक्त संगठनों ने अपने अपने प्रकार से शौध अध्ययन, समाचार पत्रों में, प्रचार प्रसार और विश्व व्यापार संगठन से देश पर होने वाले व्यापक दुष्परिणामों का व्यापक अध्ययन और शोध करके स्वदेशी आन्दोलन को ताकत प्रदान की। ऐसे महापुरूषों में डॉ बी. के. केला अग्रिम पंक्ति में आते है जिन्होंने पेटेन्ट कानूनों के दुष्परिणामों का व्यापक अध्ययन किया। श्रद्धेय दत्तोपंत जी के स्पष्ट और कालजयी मार्गदर्शन से स्वदेशी आन्दोलन, कम समय में ही राष्ट्रव्यापी आन्दोलन बन गया। विश्व व्यापार संघ की द्विवार्षिक मंत्रीस्तरीय बैठकों से पूर्व देश भर में व्यापक जन जागरण और जन दबाव के कार्यक्रमों के माध्यम से सरकार पर लगातार दबाव बनाये रखने में मंच ने सफलता प्राप्त की। पहली सफलता सियेटल में मिली। सियेटल में आयोजित डब्लय. टी. ओ. की मंत्रीस्तरीय बैठक, में भारत के वाणिज्य मंत्री, श्री मुरासोली मारन ने हिम्मत के साथ, भारत की जनता का पक्ष रखा। उन्होंने स्वदेशी जागरण मंच के लोकप्रिय स्लोगन ‘‘ नो न्यू नेगोशियेसन बट री–नेगोशियेसन’’ पर स्थिर रहे और वार्ता आगे नहीं बढ सकी। सभी देशभक्तों ने उसकी सराहना की। W.T.O. की अगली मंत्रीस्तरीय बैठक ‘‘दोहा’’ में आयोजित की गई। वह भी सफल नहीं हो सकी। उसके बाद अगली मंत्रीस्तरीय बैठक कानकुन में आयोजित की गई। कानकुन बैठक से पूर्व देश भर में, W.T.O. के विरोध में व्यापक प्रदर्शन किये गये। दिल्ली में एक लाख लोगों का विशाल प्रदर्शन हुआ। इस सबका सरकार पर दबाव उत्पन्न हुआ। कानकुन सम्मेलन में भारत के वाणिज्य मंत्री श्री अरूण जेटली ने, भारत का पक्ष व्यापकता से रखा। कानकुन बैठक में अनेक अफ्रिकी देशों तथा कैरेबियन देशों ने भी भारत का साथ दिया तथा कानकुन बैठक असफल रही।

श्रद्धेय दत्तोपंत जी ने, विश्व व्यापार संगठन के समझौते पर स्पष्ट मार्गदर्शन करते हुए कहा था कि, ‘‘वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन इज ए मिसनोमर, इट इज ए, वैस्टर्न वर्ल्ड, ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन’’ इतना कहने से सारा विषय समझ में आ जाता था। W.T.O. के विरोध में उन्होंने प्रसिद्ध नारा दिया था कि, ‘‘डब्ल्यु.टी.ओ., तोड़ो, छोड़ो या मोड़ो’’। वास्तव में स्वदेशी आन्दोलन के माध्यम से श्रद्धेय दत्तोपंत जी ने वैश्विक आन्दोलन का सफल नेतृत्व किया।

श्रद्धेय दत्तोपंत जी ठेगड़ी ने सम्पुर्ण जीवन में , समय . समय पर सनातन हिन्दू विचार की प्रासंगिकता को स्थापित करने का महान कार्य सम्पादित किया। 1948 से 49 में, जब, कम्युनिज्म बड़ी चुनौती के रूप में विश्व पटल पर छाया हुआ था उस समय, श्रद्धेय दत्तोपंत जी ने प. पू. श्री गुरूजी के मार्गदर्शन से, मजदूर क्षैत्र में, भारतीय मजदूर संघ की स्थापना करके और सनातन हिन्दू दर्शन के प्रतिष्ठान पर देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन खड़ा कर, साम्यवादियों को उनके ही क्षैत्र में, परास्त किया। साम्यवाद और पूंजीवाद की दोनों विचारधाराओं को, भौतिकवादी विचार दर्शन कह कर अस्वीकार करते हुए श्रद्धेय ठेंगड़ी जी ने हिन्दू विचार दर्शन के आधार पर ‘‘थर्ड वे’’ का प्रवर्तन किया, अर्थात हिन्दू जीवन मूल्यों के आधार पर विश्व व्यवस्था का प्रवर्तन भारत में पाश्चात्य लोकतंत्र की प्रणाली के अनेक महापुरूषों यथा, लोकमान्य तिलक, पू. महात्मा गांधी, श्री चक्रवर्ती राजगोपालचारी, श्री मानवेन्द्र नाथ राय, पू. श्री गुरूजी तथा पंडीत दीन दयाल जी ने पाश्चात्य लोकतांत्रिक प्रणाली को भारतीय समाज जीवन के अनुपयुक्त बताया था। श्रद्धेय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी, हिन्दू परम्परा का मंडन करते हुए कहते थे कि, देश भक्ति से प्रेरित, स्वायत और स्वयंशासी जन संगठन राज सत्ता पर, धर्मदंड की भूमिका सफलतापूर्वक निभाएगें, तभी राजसत्ता राजधर्म का पालन करेगी। 1986 से डंकेल प्रस्तावों के विषय में और उसके बाद बने विश्व व्यापार संगठन के विषय में, राष्ट्र पर आसन्न आर्थिक साम्राज्यवाद और विदेशी गुलामी के विरूद्ध पुनः उन्होंने हिन्दू अर्थव्यवस्था की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए व्यापक जन आंदोलन तथा गंभीर वैचारिक आंदोलन का सूत्रपात किया। और ‘‘देशभक्ति की साकार अभिव्यक्ति है, स्वदेशी का सूत्र दिया।

1995 में, भौपाल में पर्यावरण मंच की स्थापना की। यह अभी बी. एम. एस. के अर्न्तगत कार्यरत है। परम पूज्य गुरूजी, और पंडित दीनदयाल उपाध्याय की परम्परा में श्रद्धेय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी ने सनातन धर्म के अधिष्ठान पर राष्ट्रवादी विचार प्रवाह को सुपरिभाषित करने का महान कार्य सम्पन्न किया। समकालीन विभाजनकारी राजनीति के संशौधन हेतु, वैकल्पिक राजनैतिक प्रक्रिया

को वैचारिक तथा व्यवहारिक अधिष्ठान प्रदान करने का महान कार्य आपने सम्पादित किया। श्रद्धेय ठेंगड़ी जी ने, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, तथा स्वदेशी जागरण मंच जैसे राष्ट्रवादी संगठनों का निर्माण केवल परिवर्तन के वाहक के रूप में ही नहीं, तो राष्ट्र के समक्ष और समर्थ प्रहरी संगठनों के रूप में किया। ये केवल एक ओर आन्दोलन मात्र नहीं होकर आधुनिक राजनीति की अपर्याप्तता को संशोधित करने का सशक्त माध्यम बने। इसीलिए कृतज्ञ राष्ट्र ने श्रद्धेय ठेंगड़ी जी को राष्ट्र ऋषि कहकर संबोधित किया।

दिनांक 14 अक्टुबर (अमावस्या) 2004 को पुणे में, श्रद्धेय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी को महानिर्वाण हुआ। आपका विचार–धन, हजारों वर्षों तक देशभक्तों को मार्गदर्शन करता रहेगा। आपने लगभग 200 से अधिक छोटी–बड़ी पुस्तके लिखी, सेकड़ों प्रतिवेदन प्रकाशित किये तथा हजारों की संख्या में आलेख पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित है।

–डॉ रणजीत सिंह