परम पूजनीय श्री गुरुजी के प्रेरक संस्मरण - दत्तोपंत ठेंगड़ी
आग्रही कर्मनिष्ठा
सुबह का समय था । स्नान, संध्या से निवृत होकर पूजनीय श्री गुरुजी संघ कार्यालय (डॉ. हेडगेवार भवन, महाल) के कक्ष में बैठे थे । बगल में श्री कृष्णाराव मोहरील पत्र व्यवहार देख रहे थे । श्री गुरूजी डाक के द्वारा प्राप्त पत्र पढ़ रहे थे । इतने में एक स्वयंसेवक दौडे़ दौडे़ आया और उसने श्रीगुरूजी से कहा कि, “जल्दी घर चलो, ताईजी (श्री गुरुजी की मातु:श्री) का स्वास्थ एकदम बिगड़ गया है ।” श्री गुरुजी और कृष्णराव आदि उठकर तेजी से नागोबा की गली में अपने घर पहुंचे । जाते समय पांडुरंग पंत क्षीरसागर ने एक स्वयंसेवक को डॉक्टर महोदय को बुला लाने के लिये भी भेज दिया । श्री गुरुजी घर में पहुंचते समय डॉ. पांडे भी आ पहुंचे । उन्होंने ताईजी का स्वास्थ्य देखा और कहा कि,”अभी तो कुछ कहा नहीं जा सकता, परंतु स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया (Critical) है ।’ प्राथमिक उपचारों से बेहोशी कुछ कम हुई । डॉ. पांडे ने कहा कि तुरन्त गरम कॉफी दीजिये । इस समय ताजगी के लिये कुछ गरम पेय चाहिये । ताईजी बोल नहीं सकती थी, अपने हाथ से कुछ इशारा भी नहीं कर सकती थी । परन्तु आखों से इशारा कर रही थी अपने दाहिने हाथ की ओर और किसी के ध्यान में यह बात नहीं आयी, परन्तु श्री गुरूजी ने कहा, ताईजी इशारे से कह रही हैं कि उनके नियम के अनुसार जब तक दाहिने हाथ पर पार्थिव (श्री शिव लिंग की प्रतिमा) पूजा नहीं होती तब तक वह कुछ भी ग्रहण नहीं करेगी । पार्थिव पूजा स्वयं ताईजी तो कर नहीं सकती थी । इसलिये श्री गुरुजी ने मधु टिकेकर (श्री गुरूजी का भांजा) को तुरन्त स्नान कर, पार्थिव तैयार कर, ताईजी के हाथ पर रखकर पूजा करने को कहा । पूजा होने के पश्चात् ही ताईजी ने कॉफी ली । श्री गुरुजी के पिताजी श्री भाऊजी भी ऐसे ही आग्रही कर्मनिष्ठ थे । ऐसे कर्मठ माता पिता के संस्कार श्री गुरुजी को बचपन से स्वाभाविक रूप से प्राप्त थे ।
ताई, मैं जाऊं?
एक कठिन प्रसंग, किन्तु बाद में आया । उसी दिन श्री गुरुजी को कार्यार्थ प्रवास के लिये जाना था । डॉ. पांडे जी से पूछने पर उन्होंने कहा, “वैसे कहा जाय तो इस समय का संपूर्ण प्रवास क्रम ही स्थगित करना चाहिये । कम से कम आज तो आप मत जाईये । स्वास्थ्य इतना बिगड़ा हुआ है कि आगे क्या होगा इसका अंदाजा आज नहीं आ सकता। चाहे तो आप कल प्रस्थान करें, तब तक अंदाजा आ सकेगा ।” श्री गुरुजी ने कहा कि जो पूर्व नियोजित प्रवासक्रम है उसको स्थगित करना (Postpone) तो संभव नहीं है। ताईजी की उस अवस्था में श्री गुरुजी उनसे पूछने के लिये गये । पूछा, “ताई, मैं जाऊं?”। ताईजी ने कहा, “जा बेटा” । घर में जो अन्य लोग थे, आपस में बात करने लगे कि? “ताई मैं जाऊं?” यह लगातार पूछते रहने के लिये ही इस महापुरूष ने ताईजी के पेट में नौ मास तक वास किया होगा । और जा बेटा ऐसा हमेशा कहने के लिये ही क्या ताईजी ने इनको नौ मास अपने पेट में रखा था! श्री गुरूजी ने प्रवास के लिये प्रस्थान किया । ताईजी के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी डॉ. पांडे और अन्य डॉक्टरों ने सम्हाल ली ।
कठोर कर्मठता ताईजी की एक विशेषता थी और श्री भाऊजी की भी वही विशेषता थी। अपना कर्तव्य करते हुए कठोर कर्मठता और जो समय बचता था, सारा व्रत वैकल्य, पुरश्चरण, अनुष्ठान, आदि में व्यतीत होता था । श्री गुरूजी का ग्रहयोग ही मानो ऐसा दिखता है कि प्रारंभिक जीवन में कठोर कर्मठता रखने वालों के साथ ही उनका पाला पड़ा था ।
पूजा पर्व – रात भर पूजा पात्र स्वच्छ करो
- श्री अमिताभ महाराज के साथ श्री गुरुजी सारगाछी आश्रम में गये । अमिताभ महाराज ने स्वामी अखंडानंदजी महाराज से श्री गुरूजी का परिचय करा दिया । श्री गुरूजी जैसे उच्च विद्या विभूषित व्यक्ति का स्वीकार करने से उनको हर्ष होना चाहिये था । स्वामी अखंडानंद जी, किन्तु अलग ढंग से सोचते थे । यह ऊंची शिक्षा प्राप्त होगा, परन्तु अपने लिये क्या स्वीकार करने योग्य है, इसकी यथोचित परीक्षा किये बगैर वे तैयार नहीं थे । एक अलग संदर्भ का वाक्य जो स्वामी अखंडानंदजी के लिये पूर्णत: लागू पड़ता है, मेरे स्मरण में है ।” “He was slow to appreciate, and slower still to express it” इतनी उंची शिक्षा प्राप्त व्यक्ति को अमिताभ महाराज ने लाया, तो उसे रहने दो, ऐसा कहकर उन्होने श्री गुरूजी की कोई खास दखल नहीं ली, ऐसा लगा । एक-दो दिन के बाद श्री गुरूजी को एक काम करने के लिये कहा । दीपावली के पर्व पर रातभर जगन्माता की पूजा चलती थी । पूजा के बर्तन रात्री में अनेक बार पुकुर (छोटा जलाशय) के पानी से धोकर स्वच्छ करने का काम करने को श्री गुरुजी को कहा गया । स्वामीजी ने अमिताभ महाराज से कहा, “वह तुम्हारा गोलवलकर है, उसे कहना कि इतने सारे पूजा के बर्तन ठीक ढंग से स्वच्छ करने चाहिये ।” श्री गुरुजी पूरे एकाग्र चित्त से उस काम को रातभर करते रहे । स्वामी अखंडानंदजी ने श्री गुरुजी का काम, बर्तनों की स्वच्छता देखकर दूसरे दिन अमिताभ महाराज से कहा, “मैं उसे स्वीकार करने योग्य मानता हूं ।” श्री गुरूजी के श्रद्धेय गुरू महाराज भी ऐसे थे कि बिना कठोर परीक्षा के, उनका स्वीकार करने के लिये भी तैयार नहीं थे । श्री गुरूजी के प्रारंभिक जीवन काल में ऐसे ही लोगों से उनका पाला पड़ा था । कर्मकठोर जीवन की नींव मानों उनके प्राथमिक जीवनकाल में डाली गई थी ।
पूजनीय डॉक्टरजी की सेवा शुश्रुषा
परमपूजनीय डॉक्टर जी के संपर्क में श्री गुरूजी, एक अधिकारी के नाते नहीं आये थे । वहां भी उनके संपर्क का आरंभ सेवा-शुश्रुषा कार्य से ही हुआ था । डॉक्टरजी बहुत बीमार थे । नासिक (महाराष्ट्र) में उनका औषधोपचार चल रहा था । डॉक्टर जी की सेवा-शुश्रुषा एक कठिन, कष्टप्रद काम था । उनको बहुत पसीना आता था । हर २० – २५ मिनिट के पश्वात बनियन गीली हो जाने से बदलनी पड़ती थी । दवा पानी, परहेज, यह सब कुछ श्री गुरूजी ही देखते थे । इस सेवा कार्य का अनुभव कर डॉक्टर जी ने उनकी क्षमता को समझ लिया था । स्वयं का कठोर जीवन और कर्मकठोर लोगों से पाला पड़ना, यही विशेषता श्री गुरूजी के जीवन मे हम देखते हैं ।
अपने प्रति कठोर, दूसरों के प्रति बहुत सहृदय
श्री गुरूजी स्वयं अपने प्रति बहुत कठोर थे । आम तौर पर ऐसा दिखायी देता है कि स्वयं अपने प्रति कठोर रहने वाले दूसरों के प्रति भी कठोर रहते हैं । औरों को तकलीफ देते रहते हैं । श्री गुरूजी की विशेषता थी कि उनका स्वभाव ऐसा नहीं था । वे दूसरों के प्रति बहुत अधिक सहृदयता से व्यवहार करते थे । जब मैं उनके घर में रहने गया था तब मुझे यह अनुभव हुआ । यह मेरे लिये कोई श्रेय की बात नहीं थी, फिर भी कह देता हूं व्यवस्थित रहने का मेरा स्वभाव नहीं था । सुबह जगने के पश्चात् बिस्तर ठीक तह करके नियोजित स्थान पर रखने की आदत मुझे नहीं थी । श्री गुरूजी के मकान में पहली मंजिल पर बैठकर खाता था, पास ही श्री गुरूजी का कमरा था । लॉ कॉलेज में मुझे सुबह जाना रहता था इसलिये जल्दी जगकर, प्रातर्विधि, चाय पान आदि से निवृत होकर कॉलेज में चला जाता था । इस जल्दबाजी में अपना बिस्तरा लपेट कर नियोजित स्थान पर रखने का मुझे विस्मरण हो जाता था । कॉलेज में यह याद आती थी कि बिस्तर को लपेट कर रखना मैं भूल गया था । परंतु कॉलेज से लौटने के पश्चात् देखना था कि बिस्तर लपेट कर नियोजित स्थान पर रख दिया गया है । कमरे में मैं और नाना वैद्य, दो ही रहते थे । मैंने नाना को कहा कि, “माफ करना, मेरा बिस्तर आपको रखना पड़ता है । आपको कष्ट होता हैं, परन्तु मेरी आदत ही कुछ खराब है ।” नाना ने कहा, “आपका बिस्तर मैं कहां रखता हूं, जब मैं सुबह जगता तो तुम्हारा बिस्तर तो वहां दिखता ही नहीं ।” यह सुनकर मैं घबरा गया । मैंने सोचा कि दूसरे दिन कॉलेज में न जाते हुए और दूसरी सीढ़ी से टेरेस में जाना और मेरे बिस्तर को कौन लपेटता है, उसे देखता । दूसरे दिन वैसा करने पर मैंने देखा कि श्री गुरूजी ने ही मेरा बिस्तर लपेट कर नियोजित स्थान पर रख दिया था । इस बारे में उन्होंने कभी मुझे कहा नहीं, उलाहना देना तो दूर रहा। स्वयं अपने बारे में कठोर परन्तु दूसरों के बारे में उदारता, उनकी विशेषता थी ।
पातंजल सूत्र का जीवन में अनुसरण
श्री गुरुजी कहते थे कि अपने मन को ठीक, संतुलित रखना है तो पातंजल सूत्र का अनुसरण करना चाहिये । सूत्र इस प्रकार है –
“मैत्री करूणा मुदिनो पेक्षाणाम् सुख दुःख पुण्यापुण्य विषयाणाम् भावना तश्वित प्रसादनम्’
इस प्रकार अपनी भावना रही तो चित्त प्रसन्न रहता है । दूसरों को सुख देकर मन में प्रसन्नता एवं मैत्री का अनुभव करना । दूसरों का दुःख देखकर मन में करूणा का भाव निर्माण हो । दूसरों का पुण्य देखकर मन में आनंद की भावना निर्माण हो और दूसरों का पाप देखकर मन में उपेक्षा का भाव हो । ऐसी मनःस्थिति रही तो मन प्रसन्न रहता है । ऐसा ही श्री गुरूजी का व्यवहार था । इसके कारण लोग कल्पना भी नहीं कर सकते ऐसी आश्चर्यकारक बातें उनके जीवन में हम देखते हैं । हम जानते हैं कि लोग गलती से संघ को गाली देते है । ऐसे लोगों के बारे में तीव्र कटुता की भावना रहना स्वाभाविक है । एक बार समाचार पत्र में आया कि पंडित नेहरू विदेश प्रवास में जाते समय अपनी कन्या को साथ ले गये, यह ठीक नहीं हुआ । उस समय जवाहरलाल जी ने संघ पर पाबंदी लगायी थी, इस कारण स्वयंसेवकों के मन में उनके प्रति क्रोध था । दोपहर चाय के समय किसी स्वयंसेवक ने कहा कि समाचार पत्र में यह प्रकाशित हुआ है और पंडितजी ने यह अच्छा नहीं किया । श्री गुरूजी ने उस स्वयंसेवक से कहा, “तुम कैसी बात कर रहे हो? तुम्हे कोई मानव हृदय है या नहीं? बीस बाईस वर्षपूर्व उनकी पत्नि की मृत्यु हुई । नजदीक उनका कोई नहीं, जिसे वे अपना समझ सकते हैं । ऐसी अवस्था में पूर्ण विश्वसनीय इस नाते वे अपनी पुत्री को साथ ले गये । क्या तुम इस भावना को नहीं समझ सकते?
गांधीजी का सही मूल्यांकन
गांधीजी के बारे में अनेकों के मन में गुस्सा था । किन्तु उनकी जन्मशती समारोह में सांगली (महाराष्ट्र) में आयोजित श्री गुरुजी का भाषण गांधीजी का सही मूल्यांकन करने वाला था । उसे सुनकर वहां के कांग्रेसी नेताओं ने कहा कि महात्मा जी का इतना अच्छा मूल्यांकन हमारे नेताओं से भी हमें सुनने को नहीं मिला ।
कार्ल मार्क्स की प्रेरणा – नीति शास्त्र
कम्यूनिस्ट अपने को हमेशा ही गाली देते रहे किन्तु श्री गुरूजी ने अपने कई भाषणों में कहा कि कार्ल मार्क्स से मेरा सैद्धान्तिक मतभेद अवश्य है परन्तु मैं यह भी जानता हूं कि भारतीय कम्यूनिस्टों ने कार्ल मार्क्स से अन्याय किया है । Karl Marx was not a crude materialist. वे केवल भौतिक वादी नहीं थे । उनकी प्रेरणा (Ethics) नीति शास्त्र में थी । परन्तु युरोप में उस समय Ethics और Religion और Church, Church और Federalism, Feudalism और Capitalism, Capitalism और Monarchy इन सभी का एक “दुष्ट वलय” (Vicious Circle) एकत्र बन गया था और इसके साथ गलतफहमी न हो इसलिये कार्ल मार्क्स ने, मूल प्रेरणा Ethics होते हुए भी इसका जिक्र नहीं किया । Ethics यह उनका साधन (Instrument) था और Ethics उनकी प्रेरणा थी। इसलिये कार्ल मार्क्स को ‘क्रूड मटीरिअलिस्ट’ मानना यह भारतीय कम्यूनिस्टों की गलती है । मार्क्स के बारे में इतना उदार Charitable दृष्टिकोण श्री गुरुजी ने अपने भाषणों में प्रकट किया था । श्री गुरूजी की मनोरचना इस प्रकार कुछ अलग थी ।
अनौपचारिक बातचीत में बहुमोल संस्कारों की उपलब्धि
श्री गुरूजी कितने विद्वान थे, यह बताने की आवश्यकता नहीं है परन्तु सब लोगों के साथ उनका व्यवहार सर्वसामान्य मनुष्य जैसा था । मानों सामान्य चार लोग जैसे ही वे थे । सभी के बारे में उनके मन में आस्था थी । औपचारिक बैठकों या बौद्धिक वर्गों की अपेक्षा उनके द्वारा अधिक शिक्षा और संस्कारों की उपलब्धि उनकी अनौपचारिक बातचीत से होती थी । सुबह-शाम चाय के समय उपस्थित सब के साथ मुक्त गपशप चलती थी । चाय पान में कोई भी आकर बैठ सकता था । उस समय श्री गुरूजी के साथ कोई भी बात कर सकता था । उसी प्रकार संध्यावंदन के पश्चात् रात में ९ से १२ बजे तक श्री गुरूजी की बैठक में कोई भी आ सकता था । इससे श्री गुरुजी को लोकमानस में क्या चल रहा है, इसका पता चलता था । इस अनौपचारिक बातचीत का संगठन की दृष्टि से विशेष महत्व था । इस समय स्वाभाविक रूप से, आपस में घुलमिल कर आत्मीयता पूर्ण बातचीत होती थी । श्री गुरूजी के मन में हर एक की चिन्ता रहने से प्रत्येक से उनका आत्मीयता का व्यवहार होता था । स्वामी चिन्मयानंदजी आने वाले थे तो उनके रहने की क्या व्यवस्था है, इसकी चिंता होती थी । कार्यालय में हमारा रसोईया मंगल प्रसाद है, उसकी सुविधा का भी विचार होता था ।
प्रत्येक के बारे में आत्मीयता
मुझे स्मरण है कि एक बार दोपहर तीन बजे, चाय के समय सब लोग बैठे थे । उस समय जनसंघ के एक नेता श्री गुरूजी से मार्गदर्शन प्राप्त करने पधारे । जनसंघ की आगामी बैठक में अण्वस्त्र नीति (Nuclear policy) के बारे में एक प्रस्ताव आने वाला था। वार्तालाप में प्रस्ताव की शब्द रचना कैसी रहें, ऐसी चर्चा शुरू हुई । गंभीरता से चर्चा चल रही थी और सब लोग सुन रहे थे । इसी समय, संघ कार्यालय का वारलू नामक एक कर्मचारी वहां आया और मानों कुछ महत्वपूर्ण खबर दे रहा है ऐसा बोला कि “आपली म्हैस व्याली । बच्चा दिया है ।” वारलू के लिये यह महत्वपूर्ण खुश खबरी थी । श्री गुरुजी ने उसी भाव से खबर सुनकर आनंद प्रकट किया । इधर अण्वस्त्र नीति की चर्चा भी चल रही थी । वारलू से सहर्ष पूछा कि जचकी कैसी हुई । कुछ कष्ट हुआ क्या? मानो जैसे आस्थापूर्वक चिन्ता वारलू की, वैसी ही जनसंघ के नेताओं के विषय में भी थी । एक ही समय भिन्न भिन्न “वेव्ह लेंग्थ” पर क्षमतापूर्वक काम करने वाला उनका अलौकिक मन था । यह एक बहुत ही दुर्लभ (Rare) श्रेष्ठ गुण है, जो बहुत कम देखने को मिलता है ।
पूर्ण अनौपचारिक वातावरण
प्रथम संपर्क के समय लोग समझते कि दाढ़ी जटाधारी (श्री गुरुजी) इतने श्रेष्ठ पुरुष के पास कैसे जाना । उनके मन में कुछ संकोच सा रहता था । किन्तु पास जाने पर वे भूल जाते थे कि हम किसी श्रेष्ठ पुरुष के साथ वार्तालाप कर रहे हैं । रात की बैठक में हलकी फुलकी बातें, मजाक भी चलती थी । कितना अनौपचारिक खुला वातावरण रहता था । एक दिन का मुझे स्मरण है । हमेशा बच्छराज जी व्यास रात्रि को ११ – ४५ बजे बैठक में आ पहुंचते थे । रात को १२ बजे बैठक समाप्त होती है, वे जानते थे । एक दिन रात को बारह बजने में ५ मिनट बचे थे । बच्छराजजी आये नहीं । किसी ने कहा आज वे संभवत: नहीं आयेंगे । अनौपचारिक चर्चा में “मेरा जूता है जापानी, पतलून इंग्लिसस्तानी, सिरपर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्थानी” इस आशय का, प्रचलित भारतीय नागरिक का वर्णन यथोचित परन्तु व्यंग पूर्ण सिनेमा गीत पर हंसी मजाक चल रही थी । बैठक में उपस्थित एक किशोर स्वयंसेवक ने कहा कि, “बच्छराज जी को यह गाना पूरा याद है ।” वह बोल रहा था, इतने में बच्छराजजी आ पहुंचे । किसी ने उनसे कहा कि इस गाने की चर्चा चल रही थी और उसे सुनने की श्री गुरुजी की इच्छा है । गुरूजी की इच्छा है, ऐसा सुनते ही बच्छराज जी पलथी मारकर बैठ गये और गीत गाना शुरू कर दिया । ताल-स्वर, जैसा सिनेमा में था, उसी प्रकार से, मानों कुछ भी फॉर्मेलिटी नहीं ।
शिशु स्वयंसेवक का भी निःसंकोच बोलना
किसी नये व्यक्ति को श्री गुरूजी के बारे में लगता होगा, इतना बड़ा व्यक्तित्व है इसलिये ‘इन एक्सेसिबल, अन अप्रोचेबल’ अवश्य ही होगा । परंतु एक बार श्री गुरुजी की बैठक में आने पर उसका डर, संकोच, समाप्त होता था । मुझे स्मरण है, एक बार श्री गुरूजी नागपुर की गोरक्षण उपशाखा में गये थे । प्रार्थना के पश्वात लौटते समय मोटर गाड़ी की ओर वे जा रहे थे । साथ शिशु, बाल स्वयंसेवक भी चल रहे थे । कार के पास आकर श्री गुरुजी ने जब दरवाजा खोला तब एक शिशु स्वयंसेवक ने पूछा, “क्यों रे, यह तेरी मोटर कार है क्या?” मजेदार प्रश्नोत्तर प्रारंभ हुए –
“हाँ, मेरी है ।” – गुरुजी
“तू चलाता है क्या” – स्व.
“हाँ, मैं चलाता हूँ ।” – गुरुजी
“तुझे मोटर चलाना याद है?” – स्व.
“याद है ।” – गुरूजी
“कमाल है तेरी!” स्वयंसेवक ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा ।
एक शिशु स्वयंसेवक श्री गुरुजी को प्रशस्तिपत्र देकर कह रहा है, ‘कमाल है तेरी’ उसके मन में कितना आत्मीयता का भाव रहा होगा! श्री गुरूजी का स्वभाव, व्यवहार, बातचीत ऐसी ही थी । संपर्क में आने पर दिल की दूरी, अलगाव, सारा समाप्त होता था ।
श्री गुरूजी का मुझ पर बहुत प्रेम था – जॉर्ज फर्नान्डिस
बाहरी क्षेत्र के अन्य लोगों को भी श्री गुरुजी के बारे में ऐसा ही अनुभव आता था । आपने जॉर्ज फर्नान्डिस का नाम सुना होगा । राजनीति में जॉर्ज क्या करते हैं, इसे तो राजनीति खेलने वाले लोग ही जानते हैं । परन्तु उनका श्री गुरूजी के साथ अटूट संबंध था । उनकी आखरी बीमारी में उनके स्वास्थ्य की चिंता प्रकट करने वाले जॉर्ज के अनेक पत्र आये थे। श्री गुरूजी इहलोक छोड़ कर गये, बहुत वर्ष हुए, परन्तु जॉर्ज अभी भी कहते हैं कि, “मुझे बड़ा अभिमान है कि गुरूजी का मुझ पर बहुत प्रेम था ।” जॉर्ज को भी गुरुजी इतने नजदीक के लगते थे ।
जगजीवन राम जी का श्री गुरूजी के प्रति विश्वास
मुझे एक प्रसंग याद आता है । नागपुर के मा. बाबासाहब घटाटे डॉ. मुंजे के परम भक्त थे । उनका बड़ा आग्रह था कि “डॉ. मुंजे स्मारक समिति” बननी चाहिये और उसमें श्री गुरूजी अध्यक्ष होना चाहिये । श्री गुरूजी अध्यक्ष होना नहीं चाहते थे । लेकिन बाबासाहब घटाटे पुराने, डॉ. हेडगेवार जी के समय के स्वयंसेवक । उन पर डॉ. हेडगेवारजी का बड़ा प्रेम था । इसलिये अपना नियम तोड़कर श्री गुरूजी, समिति के अध्यक्ष बने । अध्यक्ष बनने के बाद दिल्ली आये । हम कुछ सांसद उनको मिलने गये । उन्होंने डॉ. मुंजे स्मारक समिति के बारे में कहा और इच्छा प्रदर्शित की कि इस समिति में श्री जगजीवन राम जी सम्मिलित होने चाहिये । उनकी अनुमति प्राप्त करें । सांसदों ने कहा, आप क्या कह रहे हैं गुरूजी! वे इस पर स्वाक्षरी करेंगे? यह हो नहीं सकता । श्री गुरुजी ने मुझे केवल रुकने के लिये इशारा किया और मुझसे कहा कि तुम कल जगजीवन राम जी के पास जाओ। मेरे जगजीवन रामजी के संबंध बहुत घनिष्ठ थे । इतने घनिष्ठ कि मिलने जाते समय अपोइटमेंट लेने की आवश्यकता नहीं रहती थी । मैं उनके यहां गया । वे संसद में जाने की तैयारी में थे । उन्होंने पूछा कि इस समय कैसे आये? मेंने कहा कि कुछ बात करनी थी । मैंने भूमिका बताना शुरु किया तो उन्होंने कहा कि लंबी कहानी मत कहो, पते की बात बताओ, तुम क्या चाहते हो? मैंने कहा कि इस समिति के अध्यक्ष श्री गुरूजी हैं । सदस्यों में आपका नाम रहे । धन संग्रह के लिये अपील आयेगी। उस पर भी आपका नाम रहे । उन्होंने कहा कि क्या यह गोलवलकर गुरुजी ने कहा है? मैने कहा, हाँ । तब उन्होंने कहा, तब तो उसपर मेरे हस्ताक्षर है, ऐसा ही समझो । घटाटे जी को लिखो कि वे संबंधित कागजात भेजेंगे उस पर मैं दस्तखत करूंगा । दोनों पत्रकों पर उनके हस्ताक्षर आ गये और वह अपील समाचार पत्रों में प्रकाशित भी हुई जो लोगों के लिये अनपेक्षित था ।
श्री गुरूजी की मान्यता केवल अपने लोगों में ही नहीं, अपितु बाहर के लोग भी उनकी प्रतिष्ठा रखते थे । राजनीति के लिये, दलगत स्वार्थ के लिये वे गाली गलोच करते होंगे । दूसरों को गाली गलोच करना यह तो राजनीति वालों का धर्म हैं । प्रचार (प्रोपोगांडा) का मतलब ही होता है, आत्मस्तुति और परनिन्दा । परन्तु व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण ही वे श्री गुरूजी को मानते थे।
सभी के, स्वाभाविक आदरणीय
मा. माणिकराव पाटिल के यहां विवाह समारोह था । उनके श्वशुर महाराष्ट्र काँग्रेस के बड़े ही कट्टर कार्यकर्ता थे, नेता थे । एक विचित्र संयोग था । माणिकराव पाटिल कट्टर संघ वाले और उनके श्वशुर कट्टर काँग्रेस वाले । उस विवाह समारंभ में महाराष्ट्र के संघ के प्रमुख लोग आने वाले थे, और कांग्रेस तथा सोशलिस्ट नेतागण भी आने वाले थे । श्री गुरूजी कुछ विलंब से पधारने वाले थे । गैर संघी लीडरों में चर्चा शुरू हुई कि यह तो बड़ी मुश्किल हैं । गुरुजी देर से आयेंगे । संघवाले उठकर खड़े होंगे । उस समय हम क्यों उठकर खड़े रहें? हम भी अपनी पार्टी के लीडर जो हैं । हम कम हैं क्या? हम नहीं उठ खड़े होंगे । ऐसी बाते चल रही थी । इतने में ही श्री गुरूजी आये । संघ के सभी कार्यकर्ता उठकर खड़े हुए । गुरुजी आगे बढ़े तो ये भी सारे उठकर खड़े हुए । डांगे आदि थे, वे भी उठकर खड़े हुए । स्वाभाविक रूप से यह सब हो रहा था । बाहर के लोगों पर भी उनके व्यक्तित्व का प्रभाव दृष्टिगोचर होता था ।
बाहर के लोगों पर उनके व्यक्तित्व का प्रभाव प्रकट करने वाले अनेक प्रसंग कहे जा सकते हैं । उनमें से एक, उनके महानिर्वाण के पश्चात जो श्रद्धांजलि के संदेश आये उनमें मिलता है। हमारे अखबारों में लंबी श्रद्धांजलियाँ थी, परन्तु जैसा ‘एक्झॅक्ट मूल्यांकन’, सही मूल्यांकन ‘ब्लिट्झ’ ने किया वैसा संभवत: किसी ने नहीं किया । ‘ब्लिट्झ’ ने उनको हमेशा गालियां ही दी थी । परंतु उसी का मूल्यांकन सबसे अच्छा था ।
संघ को गाली-देनेवालों में सोशलिस्ट अग्रेसर रहते हैं । प्रथम चुनाव के समय सोशलिस्टों को बहुत आशाएं थी । नागपुर में उन्होंने अपना मध्यप्रदेश का भावी कैबिनेट भी घोषित किया था । चुनाव में उनको वोट कम नहीं मिलें, परन्तु उनकी आशाएं विफल रही । इससे सोशलिस्टों में बहुत निराशा छा गई । निराशा इतनी गहरी थी कि उनके बड़े नेता, पार्टी छोड़कर घर बैठ गये । समस्या यह निर्माण हुई की पार्टी को किस प्रकार सम्हाला जाय? सोशलिस्ट पार्टी के इतिहास में नागपुर और उस समय के मध्यप्रदेश का एक महत्वपूर्ण विशिष्ट स्थान था । पंचमढी में (मध्यप्रदेश) सोशलिस्ट पार्टी के बडे़ बडे़ नेतागण एकत्र आये थे । बहुत चिंतन हुआ । कार्यकर्ताओं के मन में विफलता का भाव आया । पार्टी को कौन उठायेगा? आचार्य नरेन्द्र देव जैसे श्रेष्ठ व्यक्ति उस समय उपलब्ध नहीं थे । ह. वि. कामथ ने सुझाव दिया कि पार्टी फिर से कार्यक्षम करनी है तो कार्यकर्ता चाहिये । अपने पास तो कार्यकर्ता नहीं है । कार्यकर्ता संघ के स्वयंसेवक ही हो सकते हैं। परन्तु यदि संघ के साथ रहे तो कम्यूनल माने जायेंगे । इसलिये उनको स्पर्श करना भी गलत है । तो हम संघ के बारे में जो हमारी वृत्ति है उसे कायम रखें, लेकिन हर जगह संघ के स्वयंसेवकों के साथ मधुर संबंध प्रस्थापित करें । जिससे वे पार्टी में आकर, पार्टी का काम करने में न हिचकिचायें ।
पंचमढी की इस बैठक के कुछ महिने बाद नागपुर मे सोशलिस्ट पार्टी की ऑल इंडिया कॉन्फरन्स हुई थी । इस कॉन्फरन्स के पूर्व, परंतु पंचमढ़ी बैठक के बाद एक घटना हुई। मध्यप्रदेश के कांग्रेस के गृहमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा ने कांग्रेस का त्याग कर अलग अपनी पार्टी स्थापन करना चाहा था, परंतु वे असफल रहे थे । उनके संघवाले और सोशलिस्ट, दोनों के साथ अच्छे संबंध थे । सोशलिस्ट पार्टी की खस्ता हालत देखकर उन्होंने कुछ (सोबर) सौम्य सोशलिस्ट नेताओं से बातचीत की । एक फॉर्मुला इंव्हॉल्व किया । फॉर्मुला यह था कि जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टी का विलीनीकरण हो । किस आधार पर? तो जनसंघ का सांस्कृतिक कार्यक्रम सबने स्वीकार करना चाहिये और सोशालिस्ट पार्टी का आर्थिक कार्यक्रम जनसंघ वालों ने स्वीकार करना चाहिये । ऐसा विलीनीकरण हो सकता है । मैंने दोनों का अध्ययन किया है । यदि विलीनीकरण हुआ तो उसमें लोहिया – मधू लिमये, ऐसे कुछ नहीं आयेंगे, लेकिन सोशलिस्ट पार्टी के बहुत लोग इसमें शामिल हो जायेंगे । दोनों मिलकर पार्टी होगी तो सेकंड लार्जेस्ट पार्टी ऑफ द कंट्री, सिद्ध हो सकती है, ऐसी उस समय अवस्था थी ।
सभी को साथ लेकर चलने की क्षमता केवल गोलवलकर जी की
सभी ने इस सुझाव पर विचार करना शुरू कर दिया । उसके बाद चर्चा चली कि यह संयुक्त पार्टी चलाने का काम कौन करेगा । सभी को साथ लेकर चलना है तो जिसको पोलिटिकल एक्युमेन भी है, सब को सम्हालने की संगठन कुशलता भी है, ऐसा व्यक्ति चाहिये। अपने में से यह काम कोई नहीं कर सकता, यह बात सब को मालूम थी । संयुक्त नया दल बनाना है, दोनों के कार्यकर्मों को एकता के आधार पर तय करना है, सबको एकत्र लाना है, परन्तु इस प्रकार जो भानुमति का कुनबा होगा उसको साथ लेकर कौन चलेगा । विचार हुआ कि यह काम अपने में से कोई नहीं कर सकता, केवल गोलवलकर जी ही यह काम कर सकते हैं । यदि उन्होंने मान लिया तो, परन्तु वे मानेंगे क्या? पंडित द्वारका प्रसाद मिश्रा जी ने कहा कि मैं मनवाने का काम जरूर करूंगा । मेरे संघ वालों के साथ अच्छे संबंध हैं । पं. मिश्राजी और संघ वालों के बीच मध्यस्थी का काम कर सकने वाले अपने एक-दो प्रचारक थे । उनको मिश्रा जी ने बुलाकर सभी बात बताई । कहा कि कठिन काम तो मैंने कर लिया है । दोनों के कार्यक्रम एकत्रित कर दोनों को स्वीकार हो ऐसा फॉर्मुला तैयार किया है । जो संयुक्त पार्टी बनेगी वह सेकंड लार्जेस्ट पार्टी ऑफ द कंट्री बनेगी । सवाल केवल नेतृत्व का है । सोशलिस्टों ने कहा है कि इसे हम तो नहीं सम्हाल सकते, गोलवलकरजी ने सम्हाला तो ही हो सकता है । अन्य किसी पर उनका विश्वास नहीं है । तो आप गोलवलकर जी को ये सारी बातें बता दो । उनसे कहो कि सोशलिस्ट पार्टी का सौम्य प्रवृति कार्यकर्ता गण (सोबर एलिमेंट) आपका नेतृत्व स्वीकार करेगा । कुछ सोशलिस्ट नेता इसमें नहीं आयेंगे, परन्तु वे निकल जाने के बाद भी यह नया दल सेकंड लार्जेस्ट पार्टी बनेगी । प्रचारकों ने कहा कि मिश्रा जी यह होने वाली बात नहीं है । गुरूजी मानेंगे नहीं । मिश्राजी गुस्सा हो गये और बोले, तुम बच्चे हो । तुम जानते नहीं हो कि जनसंघ जैसी नयी पार्टी कैसी खड़ी करना और उसे कैसे बढ़ाना चाहिये । जनसंघ एक छोटी पार्टी रहेगी । ऐसी छोटी पार्टी का प्रेसिडंट बनना कोई महत्व की बात नहीं है । जो पार्टी बनते ही सेकंड लार्जर पार्टी होगी, उसका, अध्यक्ष बनना कितनी प्रतिष्ठा वाली बात है । कोई भला आदमी इसे इंकार नहीं कर सकता । तुम यहां बात मत करो । गोलवलकर जी के पास जाओ । उनको सारी बातें सुनाओ ।
ये मध्यस्थ प्रचारक श्री गुरुजी को मिले । उनका कथन सुनने पर श्री गुरुकी हंसे और बोले, मेरा उत्तर तो तुम सब लोग जानते हो । उनसे कह दो । मिश्राजी को सब बताया गया । मिश्राजी नाराज हुए और श्री गुरुजी के बारे में उन्होने कहा कि “यह बहुत कर्तृत्ववान है, लेकिन हठवादी है ।”
श्री गुरूजी के बारे में बाहर के भी लोगों की कैसी उच्च धारणा थी यही इससे प्रकट होता है ।
(संघ शिक्षा वर्ग (तृतीय वर्ष) नागपुर में, दिनांक ७- ६-९६ को दिये गये भाषण के आधार पर)
पूजनीय श्री गुरुजी कि अमृतवाणी से
हमारी तेजस्विनी मातृभूमि!
यह है हमारी पवित्र भूमि भारत! देवताओं ने जिसकी महत्ता के गीत गाये है
गायन्ती देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ये भारत भूमि भागे ।
स्वर्गापवर्गास्पद हेतु भूते भवन्ति भूय: पुरुषा सुरत्वात् ।
(देवगण इस प्रकार गीत गाते हैं कि हम देवताओं से भी वे लोग धन्य हैं, जो स्वर्ग और अपवर्ग के लिये साधनभूत भारतभूमि में उत्पन्न हुए हैं ।) – यह भूमि जिसे महायोगी अरविन्द ने विश्व की दिव्यजननी के रूप में जीवन्त आविष्कीकरण कर प्रत्यक्ष किया – जगन्माता! आदिशक्ति! महामाया! महादुर्गा! और जिसने मूर्त रूप साकार होकर उसके दर्शन-पूजन का हमें अवसर प्रदान किया है ।
– यह भूमि, जिसकी स्तुति हमारे दार्शनिक कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने – ‘देवि भुवन मनमोहिनी’….. नील सिन्धु जल धौत चरण तल’ कह कर की है। – यह भूमि, जिसका वंदन स्वतंत्रता के उद्घोषक कवि बंकिमचन्द्र ने अपने अमर गीत ‘वन्दे मातरम्’ में किया है । जिसने सहस्त्रों युवा हृदयों को स्फूर्त कर स्वतंत्रता के हेतु आनंदपूर्वक फांसी के तख्ते पर चढ़ने की प्रेरणा दी – त्वं हि दुर्गा दश प्रहरण धारिणी ।
– यह भूमि, जिसकी पूजा हमारे सभी सन्त-महात्माओं ने मातृभूमि, धर्मभूमि, कर्मभूमि एवं पुण्य भूमि के रूप में की है, और यही वास्तव में देव- भूमि और मोक्ष भूमि है ।
– यह भूमि, जो अनंतक्ताल से हमारी प्यारी पावन भारत माता है, जिसका नाम मात्र हमारे हृदयों, को शुरू, सात्विक भक्ति की लहरों से आपूर्ण कर देता है ।
अहो, यही तो हमारी सबकी मां है – हमारी तेजस्विनी मातृभूमि!
वास्तव में ‘भारत’ नाम ही निर्देश करता है कि यह हमारी मां है । हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं के अनुसार किसी महिला को पुकारने की सम्मान पूर्ण रीति यह है कि उसे उसके पुत्र के नाम से पुकारा जाय । किसी महिला को अमुक की पत्नी अथवा अमुक की ‘मिसेज’ कहकर पुकारना पाश्चात्य रीति है । हम कहा करते हैं – “वह रामू की मां है।” यही बात हमारी मातृभूमि भारत के नाम के विषय में भी लागू होती है । भरत हमारे ज्येष्ठ भ्राता हैं – जिनका जन्म बहुत काल पूर्ण हुआ था । वह उदार, श्रेष्ठ गुण सम्पन्न और विजयिष्णु राजा थे एवं हिन्दू पुरुषार्थ के भासमान आदर्श थे । जब किसी स्त्री के एक से अधिक पुत्र होते हैं, तब हम उसे उसकी ज्येष्ठ संतान के नाम से अथवा सबसे अधिक ख्याति प्राप्त संतान के नाम से पुकारते हैं । भरत ख्याति प्राप्त थे और यह भूमि उनकी माता कही गई है – भारत अर्थात् सभी हिन्दुओं की माता ।
हमारे सभी महत्व के धार्मिक संस्कार भूमि-पूजन से आरंभ होते हैं। यह एक प्रथा है कि प्रात: काल में जैसे ही हिन्दू निद्रा को त्यागता है, सर्व प्रथम वह पृथ्वी माता से इस बात के लिये क्षमा याचना करता है कि दिन भर वह उसे अपने पैरों से स्पर्श करने के लिये विवश हैं ।
समुद्र वसने देवि पर्वतस्तन मण्डले ।
विष्णु पत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे । ।
(देवि! समुद्र तुम्हारा परिधान है, पर्वत स्तन मण्डल हैं, जिनका वात्सल्य नदियों में प्रवाहित हो रहा है । हे विष्णु पत्नि, मैं तुम्हे प्रणाम करता हूं । मेरे पैरों के स्पर्श होने की धृष्ठता के लिये क्षमा करना ।)
वास्तव में यह (मातृभूमि) सदैव हमारे राष्ट्र-जीवन की मध्यवर्ती कल्पना रही है । उसने अपनी मिट्टी, हवा, जल तथा अन्यान्य विविध पदार्थों से, जो सुख और पोषण के लिये है, मां जैसा हमारा पोषण किया है । उत्तर में अलंध्य हिमालय के रूप में उसने पिता के समान हमें संरक्षित किया है । और, देश के विभिन्न हिस्सों में फैली अरावली, विन्ध्य, सह्याद्रि आदि गिरिश्रंखलाओं ने भूतकाल में स्वतंत्रता के शूर सेनानियों को रहने के लिये जगह और बचने के लिये व्यवस्था दी है । तथा धर्मभूमि, कर्मभूमि एवं मोक्ष- भूमि के रूप में उसने हमारे आध्यात्मिक गुरू का स्थान लिया है ।
इस प्रकार हमारी मातृभूमि ने एक रूप में ही माता-पिता एवं गुरू तीनों का कर्तव्य हमारे प्रति पूर्ण किया है ।
माधव सदाशिव गोलवलकर