श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी का व्यक्तित्व बहुआयामी था, वे सिद्धांत में ही नहीं व्यवहार में भी समग्रता एवं एकात्मता को जीते थे। वे सही अर्थों में राष्ट्र ऋषि एवं युग ऋषि थे। समग्रता का एकात्मता के साथ आंकलन एक कठिन कार्य है, अत: मनुष्य समग्रता के विविध आयामों को क्रमश: आंकलित करता है। सुविधा के लिये किया जाने वाला यह विभाजन कभी समग्र को विखण्डित भी करता है। यह विखण्डन ही पाश्चात्य विद्वानों की व्याख्या में सिद्धांत का आकार ग्रहण किये हुए है। अत: उन्होंने मानव की व्याख्या कभी व्यक्ति परक की तो कभी समाज परक। कभी उन्हें मानव सामाजिक प्राणी लगा तो कभी राजनैतिक प्राणी तथा कभी उन्होंने आर्थिक मानव की भी कल्पना की। पं० दीनदयाल उपाध्याय ने मानवीय आंकलन की इस विखण्डित दृष्टि से उत्पन्न वादों की सीमाओं को रेखांकित किया तथा विखण्डित दृष्टि से प्राप्त किये गये निष्कर्षों को मानव की समग्रता के लिए अशुभ माना। उन्होंने आग्रह किया कि यदि हमें मानव का शुभ अपेक्षित है तो न केवल हम मानव को उसकी समग्रता के साथ आंकलित करें वरन सम्पूर्ण सृष्टि को भी उसकी समग्रता में देखें। अविभक्त समग्रता का नाम ही एकात्मता है। दीनदयाल जी ने कहा मानव न केवल व्यक्ति है, मानव न केवल समाज है तथा मानव न केवल सामाजिक प्राणी है, न केवल राजनैतिक एवं न केवल आर्थिक प्राणी है। मानव इन सब इकाइयों को समग्रता एवं एकात्मता के साथ जीता है। अत: मानवीय व्यवस्थाओं का अधिष्ठान एकात्मता किंवा समग्रता ही होना चाहिये। स्पर्धा  (व्यक्तिवाद) एवं संघर्ष (समाजवाद) विभक्ति के नियामक है, जब कि समग्रता का अधिष्ठान परस्पर पूरकता एवं समन्वय है।

दीनदयाल जी निरूपित इस एकात्म दर्शन के प्रथम व्याख्याता थे दत्तोपंत जी ठेंगड़ी। “एकात्म मानववाद: एक अध्ययन” इस विषय को विवेचित करने वाली ठेंगड़ी जी द्वारा रचित यह पहली पुस्तक है। बाद में श्री गुरूजी (मा०स० गोलवलकर) ने अपने एक व्याख्यान में इसे 'परिपूर्ण मानव' का विचार शीर्षक से विवेचित किया। एकात्म मानवदर्शन को विवेचित करने वाली इस महापुरूष त्रयी के अंतिम महापुरूष थे, श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी। पहले पं० दीनदयाल उपाध्याय 1968 में हमें छोड़कर चले गये, बाद में श्री गुरूजी 1973 में महाप्रस्थान कर गये तथा अब श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी 2004 में विदा हो गये।

भारत का सार्वजनिक जीवन वैचारिक किंवा सैद्धांतिक आह्वानों से रिक्त होता जा रहा है। परिणामत: एक निष्ठाहीनता व्याप्त हो कर हम छिछली नारेबाजी का शिकार हो रहे हैं। इस छिछलेपन को नकारने की अदम्य शक्ति ठेंगड़ी जी में थी। भारतीय मजदूर संघ को शुद्ध ट्रेड यूनियन की अवधारणा के साथ उन्होंने गढ़ा। मजदूर आन्दोलन को राजनैतिक दलों का पुच्छल्ला बनने की प्रक्रिया को उन्होंने रोका। मजदूर को समाज की समग्रता की दृष्टि के साथ नेतृत्व दिया। 'चाहे जो मजबूरी हो, हमारी मांग पूरी हो' के नारे को उन्होंने बदल दिया “देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम।“ पूंजीवादी औद्योगीकरण एवं समाजवादी राष्ट्रीयकरण की एकांगिता को नकारते हुए उन्होंने उद्घोष त्रयी का निरूपण किया “देश का औद्योगीकरण, उद्योगों का श्रमिकीकरण तथा श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण।“ उद्योग एवं राष्ट्र को जोड़ने वाली कड़ी है श्रम। उन्होंने उद्योग पर पूंजी अथवा सरकार के एकाधिकार को चुनौती दी तथा भारतीय मजदूर संघ को प्रथम श्रेणी का मजदूर संगठन बना दिया।

इसी तर्ज पर उन्होंने भारतीय किसान संघ को भी संगठित किया। विश्वकर्मा एवं बलराम के नवीन प्रतीक विधान को मजदूर एवं किसान आन्दोलन से जोड़ दिया। भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों का युगानुकूल भाष्य उपस्थित करना ठेंगड़ी जी के व्यक्तित्व की विशेषता थी। इसीलिये वे राष्ट्र ऋषि एवं युग ऋषि कहलाये। राजनैतिक क्षेत्र का पेण्डुलम समाजवाद एवं उदारवाद के विरोधी ध्रुवों पर जिस प्रकार झूल रहा था, उसका दुष्परिणाम हुआ कि भारत पाश्चात्य साम्राज्यवाद के नवीन संस्करण विश्व व्यापार संगठन के दुश्चक्र में फंस गया। स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना कर ठेंगड़ी जी ने साम्राज्यवादी भू-मण्डलीकरण को चुनौती दी तथा भारत की राजनीति को कठघरे में खड़ा कर दिया। उनके जीवन का अंतिम दशक इसी कार्य में लगा। वे चले गये किन्तु स्वदेशी आन्दोलन की विरासत हमें सौंप गये। सिद्धातों की स्पष्टता, व्यवहार की साहसिकता एवं कर्म की निरन्तरता के वे अथक योद्धा थे।

अनेक रचनात्मक आन्दोलन भी उनके नाम से जुड़े हुए हैं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण है सामाजिक समरसता मंच तथा सर्वपंथ समादर मंच। ये दोनों संगठन बहु प्रचारित नहीं है। ठेंगड़ी जी रचनात्मक कार्यों को बिना हल्ला-गुल्ला करने के पक्षधर थे। रचनात्मकता एवं अनामिकता में सहोदराना संबंध है। प्रचार तंत्र से रचनात्मकता को एक सीमा तक ही जुड़ना चाहिये। व्यक्तिगत रूप से वे स्वयं एक रचनात्मक प्रतिभा थे, जो मीडिया से कोसों दूर रहे तथा उनके ये मंच द्वय भी मीडिया से मुक्त ही रहे। एक प्रकार की संगठन त्रयी भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ एवं स्वदेशी जागरण मंच की है, तो दूसरे प्रकार के संगठन द्वय सामाजिक समरसता मंच एवं सर्वपंथ समादर मंच है। मूलत: वे जिस संगठन का प्रतिनिधित्व करते थे वह तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ था। भारत के सार्वजनिक जीवन को उन्होंने अपने स्वयंसेवकत्व से भरा। गुरू भगवाध्वज का यह अनन्य शिष्य इदम न मम् कहते हुए स्वाहा हो गया। उनकी स्मृति को प्रणाम।

डॉ० महेश चन्द्र शर्मा,
अध्यक्ष
एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान