यह मेरा सद्भाग्य है कि मुझे स्वर्गीय दत्तोपंत जी का सानिध्य बहुत मिला। जिन-जिन को ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ वे सभी मानेंगे कि उन के व्यक्तित्व पर लिखना बहुत कठिन है। इसके दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि 1941 से लेकर 2004 तक का उनके सार्वजनिक जीवन का प्रदीर्ध कालखड, संपूर्ण भारत के हरेक प्रांत, हरेक जिला, इतना ही नहीं, ग्राम-ग्राम तक पहुंचा। उनके द्वारा स्थापित संगठनों, संस्थाओं का व्यापक कार्य, तथा मजदूर, किसान, विद्यार्थी, ग्राहक, अधिवक्ता, सामाजिक समरसता, पर्यावरण आदि क्षेत्रों के विभिन्न आयामों के बारे में सैद्धांतिक तथा मूलगामी चिंतन ने उनका व्यक्तित्व इतना विशाल बनाया कि उनका मूल्यांकन एक व्यक्ति से संभव नहीं।
दूसरा कारण यह है कि ईश्वर के नामस्मरण को आप बोलते रहो, बोलते रहो फिर भी वह समाप्त नहीं होता और शक्ति, भक्ति समान वर्णन करते समय स्वयं आपकी वाणी रुकेगी, शब्द असमर्थ हो जाऐंगे। स्व० दत्तोपंत जी का सानिध्य जिन को प्राप्त हुआ है, उन को नामस्मरण की यह तुलना अतिश्योक्ति नहीं लगेगी।
ऐसे समय में एक पत्र का उल्लेख करना चाहूंगा। यह पत्र समर्थ रामदास स्वामी जी ने श्री संभाजी महाराज को छत्रपति शिवाजी महाराज के मृत्यु के पश्चात लिखा था। उस पत्र में थोड़ा संशोधन करके जहां 'शिवाजी' नाम लिखा है वहां यदि दत्तोपंत जी का नाम लिख देंगे, तो मेरा उद्देश्य पूरा हो जाएगा ऐसा मुझे लगता है। वे पक्तियां इस प्रकार हैं-
स्मरो पतंजी का रूप। स्मरो पंतंजी का प्रताप।
स्मरो पंतजी कर साक्षेप। भारत भू में।
पंतजी कैसे चलते। पंतजी कैसे बोलते।
पंतजी का स्नेह देना। कैसा था?
दत्तोपंत जी को युवा काल में जिन्होंने देखा है वे जानते हैं कि वे अच्छे, लंबे-चौड़े एवं विशाल काया के धनी थे और पहली बार देखते ही व्यक्ति पर उनका प्रभाव पड़ता था। प्रताप याने शूरता वरिता और कृतत्व। जब मजदूर संघ की स्थापना की तब कामगार क्षेत्र पर कम्युनिस्ट लोगों का प्रभाव था और दत्तोपंत जी के पास न तो एक युनियन थी और न ही कार्यकर्ता उस समय उन के कार्य क्षेत्र में, दत्तोपंत जी ने 'शून्य' से शुरूआत की और उसे अपनी शूरता, वीरता एवं कृतत्व के सहारे सर्वोच्च स्थान दिलाया एटक के चौदह साल महामंत्री रहे श्री इन्द्रजीत गुप्ता जब भारत के गृहमंत्री थे तब उनको यह घोषित करना पड़ा कि भारतीय मजदूर संघ भारत का एक क्रमांक का संगठन है। ऐसा था दत्तोपंत जी का प्रताप। 'साक्षेप' यह शब्द श्री रामदास स्वामी जब उपयोग करते हैं तो उसमें पांच बातें समाविष्ट रहती है। वे पांच संकल्पना इस प्रकार है:- 1. निश्चित ध्येय, निश्चित उद्दिष्ट। 2. उस उद्देश्य को प्राप्त करने के अनेक मार्गों में से एक मार्ग की स्पष्टता। 3. उस मार्ग पर, चलने की तीव्रतम इच्छा और दृढनिर्धारण-दृढनिर्धारण कैसा? तो प०पू० श्री गुरूजी ने प्रथम बंदीकाल में सभी स्वयं सेवकों को पत्र लिखा था जिसमें वे लिखते है कि आगे, और आगे, और सदा आगे ही बढते जाना है। संकट, बाधाएं, कभी स्वजनों द्वारा ही द्रोह सभी सहना है, इस प्रकार का दृढ निर्धारण। 4. सुयोग्य कृति कार्यक्रम और 5. विजय विश्वास में यह कार्य पूरा कर के ही रहूंगा ऐसा विश्वास। दत्तोपंत जी का साक्षेप ऐसा था। जिस का स्मरण आवश्यक है।
पंत जी कैसे चलते थे? कैसे बोलते थे? उनका स्नेह पूर्ण व्यवहार यह तो अनुभव की बात है। उनका रहन-सहन यह इतना आदर्श क्यों था? तो एक बात स्पष्ट है कि उन्होंने प्रयत्नपूर्वक यह साध्य की होगी। उन्होंने अपनी युवावस्था में ही डेलकार्नेजी के “हाऊ टू विन फ्रेन्ड्स” जैसी सभी किताबें, कई बार पढी थी। साथ ही साथ प्रबंधन गुरू के नाम से विख्यात पीटर ड्रकर की नवीनतम किताब भी वे पढते थे। लेकिन इन पाश्चिमात्य विचारकों का प्रभाव उन पर नहीं था। वे कहते थे कि पाश्चिमात्य विचारक- कैसे अच्छा दिखना, यह सिखाते हैं परंतु भारतीय तत्वज्ञान, भारतीय संत, महात्मा कैसे अच्छा हो सकते हैं? यह सिखाते हैं। हमारे संतो का कहना है कि आप का जो 'स्व' है उसे जान। यह ‘स्व’ परमात्मा का ही अंश है और तुम मे जो 'स्व' है- जो परमात्मा का अंश है उसी परमात्मा का अंश दूसरे में भी है। इसलिए 'आत्मिक एकता' इस की अनुभूति करना। ऐसी अनुभूति स्व० दत्तोपंत जी ने ली थी और इसके कारण अन्य सभी लोगों से उन का व्यवहार आत्मीयता पूर्ण रहता था।
स्व० दत्तोपंत जी के मन में अनन्यता, प्रेम, सद्भाव होने के कारण उनका बर्ताव कैसा था यह संत ज्ञानेश्वर जी के निम्न वर्णन से स्पष्ट होता है।
आगे पिघलता स्नेह। बाद में मधुर स्वागत।
पहले कृपा। बाद में प्रश्न॥
दतोपंत जी को मिलने को कोई आया, तो उनके चेहरे पर संपूर्ण शरीर पर एक स्नेह का भाव पहले बरसता था और बाद में कहते थे आईए, आईए। जैसे कोई लड़की पहली बार ससुराल से मायके आती है, तो घर में जो जो लोग हैं, जैसे- दादा-दादी, माता-पिता, बहन, भाई सभी के स्व, सभी की हलचल बहुत ही स्नेहपूर्ण रहती है, ऐसे स्नेह की बरसात स्व० दत्तोपंत जी के शरीर पर, चेहरे पर प्रकट होती थी। कार्यकर्ता धूप से आया है, तो बंद पंखे को चलाना या उस की गति बढ़ाना वे नहीं भूलते थें। घर में जो अन्य कार्यकर्ता रहता था वह पानी का। ग्लास लाएगा। कुशल-क्षेम पहले पूछते थे बाद में आने का कारण या अन्य प्रश्न ज्ञानेश्वर कहते हैं-
बोलेंगे नहीं, बाद में। रहेंगे स्वस्थ।
बोलो तो भी। ना हो कष्ट॥
जब कार्यकर्ता या कोई व्यक्ति आया है तो कार्य होगा ही, समस्या होगी ही। लेकिन दत्तोपंत जी पूछेंगे नहीं और पूछेंगे तो इस प्रकार पूछेंगे की आने वाले को कष्ट न हो। घर में या कार्यालय ने कोई कार्यकर्ता, कोई व्यक्ति बहुत दिनों के बाद आया तो हम तुरंत पूछते हैं चार्जशीट मिला होगा? टिकट कन्फर्म कराना होगा? पैसे की जरूरत होगी? लड़के को स्कूल में प्रवेश दिलवाना होगा? या नौकरी लगानी होगी? इस प्रकार के प्रश्न पूछ कर हम आए हुए कार्यकर्ता को आते ही कष्ट देते हैं। ऐसा प्रश्न दत्तोपंत जी कभी नहीं पूछते थे। ज्ञानेश्वर जी के शब्दों में-
कथनी न तोड़े। रुकावट न लावे।
गम्भीरता से सुनते जाए। दीर्घकाल॥
आया हुआ कार्यकर्ता, या व्यक्ति अपनी बात, अपनी समस्या शुरू से लेकर अंत तक कहता था। कई बार दत्तोपंत जी को वह बातें पहले ही मालूम रहती थी। लेकिन वे कभी भी उस को यह मुझे मालूम है, थोड़े में कहो, ऐसा नहीं कहते थे। अन्य कार्यकर्ता, जो वहां उपस्थित होते थे उन्हे लगता था कि यह आदमी जल्दी में क्यों नहीं अपनी बात समाप्त करता है। दत्तोपंत जी उसे बोलने देते, प्रतिसाद देकर उसे और बोलने को प्रेरित भी करते थे। जब तक उस कार्यकर्ता का समाधान नहीं होता था, तब तक वह बोलता रहता था। उपस्थित अन्य सभी लोग परेशान। लेकिन दत्तोपंत जी तन्मयता से आने वाले की बातें सुनते और कभी भी उनको बातों में रूकावट डालते हम लोगों ने उन्हे देखा।
अंत मे संबंधित कार्यकर्ता अपनी समस्या बताता था। उस समस्या पर दत्तोपंत जी कैसे जबाव देते थे? सुनने वालों को कैसा लगता था? तो जिस प्रकार दुखी कार्यकर्ता अपनी समस्या लेकर आया और उस पर जब दत्तोपंत जी का जबाव मिलता था, तो उसे लगता था कि मेरी मां जवाब दे रही है। उसे लगता था कि नादब्रहम ही सावयव, साकार होकर सामने खड़ा है या गंगा बह रही है, उसके पानी का मधुर स्वर कानों को सुखद शांति दे रहा है, विषण्ण मन स्थिति को नया उत्साह दे रहा है। कष्टों पर, दुख पर अमृत सींचन हो रहा है- ऐसा उसे लगता था।
एक बहुत पुराना वरिष्ठ, मंजा हुआ कार्यकर्ता दत्तोपंत जी से मिलने आया। हम लोग भी उन्हे पहचानते थे। उन्होंने अपना दर्द हमें भी सुनाया था। हम लोगों की उपस्थिति में ही उन्होंने दत्तोपंत से कहना शुरू किया और अंत में उसने कहा दत्तोपंत जी मैं काम से मुक्ति चाहता हूँ अनुमति दीजिए। दत्तोपंत जी बोले संगठन की ऐसी स्थिति, देश की यह परिस्थिति, ऐसे समय हम दोनो, मैं और आप दोनों काम से मुक्ति लेंगे। काहे को यह मनःस्ताप। शांति से जीवन बिताएंगे। गंगा, यमुना के तट पर आनंद से ध्यान धारण करेंगे। संबंधित व्यक्ति चौंक उठा। कार्यकर्ता निरूत्तर हो गया। हम रूकेंगे नही, झुकेंगे नहीं- यह भाव उस के मन जगा। अमृत सींचन हुआ। सत्य लेकिन मृदु, अल्पतम लेकिन सुस्पष्ट, योग्य और शुभ, निश्चित और एक ही बार, ऐसा उनका जवाब रहता था। यह एक तरफ तो सकारात्मक वैध प्रश्नोत्तर देते थे वैसे दूसरी तरफ नकारात्मक अवैध शब्दों का उन्होंने पूरी तरह से त्याग किया हुआ था। उन्होंने मन में अहिंसा ठानी हुई थी। विरोधी, विवाद बढ़ाने वाला, दूसरे के मर्मो को स्पर्श करने वाला, उपहास या प्रतारणा करने वाला, शब्दोचार दत्तोपंत जी से संभव ही नहीं था। वह श्रेष्ठ योगी पुरूष थे।
ऐसे दत्तोपंत जी ने एक शब्द का उच्चार किया। जिस पर बाद में बहुत चर्चा हुई। उन्होंने एक बड़ी सभा मे ‘वित्तमंत्री’ ‘क्रिमिनल’ है ऐसा कहा। श्रम आंदोलन के संपूर्ण जीवन में भी इस प्रकार का वक्तव्य कभी न देने वाले दत्तोपंत जी यह बोले। अंहिसा जिसने मन में ठानी थी वे ऐसा कैसे बोल सकते है? बाद में दूसरे दिन कार्यकर्ताओं ने उनको पूछा- यह शब्द प्रयोग कैसा हुआ? उन्होंने कहा मैंने उस शब्द पर कई घंटों तक विचार, चिंतन मनन किया था। अनजाने में उच्चारण नहीं हुआ। बाद में समझ मे आया यह भी अहिंसा का ही रूप है। श्री ज्ञानेश्वर जी ने अहिंसा का वर्णन किया है-
विश्व के सुखोद्देश से। काया वाचा मनसे।
जो प्रकटे बर्ताव से। वही है अहिंसा॥
जग के सुखोद्देश से, शरीर, वाचा या मन से जो भाव प्रगट होंगे, क्रिया होगी वही अहिंसा है। कर्ण के रथ का चक्का जमीन में गड़ा जा रहा है, वह चक्का बाहर निकालने की कोशिश में है उसी समय उसके ऊपर शरसंधान करना, यह भी अहिंसा है। आई एम एफ और वर्ल्ड बैंक के दबाव में आकर श्रम कानून में बदलाव की वित्तमंत्री ने अपने भाषण में घोषणा की थी। यह अपने देश की सप्रभुता पर आक्रमण था। उसे रोकना अति आवश्यक था। दत्तोपंतजी के उस एक शब्द के प्रयोग से गत चार बरसों में केन्द्र सरकार की हिम्मत नहीं हुई और अभी तक वे अन्यायपूर्ण बदलाव श्रम कानून में नहीं हुए। योगी पुरुष का यह संतुलित बर्ताव अहिंसा युक्त बर्ताव ही था।
स्व० दत्तोपंत जी जिस प्रकार योगी पुरुष थे वैसे ही सर्वोत्तम पुरुष भी थे। श्री रामदास स्वामी जी ने उत्तम पुरुष के लक्षण बताए है। उन लक्षणों में दो भिन्न गुण - जो सामान्यत: एक व्यक्ति में नही होते ऐसे दो गुणों की जोड़ी लगाई है और कम से कम ऐसी एक दो जोड़ियां भी एक व्यक्ति में हो तो उसको उत्तम पुरुष कहना। लेकिन स्व० दत्तोपंत जी के व्यक्तित्व को देखकर ऐसा लगता था कि श्री रामदास स्वामी ने जो एक लंबी सूची दी है उसमें से सभी जोड़ियों में दत्तोपंत जी उत्तीर्ण होने वाले व्यक्तित थे। श्री रामदास जी ने कहा हैं -
परम सुन्दर और चतुर। परम सबल और अतिधीर।
परम संपन्न और उदार। बहुमात्रा में॥
सुन्दर व्यक्त्ति चतुर होता है ऐसा नही, लेकिन दत्तोपंत जी इस गुण से युक्त थे। जो सबल होता है, जिसके पास ताकत रहती है, वह धीरज रखने वाला नहीं होता, तुरन्त उत्तेजित होता है। दत्तोपंत जी के पास सामाजिक संगठनों के कारण विशाल शक्ति प्रान्त थी। बहुत ही बड़ा मोर्चा, लाखों किसान, मजदूरों को दत्तोपंत जी ने संबोधित किया। लेकिन इस शक्ति के बाद भी शांत। भारत के ही नहीं, अपितु विश्व के सभी टी. वी. चैनल दत्तोपंत जी का साक्षात्कार लेने को उत्सुक रहते थे। उनके पीछे पड़े रहते थे। लेकिन उन्होंने कभी भी साक्षात्कार नहीं दिया। वे व्यक्तिगत प्रसिद्धि से हमेशा दूर रहे। पूरी आयु में व्यक्तिगत दृष्टि से अखबारों में या टी.वी. पर साक्षात्कार में एक बार भी नहीं आए। 'परम सबल और अतिधीर'। वे सांसद रहे थे, इसलिए पेन्शन, भत्ता आदि मिलता था। लेकिन वह सब रकम संगठन के खाते में जमा होती थी। संपन्न व्यक्ति कंजूस होता है लेकिन दत्तोपंत जी को आर्थिक लाभ का थोड़ा भी आकर्षण नहीं था।
परम ज्ञाता और भक्त। महापंडित और विरक्त
महा तपस्वी और शांत। बहुभाषा में॥
ज्ञानी पुरुष सामान्यता भक्त नहीं होता है - ज्ञानमार्गी, भक्ति आदि में विश्वास नहीं रखता, देवपूजा मे वह ज्यादा रस नहीं लेता। दत्तोपंत जी 'दत्तभक्त' थे। गाणगापूर जाते थे। ईश्वर भक्ति पर जोर था। साधारण तथा जो विद्वान होते हैं वे बहुत ही लुब्द दिखाई देते हैं। दत्तोपंत ऐसे विषयों में कितने विरक्त थे, इसकी अनुभूति कई बार महसूस होती थी। तपस्वी तो दुर्वासारामान होते हैं, लेकिन दत्तोपंत जी को क्रुद्ध रूप में किसी ने देखा भी नहीं होगा।
इस प्रकार जितने भिन्न गुणों की जोड़ियां श्री रामदास जी ने दी है, सभी का एकात्म दर्शन हमें दत्तोपंत जी में दिखाई देता है।
स्व० दत्तोपंत जी एक उत्कृष्ट वक्ता थे और सभी विषयों की अच्छी जानकारी और ज्ञान भी रखते थे तो भी वे एक श्रोता के रूप में घंटों तक बैठते थे। दीर्घ बैठकों में भी वे पूरा समय देकर, सामान्य कार्यकर्ता भी जो कुछ कहता है उनको सुनते थे। अपना उद्घाटन भाषण किया और कार्यक्रम से गए ऐसा कभी नहीं हुआ। भाषण करते समय एक भी गलत शब्द का प्रयोग न हो, जिस शब्द से दीर्घकाल के बाद भी तकलीफ होगी ऐसा उच्चारण वे कभी नहीं करते थे। कंप्यूटर का उन्होंने विरोध किया ये सभी जानते है। लेकिन उनके हरेक भाषण, हरेक लेख को बारीकी से देखने पर समझ में आता है कि वे कहते थे कि 'इंडिस्क्रीमिनेट कम्प्यूटरायजेशन' के हम विरोधी हैं। बैंको का “नेशनलायजेशन”, “नेशनलायजेशन” नहीं है वह “गवर्मेंटलायजेशन” है, इसलिए हमारा विरोध है। गत दस-पन्द्रह वर्षों से, वे अमेरिका के खिलाफ बोलते थे। लेकिन जभी कभी उन्होंने अमेरिका ऐसा कहा तो वे तुरंत उसी वाक्य में कहते थे कि 'जब मैं अमेरिका ऐसा कहता हूँ तो मेरा अर्थ है अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिक, सरमायदार तथा राज्यकर्त्ता, मैं अमेरिका के सामान्य नागरिकों के खिलाफ नहीं हूँ।‘
इस प्रकार शब्द और उसके अर्थ के बारे में बहुत ही सतर्कता और सजगता रखते थे। जैसे कि 'समता' शब्द के बदले उन्होंने 'समरसता' इस शब्द का प्रयोग किया। पहले से जो 'सामाजिक समता' इस विषयों पर अध्ययन करते थे, बोलते थे, लिखते थे, उन विचारकों का आग्रह 'समता' शब्द का था। दत्तोपंत जी ने उन्हें समझाया और कहा 'समरसता के बगैर समता सम्भव नहीं' इसलिए हम सामाजिक समरसता मंच खड़ा करेंगे। अन्य बाकी लोगों ने भी इसको माना।
सिद्ध पुरुष होते हुए भी अन्य लोगों की तरह वे साधक के रूप में रहते थे। साधन की रक्षा भी करते थे एवं करवाते थे। किन छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखना चाहिए? किस प्रकार की सावधानी बरतनी चाहिए, आदि विषयों पर उनकी कई छोटी-छोटी पुस्तिकाएं कार्यकर्ताओं की पथ प्रदर्शक हैं। 'साधन' रक्षी, साधक के रूप में रहने वाले सिद्ध पुरुष दत्तोपंत जी का व्यवहार 'डेल कार्नेज' या 'पीटर ड्रकर' के किताबों से नहीं, अपितु श्रीमद्भागवत गीता से लिया हुआ था। गीता में कहा है -
यद्यदाचति:. श्रेष्ठ: तत्तदेवेतरो जना:।
स यत् प्रमाणम् कुरूते लोकस्तदनुवर्तते॥
श्रेष्ठ व्यक्ति जिस प्रकार का बर्ताव करेगा, बाकी लोग उसी प्रकार का बर्ताव करेंगे। वह जिस प्रकार का व्यवहार करता है, बाकी लोग उसका अनुसरण करते हैं। इसलिए सर्वोत्तम पुरुष का जो दुर्लभ लक्षण स्वामी रामदास जी ने दिया है, उस साकार रूप को हम कार्यकर्ताओं ने दत्तोपंत जी के रूप में प्रत्यक्ष देखा है वह है-
सुखरूप संतोषरूप। आनंदरूप, हास्य रूप।
ऐक्यरूप आत्मरूप। सभी के बारे में॥
आध्यात्मिक बैठक होने के कारण दत्तोपंत जी का अन्य व्यवहार संगठन कुशल, दूरदृष्टि नेतृत्व, संघर्ष के कार्यक्रम सभी में व्यस्त होते हुए भी एक योगी के समान ही रहा। इन सभी का स्मरण हम को उन जैसा व्यवहार करने की प्रेरणा दें और हम उनके कार्य में स्वयं को समर्पित करें, यही श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ।
मुकुन्द गोरे