यद्यपि श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ व स्वदेशी जागरण मंच के संस्थापक थे तो भी वे उन संस्थाओं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ऊपर नहीं मानते थे। उनकी संघ निष्ठा व संघशरणता असंदिग्ध थी तथा 'संघ स्वयंसेवक के अपने दायित्व को वे कभी नहीं भूले। प्रचलित भाषा में जिसे संघ परिवार कहा जाता है उसे वे संघ सृष्टि कहते थे।
उपरोक्त तीनों संस्थाओं में से स्वदेशी जागरण मंच की रचना भिन्न प्रकार से हुई तथा न तो मंच अधिक पुराना है तथा न ही उसके निर्माण में श्री ठेंगड़ी जी की उतनी शक्ति लगी जितनी भारतीय मजदूर संघ, जो काफी पुराना संगठन है तथा भारतीय किसान संघ जिसकी स्थापना को भी बहुत वर्ष हो गए, के निर्माण में लगी। इन दोनों संगठनों, जो मुख्यत: उनके घोर परिश्रम से खड़े हुए, के कार्यकर्ताओं में न केवल संघ की सही समझ उन्होंने निर्मित की अपितु जहां एक ओर उन संस्थाओं के अभिनिवेश से वे सर्वथा मुक्त रहे वहीं दूसरी ओर उनकी उपलब्धियों का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन भी नहीं किया।
1987 में नागपुर में हुई संघ की एक चिन्तन बैठक में संघ उद्देश्य की पूर्ति में भारतीय मजदूर संघ के योगदान के विषय पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि मजदूर संघ इस संबंध मे बहुत कुछ नहीं कर पाया। उन्होंने कहा कि रोजी-रोटी के स्वार्थ से ऊपर उठकर मजदूर कुछ करें, यह अत्यंत कठिन कार्य है। मजदूर संघ तो केवल इतना ही कर पाया कि मजदूरों का एक बड़ा वर्ग उसे अपना हितरक्षक मानता है तथा लाल झण्डे की बजाय उसके झण्डे तले खड़ा हुआ है। स्मरण रहे कि 1987 मे मजदूर संघ प्राय: देश का अग्रणी मजदूर संगठन बन चुका था।
मैं उन भाग्यशाली कार्यकर्ताओं में से एक था, जिन्हें श्री ठेंगड़ी जी से अंतरंग चर्चाओं का अवसर मिलता था। हमारी बातचीत में एकाध ऐसे मुद्दे भी आये जिन पर उनका मत संघ अधिकारियो द्वारा व्यक्त किये गए, मत से भिन्न था। मेरे यह पूछने पर कि उन्होंने अपना मत व्यक्त क्यों नहीं किया। उन्होंने कहा कि कार्यकर्ताओं में बुद्धिभेद पैदा करना संगठन के हित में नहीं होगा। इसी संदर्भ में बुद्धिभेद की एक गंभीर परिस्थिति को उन्होंने कुशलता से समाप्त भी किया। मार्च 1998 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी केन्द्र सरकार को अभी 8-9 महीने ही बीते थे कि विविध कारणों से संघ विचार के कुछ व्यक्तियों द्वारा सरकार की आलोचना की गई। इनमें से एक व्यक्ति श्री ठेंगड़ी जी भी थे। स्थिति ऐसी बनी कि संघ विचार परिवार में बुद्धिभेद पैदा हुआ तथा व्यापक तौर पर यह धारणा निर्माण हो गई कि संघ विचार के लोग ही सरकार गिराने पर उतारू हैं। उसी वातावरण के दौरान भारतीय मजदूर संघ की एक रैली दिल्ली के रामलीला मैदान में होने वाली थी। संघ विचार के शुभेच्छुओं को भय हुआ कि ठेंगड़ी जी द्वारा रैली में सरकार की आलोचना से स्थिति और बिगड़ेगी। यह भय व्यक्त करने वालों में कुछ साथियों सहित मैं भी था। श्री ठेंगड़ी जी ने हमें आश्वस्त किया कि वे स्थिति को सभालेंगे। रैली में सरकार की आलोचना करने की बजाय उन्होंने प्रधानमंत्री श्री अटल जी के प्रति विश्वास जताते हुए यह आशा व्यक्त की कि सरकार उनकी मांगों के प्रति सकारात्मक रुख अपनायेगी। हवा का रुख एकदम बदल गया। बुद्धिभेद समाप्त हुआ, आम धारणा परिवर्तित हुई तथा संघ विचार के हितैषियों ने चैन की सांस ली।
हमारी बातचीत में राजनीति की चर्चा भी होती थी। कई वर्षों पूर्व उन्होंने यह मत व्यक्त किया था कि एक जनसंगठन के नाते सामान्य जन के बीच संघ को अपनी शक्ति इस सीमा तक बढ़ानी चाहिए कि सत्ता किसी की भी हो वह संघ की उपेक्षा न कर सके। उनका कहना था कि यह संभव है और उनका मत था कि संघ द्वारा इस प्रकार से समाज में पैठ बनाने के पश्चात यदि संघ विचार के घोर विरोधी साम्यवादी भी सत्ता में आ जाये तो वे भी संघ की बात मानने को बाध्य हो जायेंगे। संघ के सबंध में ठेंगड़ी जी की सोच मौलिक और बहुत गहरी थी। वे चाहते थे कि संघ राष्ट्रीय समाज के एक भाग का संगठन न होकर संपूर्ण समाज का संगठन बने। वे चाहते थे कि समाज के सभी वर्गों को समेटते हुए संघ इतना बड़ा हो जाये कि संघ और समाज में अंतर ही न रहे। हिन्दू राष्ट्र की मान्यता को व्यवहार में लाने के लिए हिन्दुत्व की आधारभूत शक्ति को वे संघ की पूंजी मानते थे। इस पूंजी में वे उन्हें भी जोड़ते थे जो संघ के विरोधी है पर जिनके जीवन में हिंदुत्व प्रगट होता है।
1996 के दिल्ली प्रांत के संघ शिक्षावर्ग के दीक्षांत समारोह में अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि हिंदुत्च की शक्ति भारत में तीन रूपों में विद्यमान है- संघ स्वयंसेवकों, संघ समर्थकों तथा संघ विरोधी पर निजी जीवन में हिंदुत्व को जीने वालों के रूपो में। तीसरी प्रकार के कुछ व्यक्तियों के उदाहरण भी उन्होंने दिये।
सत्तर के दशक के प्रारभ में अभाविप का ध्वज निर्धारित करने के लिए एक समिति बनी। मुझे उसका संयोजक बनाया गया। प्रसार माध्यमों एवं प्रचलित धारणा के अनुसार अभाविप को संघ अथवा जनसंघ की शाखा माना जाता था। मेरे मन में आया कि अभाविप के ध्वज का रंग ऐसा हो जिससे उसे संघ से न जोड़ा जा सके। जब श्री ठेंगड़ी जी से परामर्श किया तो उन्होंने आग्रहपूर्वक व तर्कपूर्वक मुझे समझाया कि भगवा रंग के अतिरिक्त किसी और रंग का विचार योग्य नहीं होगा।
इसे एक आश्चर्य ही कहना पड़ेगा कि विचारधारा के रूप में साम्यवाद के प्रखर आलोचक श्री ठेंगड़ी जी के अनेक साम्यवादियों के साथ मधुर संबंध थे। साम्यवादी व्यक्ति व साम्यवादी चिंतन के बीच के अंतर को रेखांकित करते हुए वे मानते थे कि व्यक्तियों के साथ तालमेल रखते हुए भी उनके चिंतन से संघर्ष किया जा सकता है। मजदूर हितों के लिए साम्यवादियों के साथ चलने में उन्हे परहेज नहीं था। परन्तु विचारधारा के संघर्ष में उनके साथ मारपीट भी करनी पड़ सकती है यह वह मानते थे।
ठेंगड़ी जी प्रबल आत्मविश्वास व इच्छाशक्ति के धनी थे। बढती आयु से उनके व्यवितत्व के यह पहलू कभी क्षीण नहीं हुए। बात लगभग 4-5 वर्ष पुरानी है। ठेंगड़ी जी की आयु तब 79-80 वर्ष की थी। किसी एक संदर्भ में जब मैंने हताशा व्यक्त की तो उन्होंने दृढता पूर्वक कहा कि अपनी आयु का भान मुझे है फिर भी योग्य स्थिति लाने के अपने दायित्व को मैं अवश्य निभऊंगा। उनके कथन में लाचारी का लेशमात्र भी प्रगट नहीं हुआ। ऐसी अदम्य इच्छाशक्ति ही हताश कार्यकर्ताओं को प्रेरित करती रहती थी। दुनिया भर मे फैले करोड़ों स्वयं सेवकों एवं संघ समर्थकों के प्रेरणा स्त्रोत ठेंगड़ी जी को स्मृति को मेरा नमन।
प्रो० राजकुमार भाटिया
पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद