14 अक्टूबर, 2004 को मा० ठेंगड़ी जी हमसे हमेशा के लिए दूर हो गए । अब हमें उनके प्रत्यक्ष दर्शन कभी नहीं होंगे। लेकिन वे सदैव स्थापित रहेंगे । देश समाज का जो वर्ग वास्तव में शोषित, पीड़ित, दलित और उपेक्षित रहा है ठेंगड़ी जी वास्तव में उनके भाग्य विधाता थे । उनके भाग्य निर्माण हेतु उन्होंने भारतीय मजदूर संघ (23 जुलाई, 1955) भारतीय किसान संघ (4 मार्च, 1979) स्वदेशी जागरण मंच (22 नवम्बर, 1991), एवं सामाजिक समरसता मंच (14 अप्रैल, 1983) का निर्माण किया । इनके अतिरिक्त संघ के सहज विकासक्रम में गठित अनेक संगठनों, जैसे भारतीय जनसंघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, संस्कार भारती, सर्वधर्म समादर मंच, स्वदेशी सायंस मूवमेंट में ठेंगड़ी जी की अति महत्त्वपूर्ण भूमिका रही । श्रमिक आंदोलन जीवन के शुरू मे वे इंटक से भी जुड़े रहे अपने महाविद्यालयीन, काल में साम्यवादी एवं समाजवादी संगठनों से जुड़े रहकर उन्होंने श्रमिकों के क्षेत्र में गहरा चिन्तन किया था और आज देश के सबसे बड़े श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ का गठन किया था । आज भारतीय मजदूर संघ की कुल सदस्य संख्या 84 लाख से भी अधिक है । देश के विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे संघ-सृष्टि के 16 संगठनों में वे पदाधिकारी या सदस्य तथा देश-विदेश में व्याप्त संघ सृष्टि के करोड़ों लोगों के प्रेरणास्त्रोत थे ।
ठेंगड़ी जी वास्तव में सरल स्वभाव वाले श्रम ॠषि थे । उनका राजनीति से कुछ भी लेना-देन नहीं था । पद प्रतिष्ठा या यश प्राप्ति तो उन्हे छू भी नहीं पाई थी । एक चर्चा सत्र में उन्होंने एक संस्मरण सुनाया । एक बार उनके बाल्यकाल से मित्र एक सज्जन उनसे मिलने आए । बातचीत के दौरान उन्होंने ठेंगड़ी जी से कहा ‘दत्तू (वे दत्तोपंत ठेंगड़ी को इसी नाम से बुलाते थे), मेरे दिमाग में एक सवाल हमेशा खड़ा रहता है, पर पूछना नहीं चाहता, खैर छोड़ो।‘ ठेंगड़ी जी के आग्रह पर उन्होंने कहा, ‘तू इतने सालों से घर के बाहर रह रहा है, परिवार भी नहीं बसाया संघ का प्रचारक बनकर समाज सेवा में अपनी पूरी जिन्दगी हवन कर रहा है, किन्तु आज तक तू कैबिनेट मंत्री तो दूर उपमंत्री भी न बन पाया ।‘ ठेंगड़ी जी ने इस प्रश्न का उतर केवल अट्टहास के रूप में दिया था । उन सज्जन को क्या पता था कि ठेंगड़ी जी के तपोधन से शोषित पीड़ित समाज को कितना बड़ा लाभ मिलता रहा है ।
एक बार एक लड़ाकू वृत्ति वाले युवक ने उनसे पूछा, 'आप कर्तव्य की ही बात करते हैं अधिकारों की बात क्यों नहीं करते? अधिकारों की रक्षा हेतु संघर्ष तो होना चाहिए । आपका क्या मत है?' ठेंगड़ी जी ने उत्तर दिया, 'सभी के द्वारा अपने-अपने कर्तव्य का पालन निष्ठापूर्वक करने से सभी के अधिकार स्वयं ही मिल जाते हैं । जैसे पिता के कर्तव्य में पुत्र के अधिकार निहित होते हैं । शासक के कर्त्तव्यपालन मे शासित के अधिकार स्वयमेव निहित होते हैं । किसी भी प्रकार के संघर्ष की आवश्यकता ही नहीं रहती है । आवश्यकता होती है सामाजिक सौहार्द, भाईचारा तथा शोषण या बेईमानी रहित सहयोग की ।
उस युवक की ऐंठ ढीली पड़ गई थी और उसने कहा, 'सर, आपकी यह व्याख्या बहुत अच्छी है ।' ठेंगड़ी जी बोले, 'यह मेरी व्याख्या नहीं है । मेरा कुछ भी नहीं है, सभी कुछ भारत के प्राचीन ग्रंथों में से परम्परागत चला आ रहा है ।‘
उनका हृदय कितना विशाल था इसका एक संस्मरण यहां उल्लेखनीय है । देश के सभी श्रमिक संगठनों का एक महासम्मेलन दिल्ली में हुआ था । जिस हाल में यह सम्मेलन हुआ था वह एआईटीयूसी के नेता एसएस डाँगे का था । उस महासम्मेलन में मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला था । मैं आगरा से आया था । मेरे साथ कुछ अन्य लोग भी थे । उनमें से कम से कम दो लोग एआईटीयूसी के भी थे । दिल्ली में जाकर हम कहां ठहरेंगे इसकी चिन्ता मुझे रहती ही न थी क्योंकि साउथ एवेन्यू में ठेंगड़ी जी रहते थे और वहां मेरे जैसे अनेक साधारण लोग कभी भी बिना पूर्व सूचना दिए नि:संकोच आकर रुकते थे । मैंने दिल्ली स्टेशन पर उतरते ही कहा वहीं चलते हैं । हमारे कामरेड मित्रों ने कहा नहीं, डाँगे जी के निवास पर रूकेंगे । उन्होंने आग्रह किया और हम लोग डाँगे जी के निवास पर भोर की बेला में ही आ गए । बड़ी देर तक कॉल बेल बजाने के बाद एक महिला बाहर आई और हमारे कामरेड भाई से पूरी बात सुनकर कहा- ‘यहां ठहरने की कोई व्यवस्था नहीं है । महाराष्ट्र मण्डल में जा कर रहो ।‘ महाराष्ट्र मण्डल कहां है, यह हमारे में से किसी को पता नहीं था, अत: मैंने कहा, चलो ठेंगड़ी जी के घर रहेंगे । हम सभी वहां पहुंच गए । ठेंगड़ी जी ने सभी से गले मिलकर स्वयं ही स्वागत किया और रामदास जी नामक एक दुबले-पतले और आँखों में विशेष चमक एवं प्रसन्न चित्त वाले तरुण को हमारी सुविधा का ध्यान रखने के लिए कहा । ठेंगड़ी जी के आत्मीय व्यवहार से हमारे कामरेड साथी पानी-पानी हो रहे थे । हम लोग सम्मेलन से एक दिन पूर्व ही आ गए थे इसलिए प्रतिनिधियों के रहने की व्यवस्था से हटकर हम ठेंगड़ी जी के घर पर गए थे । हम अपने-अपने टिफिनों में कुछ भोजन साथ लाए थे । उसे देखकर ठेंगड़ी जी अति मधुरता से बोले थे, “अरे भाई घर में आए हो, भोजन साथ में क्यों लाए?” रात में जब सभी सोने के लिए लेटे थे तो ठेंगड़ी जी ने स्वयं आकर ओढ़न-बिछावन का निरीक्षण किया था और स्वयं एक साथी के ऊपर रजाई ओढ़ाई थी । निःसन्देह उनका आत्मीयता भरा स्वागत, निर्मल चिन्तन तथा मधुरवाणी, उनके जाने के बाद स्मृतियों को कुरेदते हैं, किन्तु इस सत्य को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि ठेंगड़ी जी अब कभी वापस नहीं आएंगे, हां अपने अनुगामी बने हजारो कार्यकर्ताओं को अपने जैसा बनने की एक विशिष्ट विधा वे अवश्य छोड़ गए। जिसके कारण आज उनके द्वारा चलाए गए और प्रेरित संगठनों के माध्यम से करोड़ों लोग दिशा प्राप्त कर रहे हैं और उनके काम को आगे बढ़ाने में पूर्णतया समर्पित हैं ।
डॉ० बलराम मिश्र